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विकास और विरासत की खोज में मिथिला

विकास और विरासत की खोज में मिथिला

by हिंदी विवेक
in नवम्बर २०२४, विशेष
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ऐतिहासिक रूप से वैभवशाली और गौरवशाली रहा मिथिला स्वतंत्रता के बाद आज भी विकास की बाट जोह रहा है और अपनी सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करने की गुहार लगा रहा है। बिहार सरकार के सौतेले व्यवहार से दुखी मिथिलावासी अलग राज्य की मांग कर रहे हैं ताकि मिथिला को विकसित और समृद्ध बनाया जा सके।

बचपन में मेरी पितामही देवजती देवी प्रसिद्ध नाम बच्चा दाई 1934 के भूकम्प की कहानी सुनाया करती थीं। जिसने न केवल मिथिला के भूगोल को बदल दिया वरन इसने मिथिला को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से एक ऐसे अंधकूप में डाल दिया, जिससे मिथिला आज तक बाहर नहीं निकल पाया है।
15 जनवरी 1934 की दोपहर 2.13 मिनट पर मानो लगा कि शिव तांडव कर रहे हैं, धरती सम्भवतः प्रलयकाल में ही ऐसे डोली होगी जैसा उस समय हुआ था। रिक्टर स्केल पर इसकी तीव्रता लगभग 8 थी और यह प्रलय थोड़े-थोड़े अंतराल पर करीब पांच मिनट तक चलता रहा। सरकारी आंकड़ों के अनुसार मिथिला के मुजफ्फरपुर, दरभंगा, मुंगेर, चम्पारण, भागलपुर और पूर्णिया जिलों में ही लगभग 6,860 लोग मरे थे। कोसी जैसी नदियों ने भी रास्ता बदल लिया और रेल, सड़क, पुल सहित आवागमन के सारे साधन ध्वस्त हो गए। इसके कारण मिथिला दो भागों में विभाजित हो कर रह गया। एक मिथिला कोसी के इस पार थी और दूसरी मिथिला कोसी के उस पार थी, जिसकीे दूरी मात्र बीस से पच्चीस किलोमीटर थी। वह अब सैकड़ों किलोमीटर में परिवर्तित हो गई थी। कोसी के इस पार की मिथिला और कोसी के उस पार की मिथिला एक दूसरे को बस निहारती रही। निहारने के अतिरिक्त कोई आलम्बन भी नहीं था, क्योंकि ब्रिटिश सरकार से लेकर बाद के फेबियन समाजवादी उनके वंशज और बिहार में उनकी सरकार, नेताओं ने यह तय कर लिया था कि इसी बहाने मिथिला को सदा सर्वदा के लिए खंडित कर रखना है। यह भूकंप प्राकृतिक आपदा जरूर था, लेकिन रेल और सड़क मार्ग को बहाल नहीं करना एक ‘पॉलिटिकल इंस्ट्रूमेंट’ था।

कहानी बस इतनी सी है कि जब देश के किसी हिस्से में प्राकृतिक आपदा के कारण इंफ्रास्ट्रक्चर का नुकसान होता है तो सरकार प्राथमिकता के आधार पर जल्द से जल्द इंफ्रास्ट्रक्चर बहाल कर देती है, मगर मिथिला के मामले में कोसी पर एक पुल, कुछ किलोमीटर लम्बी रेल लाइन और सड़क बनाने के निर्णय लेने में सरकार ने सत्तर साल का समय क्यों लगा दिया। इस बीच मिथिला के हक का जो पैसा था उसे पंजाब में हरियाली लाने के लिए स्थानांतरित कर दिया गया। जब एक समय पंजाब में भाखड़ा नांगल डैम बनाया जा रहा था तो मिथिला के लोगों को कहा गया कि वह श्रमदान के माध्यम से कोसी नदी के हिस्से पर बांध बना लें क्योंकि सरकार के पास पैसे नहीं हैं। मेरी नानी और प्रसिद्ध शिक्षक पंडित चंद्रनाथमिश्र ‘अमर’ और बाबूजी डॉक्टर रामदेव झा जो उस समय छात्र थे, ने इस बांध बनाओ अभियान में भाग लिया था।

