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मिथिला में पलायन का संकट

मिथिला में पलायन का संकट

by हिंदी विवेक
in नवम्बर २०२४, मीडिया
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मिथिला के गांव-शहर से हो रहा पलायन क्षेत्र के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। रोजगार और अवसर के अभाव में युवा पलायन को मजबूर हैं। यदि राज्य सरकार युवाओं की प्रतिभा का लाभ उठाने के लिए उन्हें उपयुक्त अवसर उपलब्ध कराए तो मिथिला सहित पूरे बिहार में बहार आ सकती है।

मिथिला क्षेत्र के साथ ही सम्पूर्ण बिहार मेेंं उद्योग की असीम सम्भावनाएं हैं। 90 का दशक प्रदेश में उद्योग के लिए अपशकुन सिद्ध हुआ। अनेक उद्योग संयत्र बंद किए गए, जिसके कई कारण हो सकते हैं, लेकिन प्रदेश से जो युवाओं का पलायन शुरू हुआ वह अब भी निरंतर जारी है। पलायन के भी अनेक कारण हो सकते हैं, परंतु मिथिला क्षेत्र से पलायन मुख्य रूप से नौकरी और रोजी – रोजगार के लिए ही होता रहा है।

कई जगहों पर पलायन को विकास से जोड़कर व्याख्या की गई है और पलायन को विकास का द्योतक भी माना गया है। ज्ञान, बुद्धि, विवेक, सभ्यता, संस्कृति और संस्कार के बदलाव मेेंं पलायन का भी महत्वपूर्ण योगदान है। एक क्षेत्र की संस्कृति का अन्य क्षेत्र  में पहचाना जाना, गीत-संगीत, भाषा-साहित्य और वस्तुओं का आदान प्रदान भी पलायन से ही सुनिश्चित हुआ। पलायन कहीं त्रासदी सिद्ध हुआ तो कहीं विकास का परिचायक माना गया। सबसे अधिक पलायन की त्रासदी यदि किसी क्षेत्र ने सही है, तो वह क्षेत्र बिहार ही रहा है। प्रदेश की वर्तमान स्थिति का वर्णन करना अत्यंत कठिन कार्य सिद्ध हो रहा है। गांव-घर वीरान और दुरा-दलान सुनसान सा प्रतीत हो रहा है। हर क्षेत्र की भांति बिहार मेेंं भी पलायन की परम्परा प्राचीन काल से ही है। बहुत से लोग मजबूरी मेेंं तो बहुत से लोग दूसरों की देखा-देखी तो कुछ ऐसे भी लोग थे, जिन्होंने नए अवसर और रोजी रोजगार के लिए अन्य महानगर और प्रदेशों की ओर पलायन किया।

प्राचीन काल से ही मिथिला के विद्वान, पंडित और शिक्षाविद को प्रदेश से बाहर अत्यधिक सम्मान मिलता रहा है। राजा महाराजा के समय मैथिल विद्वान, पंडित को मिथिला के बाहर वैदिक कार्य, पूजा, यज्ञ और शिक्षा प्रसार के लिए बुलाया जाता रहा है। बदले में उन्हें उच्च पद, प्रतिष्ठा, धन, जमीन-सम्पत्ति उपहार आदि पारिश्रमिक के रूप मेें दिया जाता था। शासन मेें पद-प्रतिष्ठा पाकर मैथिल, जहां गए, वो वहीं के होकर रह गए। अधिकांश मैथिल विद्वान उस समय बंगाल-असम जैसे प्रदेशों मेेंं पलायन कर गए। समयांतर मेें मध्य प्रदेश और गुजरात मेें भी बहुत से मैथिल विद्वान, मिथिला त्याग कर बस गए। अभी भी अन्य राज्यों में ऐसे लोग अनायास ही मिल जाते हैं जो कहते हैं कि हमारे पूर्वज मैथिल थे और यहां हमारी चौथी अथवा पांचवी पीढ़ी हैं। मिथिला से बाहर रहने का दुःख तो अवश्य है, लेकिन जो मान-सम्मान, पद और उच्चस्तरीय जीवन, मिथिला से बाहर उन्हें मिला वह मिथिला क्षेत्र में असम्भव ही था।

मिथिला क्षेत्र से बहुत से लोग अंग्रेजी शासन के समय मजदूर, सिपाही और अन्य कार्यों के लिए परदेश गए और कभी नहीं लौटे। अभिप्राय यह है कि उस समय अधिकांश लोग पलायन के लिए विवश थे, जो इतिहास मेें वर्णित है।

