बिहार का मिथिला क्षेत्र स्वयं में भारत के गौरवशाली इतिहास, संस्कृति और परम्परा को समेटे हुए है, जिसकी झलक मिथिला के लोकप्रिय व्रत-त्योहारों के दौरान देखने को मिलती है। जानकी नवमी, विवाह पंचमी, रामनवमी, मैथिली नव वर्ष जुड़ शीतल, जितिया और चौरचन, सप्ता डोरा, सामा चकेवा, गंगा दशहरा आदि अनेक पर्व बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाए जाते हैं।
मिथिला का प्रथम प्रमाण रामायण में मिलता है। वृहद्विष्णुपुराण के मिथिला महात्म्य में मिथिला एवं तीरभुक्ति दोनों नाम कहे गए हैं। मिथि के नाम से मिथिला तथा अनेक नदियों के तीर पर स्थित होने से तीरों में भोग (नदी तीरों से पोषित) होने से तीरभुक्ति नाम माने गए हैं। वर्तमान में मिथिला क्षेत्र मूल रूप से दो देशों में फैला हुआ है। एक हिस्सा भारत के बिहार में है और दूसरा नेपाल में है। मिथिला में मैथिली ब्राह्मण मूल निवासी माने जाते हैं।
रामायण में मां सीता को मैथिली कह कर सम्बोधित किया जाता है, मिथिला की राजकुमारी होने के कारण उन्हें मैथिली नाम से प्रसिद्धि मिली। उनका जन्म वर्तमान के सीतामढ़ी के पुनौराधाम में शाख मास के शुक्ल पक्ष में नवमी तिथि को हुआ था, जबकि पालन-पोषण राजा जनक के महल जनकपुर में हुआ था। आज भी इस दिन को मिथिला निवासी जानकी नवमी के नाम से बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। सीताजी के जन्मदिन के साथ-साथ उनके वैवाहिक वर्षगांठ दिवस को भी धूमधाम से मनाया जाता है, जिसे विवाह पंचमी कहते हैं। बिहार एवं देश के अन्य भागों में इस दिन वैवाहिक लगन होने की वजह से खूब शादियां होती हैं, लेकिन मिथिला में ना तो इस दिन विवाह होता है और ना ही विवाहिता की विदाई होती है। इसके पीछे का बहुत ही मार्मिक मत है कि मां सीता मिथिला की बेटी थी और उन्होंने सम्पूर्ण वैवाहिक जीवन में संघर्ष करती रहीं, यही वजह से आज तक मिथिलावासी अपनी बेटियों की शादी या बिदाई विवाह पंचमी के दिन नहीं करते हैं, फिर भी यह दिन त्योहार के रूप में लोकप्रिय है। महिलाएं पारम्परिक साड़ी पहनकर मंगल गीत गाती हैं, जो ज्यादातर मैथिली भाषा में होती हैं। मिथिला की वैवाहिक गीतों के साथ-साथ सोहर और गाली गीत भी यहां की लोकप्रिय हैं। माता सीता के जन्म के साथ-साथ मिथिला के पाहुण (दामाद) रामजी का अवतरण दिवस रामनवमी भी धूमधाम से उत्सव के रूप में मनाया जाता है। भारत के अन्य भागों से अलग मिथिला में रामजी को भी सियावर रामचंद्रजी कह कर पुकारा जाता है। यह मिथिला के मातृशक्ति से लिपटी समाज को दर्शाती हैं।
मिथिला क्षेत्र के ज्यादातर व्रत त्योहार भारत के बाकी जगहों जैसा ही है, लेकिन इसको मनाने का तरीका थोड़ा अलग है। हर वर्ष 14 अप्रैल को मैथिली नव वर्ष मनाया जाता है। जिसे जुड़ शीतल कहा जाता है। एक दिन पहले ही पकवान बना लिए जाते हैं और त्योहार के दिन चूल्हा को ठंडा रखते हैैं यानी चूल्हा को नहीं जलाते हैं और बसिऔरा प्रसाद के साथ सत्तु का सेवन करते हैं। यह पर्व मिट्टी के बर्तन में पानी पीने, सत्तु और कच्चा आम का सेवन करके मनाया जाता है, इसमें बड़े-छोटों को आशीर्वाद में जड़ से जुड़े रहने को कहते हैं, इसलिए आज के मॉर्डन एरा में भी मिथिलावासी अपने रीति-रिवाजों से जुड़े रहते हैं।
उसी तरह परिवार के बच्चों के दीर्घायु एवं उन्नति के लिए जितिया और चौरचन मनाया जाता है। गणेश चतुर्थी को देशभर में सब जानते हैं, लेकिन उसी दिन मिथिलावासी चौरचन के रूप में मनाते हैं। जिसमें पूरे दिन निर्जल उपवास रह कर संध्या में चंद्र देवता को अर्ध्य देकर भगवान गणेश और माता पार्वती की पूजा कर अपने बच्चों की खुशहाली मांगकर प्रसाद ग्रहण किया जाता है तो वही जिउतिया में चौबीस घंटे तक निर्जला उपवास रहकर बच्चों के दीर्घायु होने की कामना की जाती है।