मिथिला के एकीकरण का श्रेय तत्कालीन प्रधान मंत्री अटलबिहारी वाजपेयी को जाता है जिन्होंने 2003 में न केवल मैथिली भाषा को संवैधानिक दर्जा दिया बल्कि कोसी पर रेल पुल सहित महासेतु के निर्माण की घोषणा की, जिसका कार्य नरेंद्र मोदी की सरकार के समय में सम्पन्न हुआ।
1934 के भूकम्प की कहानी को जानना इसलिए जरूरी है ताकि लोग समझ सके कि कैसे बौद्धिक और सांस्कृतिक रूप से सम्पन्न, उदार परम्परा वाले इस विस्तृत भाषाई और सांस्कृतिक भूभाग मिथिला को न केवल विकास यात्रा से दूर रखा गया बल्कि इसके भाषा और भूभाग को अंगिका, बज्जिका, सीमांचल और कोसिकांचल को हवा देकर खंडित करने की कोशिश की जा रही है। जिस भारत के पांच स्कूल ऑफ लॉ में ‘मिथिला स्कूल ऑफ लॉ’ को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, जिस भूमि पर माता सीता का जन्म हुआ, जिसके कारण इस भूमि को मिथिला कहा जाता है और सीता की मातृभाषा होने के कारण इस मधुर भाषा को मैथिली कहा जाता है, राजनैतिक चक्रव्यूह के अंतर्गत मिथिला और मैथिली की सीमा को दो जिलों तक सीमित करने का षड़यंत्र चला आ रहा है। पूर्णिया, किशनगंज, कटिहार और अररिया जैसे जिलों मिथिला से अलग सीमांचल कह कर प्रचारित किया जा रहा है। विगत कुछ दशकों से इन जिलों में तुष्टिकरण के कारण जो भयानक डेमोग्राफिक परिवर्तन हुए हैं, उससे न केवल मिथिला की पहचान पर संकट उत्पन्न हुआ है बल्कि भारत की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा पर संकट मंडरा रहा है।

देश के राजनैतिक, सांस्कृतिक और भाषाई मानचित्र पर से मिथिला को विलोपित करने का षडयंत्र 200 साल से अधिक पुराना है। 4 मार्च 1816 में ब्रिटिश इंडिया कम्पनी और नेपाल के गोरखा शासक के बीच सीमा समझौता हुआ। इस संधि के अंतर्गत भारत की सीमा के अंतर्गत मिथिला का एक बड़ा भूभाग नेपाल के अधिकार क्षेत्र में चला गया। समय के साथ विभाजन की यह टीस कम नहीं हुई। 1954 में मिथिला में ‘गोरखा पायाक विरोध’ नाम से एक व्यापक जनांदोलन आरम्भ हुआ, जिसके सूत्रधार थे मिथिलाराज के हितचिंतक और प्रसिद्ध चिंतक डॉक्टर लक्ष्मण झा, जिन्होंने मिथिला के हितों की रक्षा के लिए मिथिला सोसलिस्ट पार्टी का गठन किया था। उसी समय जवाहरलाल नेहरु का सार्वजिक रूप से विरोध करते हुए प्रखर कांग्रेसी नेता बाबू जानकी नंदन सिंह ने कांग्रेस के पश्चिम बंगाल में आहूत कल्याणी अधिवेशन में मिथिला राज के मामले को उठाने को घोषणा की, मगर इस अधिवेशन से पूर्व ही उन्हें और सैकड़ों लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। मिथिला विरोधियों ने इसे एक अतिवादी और अलगाववादी आंदोलन सिद्ध करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।

विभाजन की जो टीस बंगालियों और पंजाबियों ने अनुभव की थी, वैसा ही दर्द मैथिलियों में भी है। अंतर सिर्फ इतना है कि बंगाल और पंजाब के विभाजन पर फिल्म से लेकर साहित्य, समाज और सांस्कृतिक मंचों पर इसकी खूब चर्चा हुई और आज भी होती है, लेकिन मिथिला के दर्द को न महसूस किया गया और न ही उसकी कोई चर्चा हुई। देश का विभाजन ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रायोजित और कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग द्वारा कारित एक भयानक षडयंत्र था। यद्यपि तत्कालीन सरकार ने पंजाब की पंजाबियत और बंगाल के ‘आमार शोनार बांग्ला’ के नारे को न केवल बनाए रखा बल्कि उसे राजनीतिक, प्रशासनिक और बौद्धिक रूप से आगे भी बढ़ाया। स्वतंत्र भारत में भाषा के आधार पर नए राज्यों के पुनर्गठन की शुरुआत हुई। 1956 से लेकर अब तक देश में कितने ही नए राज्यों का पुनर्गठन हो चुका है। सरकार यह मानती है कि प्रशासनिक दृष्टिकोण से छोटे राज्यों का निर्माण आवश्यक है, परंतु जब मिथिला राज्य की मांग उठती है तब इसी सरकार और राजनीतिक दलों को इस मांग से देश की एकता और अखंडता पर संकट दिखाई देता है और उन्हें नए राज्यों के निर्माण का औचित्य निरर्थक लगने लगता है। प्रश्न खड़े किए जाते हैं कि यह नया राज्य अपना संसाधन कहां से जुटाएगा क्योंकि न मिथिला में कोई उद्योग है, ना ही कोई इंफ्रास्ट्रक्चर? बाढ़ग्रस्त इसकी आधी जनसंख्या तो भेड़-बकरियों की तरह ट्रेन में लदकर पेट पालने के लिए पंजाब जाती है और आधी से कुछ कम जनसंख्या प्रवासी बन चुके है। मिथिला के औचित्य पर प्रश्न वह लोग खड़े करते हैं जिन्होंने मिथिला को उपनिवेश बनाकर रखा और विकास नहीं होने दिया। आज भी मिथिला विकसित भारत की दौड़ में 100 साल पीछे है। दिल्ली से लेकर पटना तक, सरकार मगध आधिपत्य और मिथिला विरोध की मानसिकता से काम कर रही है। सन 2000 से लेकर अब तक देश में चार नए राज्यों का निर्माण हो चुका हैं। कभी भी यह ‘किंतु और परंतु’ उन नए राज्यों के सम्बंध में नहीं उठाए गए। यदि 112 साल के बाद बिहार का प्रशासनिक हिस्सा रहते हुए भी मिथिला उपेक्षित और अविकसित रहा तो यह सोचना कि अगले 10 सालों में मिथिला का विकास हो जाएगा तो यह सरासर मूर्खता ही है।

