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महाराष्ट्र और झारखंड की राजनीतिक कवायद

महाराष्ट्र और झारखंड की राजनीतिक कवायद

by अवधेश कुमार
in नवम्बर २०२४, विशेष
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देश और राज्य का माहौल चुनाव परिणाम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में शानदार प्रदर्शन का लाभ निश्चित रूप से भाजपा को अगले महाराष्ट्र व झारखंड विधानसभा चुनाव में मिलेगा। इस्लामिक कट्टरवाद और वोट जिहाद की प्रतिक्रिया में हिंदू मतदाता भी लामबंद होंगे।

 हरियाणा और जम्मू कश्मीर के विधानसभा चुनाव सम्पन्न हो गए। सरकार गठित हो गई और महाराष्ट्र एवं झारखंड का चुनाव तारीख घोषित हो गया। इन दोनों चुनाव प्रक्रियाओं के अंतराल को देखें तो यह निष्कर्ष निकालना गलत नहीं होगा कि राजनीतिक वातावरण और मतदाताओं की सोच पर निश्चित रूप से इसका असर होगा। यानी हरियाणा और जम्मू कश्मीर में उठाए गए मुद्दे, नेताओं के वक्तव्यों के साथ निर्मित हुए माहौल भी महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव परिणाम में कारक हो सकते हैं। वैसे जम्मू कश्मीर का मामला थोड़ा अलग है। लम्बे समय से वह एक अशांत तथा पाकिस्तान प्रायोजित अलगाववाद एवं आतंकवाद से ग्रस्त होने के कारण जम्मू-कश्मीर भारत के शेष राज्यों से अलग वातावरण में अभी तक आगे बढ़ा है। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 को प्रभावित किए जाने के बाद और केंद्रशासित प्रदेश के रूप में यह पहला विधानसभा चुनाव था। वहां के राजनीतिक समीकरण भी देश से बिल्कुल भिन्न थे। कांग्रेस ने आईएनडीआईए के नाम से शेष देश का समीकरण बनाने की कोशिश की लेकिन वह शत-प्रतिशत बेअसर रहा। भाजपा को पता था कि वह जम्मू में ही अच्छा प्रदर्शन कर रही थी और 29 सीटें तथा मत प्रतिशत संतोषजनक है। कश्मीर में उसने केवल 18 उम्मीदवार लड़ाए थे जिनका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। अंकगणित बता रहे हैं कि कांग्रेस का नेशनल कांफ्रेंस से गठबंधन नहीं होता तो उससे एक सीट भी नहीं मिलती। उसके कुल छह में से 5 सीटें कश्मीर से और केवल एक जम्मू के हैं जबकि उसका जनाधार जम्मू में भाजपा के समानांतर एक समय ज्यादा रहा है। जम्मू-कश्मीर के चुनाव परिणाम ने साबित किया है कि अनुच्छेद 370 हटाने के बाद वातावरण बदला है। विकास के कार्यक्रमों के साथ तीन स्तरीय पंचायत चुनाव हुए और उन सब से लोगों को अनुभव हुआ कि विकास और शासन में उनकी भागीदारी है। नई राजनीतिक चेतना भी जगी किंतु यह ऐसे सशक्त नहीं हुई कि नेशनल कांफ्रेंस जैसी स्थापित पार्टियों के समानांतर दूसरी राजनीतिक शक्तियां ख़ड़ी हो सके। शायद भविष्य में हो। हालांकि पीडीपी लोकसभा चुनाव की तरह इस चुनाव में भी समाप्त प्राय ही साबित हुई है और महबूबा मुफ्ती की बेटी इल्तजा मुफ्ती अपने परम्परागत बृजबेहरा निर्वाचन क्षेत्र से पराजित हो गईं। अन्य दलों की भी यही दशा रही। इस तरह जम्मू-कश्मीर भी भाजपा और नेशनल कांफ्रेंस की द्विदलीय व्यवस्था वाला राज्य बन गया है।