मिथिला में देवियों की पूजा विशेष रूप से की जाती है। सरस्वती पूजा, काली पूजा, दुर्गा पूजा के साथ साथ कोजागिरी, मोहालया, पाटा पूजा, खूंटी पूजा मुख्य रूप से देवी अराधना को समर्पित त्योहार हैं। इसमें वसंत पंचमी को सरस्वती पूजा, कार्तिक अमावस्या की रात काली पूजा मनाई जाती है तो पाटा पूजा दुर्गा मइया के आगमन पर और खूंटी पूजा में दुर्गा मइया का अनुष्ठान होता है। मोहालय में देवी की नव दिन पूजा का आरम्भ होता है और कुल नौ दिनों तक यह पूजा चलती है। कोजागिरी में लक्ष्मी माता की पूजा की जाती है, यह मानसून ऋतु के अंत का प्रतीक और फसल के होने और समृद्धि पर उत्सव मनाने का प्रतीक है। मिथलांचल में अराध्य शक्तियों को अलग-अलग रूप में पूजा जाता है।
अनंत चतुर्दशी भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाई जाती है। यह गणेश चतुर्थी के दसवें दिन होता है। इस त्योहार में भगवान विष्णु की पूजा होती है। इसमें उपवास करके गांठ वाले धागे भगवान को चढ़ाया जाता है। भोग के रूप में पुआ, मीठे फल भी चढ़ाए जाते हैं। पूजा के बाद घर के सभी सदस्य बांह पर अनंत के धागे को बांधते हैं, जिसके बाद सात्विक जीवन को जीते हैं।
सप्ता डोरा मिथिला की महिलाओं द्वारा मनाया जाता है। यह होली के बाद पूर्णिमा के अगले दिन शुरू होता है और बैशाख के आखिरी दिन समाप्त होता है। इसमें प्रत्येक रविवार को महिलाएं उपवास रखती हैं। इसमें भी सप्तमाई की पूजा होती है। इसमें फलों से भरी एक टोकरी महिलाएं हर रविवार को तैयार करती हैं। अंतिम रविवार को सभी फलों की टोकरी को पूजने के बाद नदी में प्रवाहित करती हैं।
मिथिला में रक्षा बंधन, भाई दूज के साथ-साथ सामा चकेवा भी भाई बहनों का त्योहार है। यह छठ पूजा की रात से शुरू होता है और कार्तिक पूर्णिमा तक जारी रहता है। इस त्योहार में रंगमंच और लोकगीतों को शामिल किया जाता हैं। इस पर्व में लोक मान्यता के अनुसार महिलाएं छठ घाट पर जुटतीं हैं और मूर्तिरूपी गुड़िया लेकर कृष्ण की बेटी सामा की कहानी कहती हैं, गीत गाती हैं और कुछ रस्में करती हैं। अंतिम दिन सभी मिट्टी की मूर्तियों को नदी में प्रवाहित किया जाता है।
गंगा दशहरा जिसे गंगावतरण के नाम से भी जाना जाता है। मोक्षधाम सिमरिया घाट (मिथिला का स्वागत द्वार) में मैथिलों द्वारा मनाया जाने वाला एक हिंदू त्योहार है। जिसमें माना जाता है कि इसी दिन गंगा मईया स्वर्ग से धरती पर उतरी थीं। गंगा दशहरा के बाद कल्पवास भी सिमरिया धाम में प्रत्येक वर्ष कार्तिक माह में मनाया जाता है। इसमें मिथिलावासी पूरे माह सात्विक जीवन बीताने के साथ गंगा स्नान करते हैं।
ओघनिया छैथ जिसे छोटका पाबनी इसे अग्हन शुक्ल पक्ष षष्ठी तिथि को मनाया जाता है, यह दोपहर का अरघ के नाम से लोकप्रिय है। उसी तरह बैसाखा छैथ बैशाख माह के शुक्ल पक्ष में मनाया जाता है। इसके अलावा पाहुन षष्ठी, नाग पंचमी, बरसाईत, मधुश्रावणी, होली, विश्वकर्मा पूजा, तिल सकरात, आखर बोछो, देवोत्थान एकादशी, नरक निवारण चतुर्दशी, महाशिवरात्रि, छठ पूजा जैसे अनेक सनातन आधार से सम्बंधित त्योहार मनाए जाते हैं। यहां की महिलाओं की एकाछी साड़ी बहुत ही पवित्र मानी जाती है। वहीं पुरूषों के सर पर पाग रूपी टोपी सम्मान का प्रतीक माना जाता है। त्योहारों में मैथिली वासी पारम्परिक वस्त्रों के साथ पारम्परिक भोजन ग्रहण करते हैं और परम्परागत रूप से ऐरपन ( रंगोली) से घरों को सजाते हैं। झिझिया, धुनो, डोमकच जैसे नृत्य से उत्सव मनाते हैं।
– अनुपमा कुमारी