एक सर्वे के अनुसार प्रदेश मेें लगभग 30 से 40 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे अपना जीवन निर्वाह कर रहे हैं। शिक्षा के क्षेत्र में भी हम अन्य राज्यों की तुलना मेेंं बहुत पीछे हैं। सर्वे के अनुसार सबसे अधिक पलायन करने वाले मजदूर मिथिला क्षेत्र से ही है। तकनीकी दक्षता के अभाव मेेंें मैथिल युवा वर्ग पंजाब के खेतों, होटल, ढाबा, मिल-कारखानों में मजदूरी करने के लिए बाध्य होते रहे हैं। इसमेेंं लगभग 50 प्रतिशत पलायन मात्र पंजाब, दिल्ली और महाराष्ट्र जैसे राज्यों की ओर होता रहा है।

भारत युवाओं का देश है, लेकिन मिथिला की स्थिति बिल्कुल भिन्न है। मिथिला क्षेत्र से पलायन करनेवालों मेेंं लगभग 80 प्रतिशत लोगों की आयु 19 से 39 वर्ष की होती है, जो अच्छी नौकरी और रोजगार की खोज मेेंं मिथिला से पलायन कर अन्यत्र जाते हैं। समय के साथ नई पीढ़ी खेतों में कार्य करने से कतराने लगी। फलतः जो युवा दूसरे प्रदेश मेें कृषि कार्य व मजदूरी करने के लिए पलायन करते थे, धीरे-धीरे इसमें गिरावट दर्ज की गई। समय के साथ पलायन की दिशा भी परिवर्तित हुई। विगत दो दशकों से पंजाब के गांव में न जाकर, पंजाब के औद्योगिक शहर जालंधर और लुधियाना जैसे शहरों की ओर लोगों का मुड़ना शुरू हुआ। वर्तमान युवा पीढ़ी कृषि क्षेत्र की बजाय औद्योगिक क्षेत्रों को प्रधानता देने लगी है और औद्योगिक इकाई में काम करने में उन्हें मजा आने लगा। परिणामस्वरूप पलायन कर लोग अब दिल्ली, गुजरात और महाराष्ट्र सहित दक्षिणी प्रदेशों की ओर जाने लगे हैं। अशिक्षा और अकुशलता के चलते, मिल व कारखानों में मजदूरी व रिक्शा ऑटो ड्राइवर जैसे कार्यों के लिए सहजता से मैथिल मजदूर उपलब्ध हो जाते हैं।

अधिकांश मैथिल परम्परागत रूप से खेती पर निर्भर थे। पहले उपज भी अच्छी होती रही, लेकिन अब किसी कारणवश खेतों की उर्वराशक्ति भी धीरे-धीरे सही, लेकिन कमजोर होती जा रही है। प्राकृतिक आपदा, बोनस के रूप में मैथिल किसान को मिलता ही रहा है। कोसी व कमला बलान और इसकी सहायक नदियां नेपाल द्वारा छोड़े जाने वाले पानी के प्रभाव के कारण अपना रौद्र रूप का दर्शन लगभग हर वर्ष कराती ही हैैं। फलतः मैथिल किसानों की सारी मेहनत और लागत बाढ़ की चपेट मेें आकर बर्बाद हो जाती है। बाढ़ और सुखाड़ जैसी प्राकृतिक आपदा के चलते मिथिला की पावन भूमि अत्यंत उपजाऊ होते हुए भी प्रकृति पर निर्भरता के चलते कृषि उत्पादकता मेें अन्य राज्यों की तुलना मेेंं पीछे है।

प्राकृतिक आपदा व सरकारी उदासीनता के चलते बहुत से लोग अब खेती छोड़ मिथिला से पलायन के लिए विवश हैं। मूलभूत सुविधाओं का अभाव मिथिला में सदैव रहा है। सड़क, बिजली, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र मेें कार्य मात्र कागज पर ही हुआ, गुणवत्तापूर्ण शिक्षण संस्थानों का अभाव, स्वास्थ्य सेवा का अभाव, रोजगार की नगण्यता, साथ ही सरकार का भेदभावपूर्ण रवैया, यह सब पलायन का प्रमुख कारण सिद्ध हुआ है। प्रदेश सरकार द्वारा जो कुछ विकास कार्य सम्पन्न हुआ, उसमेें मिथिला क्षेत्र को मात्र झुनझुना ही दिया जाता रहा है। विद्यालय में शिक्षकों का अभाव, अस्पताल में चिकित्सकों का अभाव, योजना अस्तित्व में है, किंतु योजना पर अमल करनेवाले अधिकारियों का अभाव, तात्पर्य यह है कि हर जगह लूटपाट सी स्थिति बनी हुई है। सरकारी योजनाओं को जरूरतमंद लोगों तक ले जानेवाले लोगों के अभाव ने भी पलायन की गति को बल देने का कार्य किया।