किंतु हरियाणा भारत का एक आम राज्य है और वहां स्थानीयता को छोड़ दे तो देश के अन्य राज्यों के साथ उसकी तुलना आसानी से सम्भव है। हरियाणा में मतदान द्वारा प्रदर्शित प्रवृत्तियां ऐसी नहीं है जो केवल उसी की सीमा क्षेत्र तक सीमित हो।

वास्तव में आम धारणा तो यही थी कि हरियाणा कांग्रेस के पक्ष में जा रहा है। राहुल गांधी और उनके रणनीतिकार कितने आश्वस्त थे इसका प्रमाण यही है कि अभी तक उन्होंने चुनाव परिणाम को हृदय से स्वीकार नहीं किया है। भाजपा की विजय के बाद कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व की पहली टिप्पणी यही थी कि यह तंत्र और व्यवस्था का परिणाम है। यानी सत्ता के दुरुपयोग और चुनाव आयोग पर धांधली करने का सीधा-सीधा आरोप था। उसके बाद फिर ईवीएम का मामला लाया गया। इस बार दो तर्क दिए गए, अगर इसराइल लेबनान में पेजर विस्फोट कर सकता है तो ईवीएम में परिवर्तन क्यों नहीं हो सकता है और दूसरा उसकी बैटरी 90 प्रतिशत चार्ज थी। बेजोड़ आकलन यह था कि जहां पूर्ण बैटरी थी वहां भाजपा के पक्ष में वैसे परिणाम नहीं आए। चुनाव आयोग पर भाजपा को विजय दिलाने के लिए बेईमानी करने का यह आरोप शर्मनाक और हास्यास्पद है। यद्यपि मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने महाराष्ट्र और झारखंड की चुनावी तिथियों की घोषणा करते हुए इस सम्बंध में उठाए गए प्रश्नों का उत्तर दे दिया। उन्होंने ऐसे तथ्य बताए जिनसे कांग्रेस के बुद्धिमान नेताओं को पश्चाताप होना चाहिए। बावजूद वे स्वीकारने को तैयार नहीं है और नायब सिंह सैनी को बधाई देना भी जरुरी नहीं समझा।

दूसरी ओर हरियाणा प्रदेश कांग्रेस के नेताओं ने जितने बयान दिए उनसे ही केंद्रीय नेतृत्व की सोच का खंडन हो गया। हरियाणा में काम करने वाले किसी नेता ने नहीं कहा कि वे बेईमानी से हराए गए हैं। ज्यादातर का बयान अपने नेतृत्व को आरोपित करने वाला था। हारे हुए उम्मीदवारों और पार्टी पदाधिकारियों ने खुलेआम केंद्र एवं प्रदेश के मुख्य नेतृत्व को ही इसके लिए उत्तरदायी ठहराया है। कांग्रेस के केंद्र और प्रदेश के नेताओं के एप्रोच में यह अंतर बताता है कि स्थानीय स्तर पर उम्मीदवारों या नेताओं को परिस्थितियों की जानकारी थी लेकिन केंद्रीय नेतृत्व वास्तविकता से कट गया था। यह स्थिति तभी होती है जब आप अपनी स्थिति के साथ अपने प्रदर्शन और सामने वाले के प्रदर्शन को लेकर एकपक्षीय मूल्यांकन करते हैं। 2024 लोकसभा चुनाव परिणाम में कई कारक भाजपा के विरुद्ध थे। बावजूद सारी शक्ति लगाकर भी विरोधी यह स्थिति नहीं पैदा कर पाए कि वह सत्ता में आने से वंचित रहे। हरियाणा में भी भाजपा को धक्का लगा लेकिन कांग्रेस के समान ही उसने 5 सीटें तथा उससे वोट 3 प्रतिशत ज्यादा पाए थे।