मिथिला के पास जल और उर्वर भूमि हैं और पंजाब ने भी जल और भूमि के बेहतर प्रबंधन कर तरक्की कर ली है। ऐसा नहीं है कि मिथिला में उद्योग की सम्भावनाएं नहीं हैं। मिथिला एक अलग राज्य होने की सारी शर्तों को पूरा करता है और ऐसा भी नहीं है कि अलग राज्य की मांग हाल के वर्षों में उठी है। अलग राज्य का आंदोलन 100 साल से अधिक पुराना है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है।
प्राचीनकाल से ही मिथिला की एक विशिष्ट और स्वतंत्र सांस्कृतिक और भाषाई पहचान रही है, जो इसे शेष बिहार से अलग करता है। बृहद विष्णुपुराण से लेकर, प्रीवी काउंसिल के अनेक निर्णयों और विशेषतः पटना उच्च न्यायालय के द्वारा उलाव इस्टेट से जुड़े चंद्रचूड़ देव बनाम विभूति भूषण देव के मामले में उच्च न्यायालय ने मिथिला की भौगौलिक सीमा को परिभाषित किया हुआ है, लेकिन मिथिला के अधिकार और आकांक्षा पर सदैव हथौड़ा चलाया गया।

मिथिला की प्रकृति और इसके सामरिक महत्व को समझना होगा। मिथिला की सीमा नेपाल से मिलती है और नेपाल के ठीक बाद शत्रु राष्ट्र चीन है। एक सनातन विचारधारा वाले हिंदू राष्ट्र नेपाल में चीन ने वामपंथ और सशस्त्र संघर्ष की जो भूमि तैयार की, वह भविष्य के लिए बहुत बड़े संकट की ओर संकेत करता है। यह एक संयोग था या प्रयोग, मिथिला क्षेत्र का मधुबनी जिला लम्बे समय तक साम्यवाद का गढ़ रहा, मगर इसके बावजूद साम्यवाद एक अस्थाई कारक रहा और समाप्त भी हो गया क्योंकि मिथिला सनातन की भूमि रही है। उसी तरह गंगा तट अवस्थित बेगूसराय जिसे कभी साम्यवाद का लेनिनग्राद कहा जाता था। माओ और लेनिन के अनुयायी चाह कर भी गंगा स्नान से जुड़े पौराणिक परम्पराओं से लोगों को मोड़ नहीं सकें। जिस धर्म को वामपंथ अफीम कह कर दुष्प्रचारित करता रहा है, इसका दिग्दर्शन इस जिले में गंगा नदी के सिमरिया घाट पर देखने को मिलता है कि सनातन अफीम नहीं अध्यात्म है और यह मुक्ति का मार्ग है।

राजनीति से लेकर जीवन दर्शन तक, मिथिला ने कभी भी वाममार्ग को स्वीकार नहीं किया। यहां तक कि साम्यवादी विचारधारा के जिन प्रसिद्ध मैथिली एवं हिंदी लेखक वैद्यनाथ मिश्र ‘यात्री’ उर्फ नागार्जुन ने राहुल सांस्कृत्यायन के बहकावे में बौद्ध धर्म अंगीकार किया और जनेऊ का परित्याग किया था। वह भी कुछ वर्षों में सनातन परम्परा में वापस आ गए और अपना विधिवत पुनः जनेऊ संस्कार भी करवाया था। संक्षेप में यदि भारत में चीन और इसके घृणित साम्यवाद और साम्राज्यवाद को रोकना है तो मिथिला को मजबूत करना होगा और उसके दर्शन को राजनीति में स्थान देना होगा।