सरकारी उपेक्षा का शिकार मिथिला स्वतंत्रता के समय बिहार के कुल राजस्व के लगभग 49 प्रतिशत राशि का योगदान करता रहा, जो सन 2000 आते-आते मिथला का योगदान मात्र 12 प्रतिशत रह गया। कुछ दशक पूर्व तक मिथिला क्षेत्र मेें कृषि आधारित उद्योग की भरमार थी। दरभंगा, मधुबनी, सीतामढी, समस्तीपुर और पूर्णिया मेें चीनी मिल तो कटिहार, पूर्णिया के जूट मिल मेें अंतरराष्ट्रीय गुणवत्ता का उत्पाद, उस क्षेत्र के किसानों को जूट की खेती करने के लिए प्रोत्साहित करता रहा है। हैंडलूम और रेशम उद्योग के कारण भागलपुर को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि मिली है, लेकिन सरकारी उदासीनता के चलते मिथिला क्षेत्र मेें अनेक चीनी मिलें बंद हुई, परिणामस्वरूप इन क्षेत्रों के किसान गन्ने की खेती से भी मुंह फेरने लगे। सरल भाषा में कहा जाए तो सम्पूर्ण मिथिला क्षेत्र, औद्योगिक मानचित्र से लगभग गायब ही हो गया।

मिथिला क्षेत्र मेें पहले से नौकरी-रोजगार को प्रधानता दी जाती रही है। मिथिला क्षेत्र तो पूर्व से ही अघोषित मजदूर झोन माना जाता है। पलायन की त्रासदी से त्रस्त इस क्षेत्र के युवावर्ग अच्छी नौकरी और रोजगार के लिए अन्य राज्यों पर निर्भर हैं। बदलाव तो हो रहा है, लेकिन इसकी गति अत्यंत सुस्त है। अतः मैथिल छात्र उच्च गुणवत्तापूर्ण शिक्षण संस्थान के अभाव मेें शिक्षा ग्रहण करने हेतु कोटा, पुणे, बेंगलोर और दिल्ली आदि जैसे शहरों पर निर्भर हैं। शिक्षण उपरांत बात होती है रोजी रोजगार की तो, इसके लिए भी युवा वर्ग अन्य राज्यों पर आश्रित है।

सम्पूर्ण प्रदेश में सरकारी नौकरी का महत्व युवा वर्ग में व्याप्त है। हर छात्र इसे पाने के लिए दिन-रात परिश्रम करते हैं और सबका एक ही लक्ष्य है सरकारी नौकरी। वर्तमान परिप्रेक्ष्य मेेंं असुरक्षितता का भय, हर क्षेत्र मेेंं व्याप्त है, अतः युवा वर्ग, सरकारी नौकरी के लिए कठिन परिश्रम करते देखे जा सकते हैं। बहुत से छात्र अपना लक्ष्य प्राप्त करते हुए आगे बढ़ जाते हैं और जो युवा असफल होते हैं, वह गैर सरकारी और निजी संस्थान में अपना भविष्य देखते हुए दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों की ओर जाते हैं। पढ़े-लिखे शिक्षित लोग यदि गांव में रहेंगे तो करेंगे क्या? अनेक मैथिल युवा नौकरी रोजगार नहीं होने के कारण गलत मार्ग पर चलने के लिए विवश हुए। परिणाम स्वरूप माता सीता की धरती पर हत्या, लूट, डकैती, चोरी, बलात्कार, दंगा-फसाद शुरू हुआ। दुनियाभर मेेंं सबसे शांतिप्रिय लोग मैथिल और शांत क्षेत्र मिथिला धीरे-धीरे अशांत होता गया। विगत कुछ वर्षों मेेंं प्रदेश में विकास कार्य को गति दी गई, सड़क निर्माण कार्य मेें तेजी देखने को मिलि और मिथिला क्षेत्र मेें भी विकास कार्य प्रारम्भ हुआ। सड़क, बिजली, शिक्षा के क्षेत्र मेें कुछ अच्छे कार्य भी हुए, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार कई बार प्रदेश की विकास दर 10 प्रतिशत से ऊपर भी रही है, लेकिन इसके जो परिणाम अपेक्षित थे, वह आज तक देखने को नहीं मिला। जो विकास कार्य शुरू हुआ, उस मेें निरंतरता की आवश्यकता है। मिथिला के बहुत से क्षेत्र ऐसे हैं, जहां अभी भी मूलभूत सुविधाओं का अभाव है। स्वतंत्रता के 77 वर्ष के बाद भी मिथिला विकास से वंचित है। विगत तीन-चार वर्षों मेेंं पलायन रोकने लिए प्रदेश सरकार द्वारा भारी संख्या मेें भर्ती अभियान भी चलाया गया है। सरकार दावा कर रही है कि इस कार्यकाल मेें 10 लाख बेरोजगार युवाओं को नौकरी दी जाएगी, लेकिन सरकार भी सबको सरकारी नौकरी प्रदान करने मेेंं असहाय है। हर युवा को सरकारी नौकरी देना असम्भव है, अतः सरकार चाहे तो युवाओं को स्वरोजगार के लिए प्रेरित कर सकती है।