दरअसल, राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस और उनके रणनीतिकार मान रहे हैं कि लोकसभा चुनाव परिणाम उनकी लोकप्रियता तथा प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी एवं भाजपा की अलोकप्रियता का प्रमाण है। लोकसभा चुनाव में संविधान और आरक्षण खत्म हो जाएंगे जैसे झूठ प्रचारों ने दलित और पिछड़ों के बड़े समूह को भ्रमित किया तथा इसका लाभ आईएनडीआईए घटकों को मिला। भाजपा के कार्यकर्ता, नेता आदि अपनी सरकार द्वारा उपेक्षा और अन्य कारणों से नाराज और निराश थे। कई जगह तो निष्क्रिय हो गए या विरोध में आ गए इसलिए इस झूठे नैरेटिव का खंडन नहीं हो सका। हरियाणा विधानसभा चुनाव में भाजपा उम्मीदवारों और संगठन के बीच तालमेल ठीक-ठाक हुआ और यह नैरेटिव काफी हद तक कमजोर हो गया। दूसरे, दलितों और पिछड़ों को लगा कि हमें भ्रमित किया गया है। फिर कांग्रेस के शासनकाल में दलितों के विरुद्ध हिंसा, हमले व अपमानजनक भाषा भी सामने आता गया। अंततः कुमारी शैलजा की जाति को लेकर की गई टिप्पणी ने अपनी भूमिका निभाई। दलितों के एक बड़े वर्ग, जिसे वहां डीएससी कहते हैं , जो हरियाणा के दलितों का करीब 60 प्रतिशत है, ने भाजपा के पक्ष में वोट डालने का आह्वान किया। उच्चतम न्यायालय द्वारा अनुसूचित जाति आरक्षण में उप वर्गीकरण पर भाजपा ने ऐसा स्टैंड लिया जिससे उनकी सहानुभूति उसके साथ आई और हरियाणा सरकार ने अनुसूचित जाति आयोग के अपने इस अनुशंसा को लागू करने की घोषणा कर दी थी। इसी तरह आरक्षण में क्रीमी लेयर की आय सीमा 6 लाख से बढ़कर 8 लाख कर दिया गया।

तो जिस नैरेटिव से लोकसभा चुनाव में काफी मत भाजपा से खिसक गया था जब वही बदल गया तो परिणाम वैसा नहीं आना था जैसे कांग्रेस, बुद्धिजीवियों व मीडिया का बड़ा वर्ग और एक्टिविस्ट मान रहे थे। इन सबके साथ देश भर में जिस तरह मुसलमानों के आक्रामक जुलूस निकलते रहे, हिजबुल्ला और नसीरूल्लाह के पक्ष में आवाज उठती रहीं, सिर तन से जुदा के नारे लगे उन सबका भी असर हुआ। राहुल गांधी द्वारा अयोध्या को लेकर दिए गए उकसाने वाले वक्तव्यों से भी हिंदुत्व व अयोध्या में आस्था रखने वाले मतदाताओं को निराशा हुई। जो किसी ने किसी कारण से भाजपा से अलग हो गए थे। उन सबको लगा कि अच्छा या बुरा हमारे सामने भाजपा ही विकल्प है। इसलिए भाजपा ने हार के मुंह से अंत में जीत छीन लिया। हालांकि दोनों पार्टियों के मतों में केवल .85 प्रतिशत का अंतर है। भाजपा को 55 लाख 48 हजार 880 यानी 39.94 प्रतिशत तथा कांग्रेस को 54 लाख 30 हजार 602 यानी 39.09 प्रतिशत मत प्राप्त हुआ। इसके आधार पर आप कोई भी निष्कर्ष निकाल लीजिए, सच है कि मोटा-मोटी आकलन था कि कांग्रेस, भाजपा से 4-5 प्रतिशत मत ज्यादा पाकर बहुमत से सरकार बनाएगी। सर्वेक्षण में भी यही परिणाम आ रहे थे और उनकी चाहे जितनी आलोचना करिए आरम्भ की स्थिति ऐसी ही थी। लेकिन कांग्रेस अति आत्मविश्वास का शिकार हो गई और भूपेंद्र सिंह हुड्डा को मुख्य मंत्री बनने के लिए जाटों के एक समूह ने जिस तरह की आक्रामकता की उसके विरुद्ध प्रतिक्रिया हुई। स्वयं जाटों के भी एक वर्ग ने सोनीपत, रोहतक जैसे हुड्डा के परम्परागत क्षेत्र में भाजपा के पक्ष में मतदान किया। कांग्रेस के अंदर नेताओं के बीच खींचतान लड़ाई चलती रही। यह भी सच है कि कुछ उम्मीदवारों को भी  हराने की भी कोशिश नहीं हुई। यानी कांग्रेस उम्मीदवारों और संगठन के बीच अनेक जगह एकता का भाव नही था जो पार्टी की पुरानी बीमारी है।