मिथिला महज शिक्षा और बौद्धिक आंदोलनों का केंद्र नहीं रहा है, इसने देश को संक्रमण काल में नेतृत्व प्रदान किया है। 1857 के सैन्य क्रांति के समय खंडवला कुल ‘राज दरभंगा’ के महाराज महेश्वर सिंह ने बड़ी चतुराई के साथ अंग्रेजों का साथ नहीं दिया। उनके पुत्र और उत्तराधिकारी महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह ने तो ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध जाते हुए बहादुर शाह जफर के पोते सहित 1857 के सिपाही विद्रोह से जुड़े कुछ राज परिवारों के कई सदस्यों को संरक्षण दिया। भारत एक संक्रमण काल से गुजर रहा था। 1857 के सैन्य क्रांति की विफलता के कारण न केवल पूरे देश में नैराश्य का भाव था अपितु नेतृत्व का भी संकट उत्पन्न हो चला था। राजे रजवाड़े या तो समाप्त कर दिए गए अथवा उन्हें अशक्त कर दिया गया। भारतीय राजनीति में महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह का प्रादुर्भाव ऐसे ही परिस्थिति में हुआ था जो एक विशाल रियासत के महाराज और चुने हुए जनप्रतिनिधि की द्वैध भूमिका का कुशलतापूर्वक निर्वहन किया। कांग्रेस की स्थापना, इसके विस्तार और संगठन को आर्थिक रूप से सबल बनाने में इनका महत्वपूर्ण योगदान था। अपने वसीयत में उन्होंने निर्देश दे रखा था कि ‘राज दरभंगा’ द्वारा कांग्रेस को नियमित रूप से आर्थिक सहयोग दिया जाता रहेगा। ब्रिटिश सरकार को इस राष्ट्रवादी शासक की राजनैतिक गतिविधियां, उनकी स्वतंत्र राजनीतिक सोच और कांग्रेस को यूं खुला समर्थन देना पसंद नहीं था। जब महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका के नटाल में रंगभेद के विरुद्ध लड़ाई लड़ रहे थे, उस समय उनका लक्ष्मीश्वर सिंह के साथ नियमित पत्राचार हुआ करता था और म. गांधी उन्हें दक्षिण अफ्रीका की राजनैतिक परिस्थितियों से अवगत करते रहते थे। लक्ष्मीश्वर सिंह ने म. गांधी और उनके आंदोलन को सार्वजानिक रूप से अपना समर्थन दिया। उस समय लंदन से प्रकाशित ‘दी टाइम्स’ अखबार में नटाल पर केंद्रित लक्ष्मीश्वर सिंह का एक पत्रात्मक लेख भी छपा था। उसी तरह गौ रक्षा आंदोलन का बीजारोपण इन्होंने ही किया था, मगर समकालीन भारतीय इतिहास के विमर्श में लक्ष्मीश्वर सिंह को गायब कर दिया गया।

जब 1885 में कांग्रेस अपनी स्थापना का शताब्दी वर्ष मना रही थी तो उन्हें श्रद्धांजलि देना तो दूर उनका नाम तक नहीं लिया गया। टाइम्स ऑफ इंडिया ने लिखा था कि कांग्रेस उस व्यक्ति को भूल गई जिसने इसकी नींव रखी थी। यह सब बहुत सारे उदाहरणों में से कुछ एक हैं कि कैसे मिथिला को योजनाबद्ध रूप से आर्थिक और राजनीतिक डिस्कोर्स से बाहर रखा गया। नेहरु-गांधी परिवार की मिथिला के प्रति कटुता और उदासीनता तो जगजाहिर है और दुर्भाग्य यह है कि मिथिला ने आजतक जिस राष्ट्रवादी विचारधारा को अंतःकरण से समर्थन दिया है वह भी आज मिथिला के विकास के प्रति उदासीन ही दिख रहे हैं। मिथिला इस देश की सांस्कृतिक समष्टि का एक महत्वपूर्ण भाग है जिसे अलग-अलग कर दिया जाए तो भारत के गौरवपूर्ण सांस्कृतिक इतिहास का बड़ा हिस्सा समाप्त हो जाएगा। इसलिए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के विकास और विरासत के महायज्ञ में मिथिला को नहीं भुलाया जाना चाहिए।

–विजयदेव झा

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