सरकार यदि प्रयास करे तो रोजगार के साधन उपलब्ध कराए जा सकते हैं। ऐसा वातावरण बनाया जाए जो बड़े निवेशकों को आकर्षित कर सके। इस तरह के प्रयास निश्चित रूप से पलायन पर लगाम लगाने में उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। मिथिला क्षेत्र में कृषि आधारित उद्योग की असीम सम्भावनाएं हैं जो अनेक शोध से स्पष्ट हैं। पशुपालन, मत्स्य पालन, मखाना उद्योग, कला एवं चित्रकारी, हस्तशिल्प उद्योग भी अच्छे विकल्प हैं।

बढ़ती जनसंख्या और घटती नौकरी को देखते हुए सरकार द्वारा युवावर्ग को स्वरोजगार के लिए प्रेरित किया जा रहा है। कई योजनाएं उपलब्ध हैं, जिससे युवावर्ग लाभान्वित हो रहे हैं और हो सकते हैं। मुख्य मंत्री युवा उद्यमी योजना और मुख्य मंत्री महिला उद्यमी योजना, साथ ही स्टार्टअप योजना के अंतर्गत भी स्वरोजगार के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। मैथिल युवा वर्ग स्वरोजगार के लिए प्रयास करें, इस क्षेत्र मेेंं अपना भविष्य देखें, इसलिए सरकार के साथ ही सक्षम लोग यदि आगे आकर युवा वर्ग को प्रोत्साहित करें तो स्थिति में सुधार हो सकता है। प्रदेश मेें ऐसी युवा नीति बनाई जाए, जिसमेें युवा वर्ग की विशेष और सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित हो, और युवाओं को शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वरोजगार, कौशल एवं सामाजिक मूल्यों से जोड़ा जा सके। युवा नीति के प्रारूप के लिए प्रदेश के हर क्षेत्र मेें पहुंच कर स्थानीय युवाओं का सुझाव एवं सहयोग के लिए कार्यशाला आयोजित किया जा सकता है। इस तरह युवा वर्ग को केंद्रित कर यदि योजना बनाई जाती हैं तो निश्चित रूप से युवा वर्गों का सर्वांगीण विकास सम्भव है। युवा वर्ग को भी चाहिए कि नौकरी के साथ-साथ स्वरोजगार मेेंं भी अपना भविष्य देखें।

यदि युवा वर्ग चाहे तो अपनी शक्ति का उपयोग करते हुए देश एवं प्रदेश निर्माण में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर सकता है। अभी देश मेेंं और प्रदेश में रोजगार मेले का चलन जोरों पर है। प्रदेश सरकार हो अथवा केंद्र सरकार, धड़ाधड़ नियुक्ति पत्र बांट रही है। स्वयंसेवी संगठनों द्वारा भी रोजगार मेले का आयोजन धड़ल्ले से हो रहा है। अच्छा है, लेकिन रोजगार मेले के साथ-साथ स्वरोजगार मेले का भी आयोजन हो तो इसके सकारात्मक परिणाम आ सकते हैं। इस तरह के प्रयास पलायन पर अंकुश लगाने मेेंं भी उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।

-धर्मेन्द्र झा

 

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