इन सारी प्रवृत्तियों को आधार बनाएं तो आप महाराष्ट्र और झारखंड के बारे में कम से कम इतना स्वीकार करेंगे कि ये चुनाव 2024 लोकसभा चुनाव से विपक्ष के संदर्भ में भिन्न नैरेटिव और सोच में आयोजित हो रहे हैं। आरक्षण खत्म होने और संविधान समाप्त किए जाने का नैरेटिव कमजोर पड़ चुका है और यह बड़ा कारक सिद्ध होगा। यह होते हुए भी झारखंड में भाजपा ने लोकसभा चुनाव में संतोषजनक प्रदर्शन किया। हेमंत सोरेन की पार्टी टूट चुकी है, परिवार भी बिखर गया। उनकी लोकप्रियता का ह्रास हुआ है और कांग्रेस ने ऐसा कुछ किया नहीं कि उसकी ओर जनता का विशेष आकर्षण हो। 2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा में व्यापक विद्रोह था और विद्रोहियों ने उसके पराजय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा वह 25 सीटों तक सिमट गई। लोकसभा चुनाव में भी विद्रोह थे लेकिन मात्रा कम रही और उम्मीद है कि विधानसभा चुनाव में विद्रोह में कमी आएगी। कारण, राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस तथा विपक्ष ने मुस्लिम वोटो के लिए जिस तरह का नैरेटिव गढ़ा है, एकपक्षीय बातें कर रहे हैं, फैजाबाद निर्वाचन क्षेत्र, जिसमें अयोध्या आता है से समाजवादी पार्टी की विजय को भाजपा को चिढ़ाने के अंदाज में प्रस्तुत कर रहे हैं। इसकी व्यापक प्रतिक्रिया हो रही है। इसका असर महाराष्ट्र और झारखंड दोनों में है। झारखंड में मजहबी इस्लामी कट्टरवाद तथा लव जेहाद के इतने मामले आए हैं जिनकी आम आदिवासियों में भी प्रतिक्रिया है। महाराष्ट्र में हमने औरंगाबाद से मुंबई तक का मार्च, मुस्लिम नेताओं के सम्मेलन आदि में दिए गए डरावने वक्तव्य देखे हैं। हिंदू शोभा यात्राओं पर देश के अन्य भागों की तरह वहां भी पत्थरबाजी हो रहे हैं। लोकसभा चुनाव में भाजपा के द्वारा गलत उम्मीदवारों का चयन तथा दूसरी पार्टी से लाए हुए नेताओं को सम्मान देना स्वयं भाजपा कार्यकर्ताओं और समर्थकों के लिए असंतोष का बड़ा कारण था। लेकिन लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद कांग्रेस तथा विपक्ष के रवैये से उनके अंदर पुनर्विचार का भाव पैदा हुआ है। अब महायुति काफी हद तक स्थिर और संतुलित गठबंधन में बदल चुका है जबकि दूसरी ओर महाविकास आघाड़ी में आपसी तालमेल का अभाव है। तभी तो हरियाणा में कांग्रेस की विजय न होने पर शिवसेना उद्धव ने कटाक्ष किया। तो हरियाणा चुनाव में निर्धारक भूमिका निभाने वाली परिस्थितियां एवं कारक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में महाराष्ट्र में भी दिखाई दे रहे हैं। इन से चुनाव परिणाम प्रभावित नहीं हो ऐसा नहीं हो सकता।

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Tags: #maharastra #jharkhand #india

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