अपने भाव व्यक्त करने का माध्यम भाषा होती है, लेकिन अपनी मातृभाषा में जो अपनापन महसूस होता है वह अन्य भाषा में नहीं। मैथिली भाषा की मृदुलता, मधुरता, आत्मीयता ही इसकी वास्तविक पहचान है। मैथिली भाषा केवल मिथिला की ही नहीं अपितु हमारे देश की भी विरासत है।
मिथिला प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण प्रांत है। इसकी लावण्यमई मजुंल-मूर्ति, मधुरिमा से भरी हुई सरस बेला और उन्मादिनी भावनाएं किसके हृदय को नहीं गुदगुदा देती? यहां के बसंतकालीन सुहावने समय, बांगो के भुरमुट में छिपी गिलहरियों के प्रेमालाप, सुसज्जित सुंदर पुष्प, सुचिनित पशु-पक्षी और कोमल पत्तियों के स्पंदन अपने आस-पास एक उत्सुक्तापूर्ण रहस्यमय आकर्षण पैदा कर देते हैं। कहीं ऊंचे-ऊंचे बादलों की आंखमिचौली, कहीं झर-झर करती हुई बलखाती नदियों की अठखेलियां, कहीं धान से हरे-भरे लहलहाते खेतों की क्यारियां, मतलब कि यहां की जमीन का चप्पा-चप्पा और आसमान का गोशा-गोशा काव्य की सुरभि से सुरभित हो रहा है और संगीत की निर्मल निर्मारिणी सदा अभिराम गति में टलमल करती हुई दौड़ रही हैैं।
यहां की भाषा मैथिली है। जिसकी लिपि देवनागरी लिपि से भिन्न है और इससे बंगला लिपि का भी भास दृष्टिगोचर होता है। बिहार की प्रादेशिक भाषाएं हैं- मैथिली, मगही और भोजपुरी। मैथिली चम्पारण, दरंभगा, पूर्वी मुंगेर, भागलपुर, पूर्णिया, मुजफ्फरपुर, देवघर, बांका, सहरसा, सुपौल, मधेपुरा, कटिहार, दुमका और बंगाल, असम, यूपी, उड़ीसा के कुछ जिलों आदि में बोली जाती है, लेकिन दरभंगा, मधुबनी, सहरसा, सुपौल जिले के गांवों में ही यह अपने शुद्ध रूप में प्रचलित हैैं। मैथिली और मगही एक दूसरे के अधिक निकट हैं, इन दोनों प्रादेशिक भाषाओं के बोलनेवालों के रीति-रिवाज और रहन-सहन में भी कोई विशेष अंतर नहीं है। उच्चारण की दृष्टि से भी मैथिली और मगही भोजपुरी की अपेक्षा एक दूसरे से बहुत अधिक मिलती-जुलती हैं। मैथिली में स्वर वर्ण ‘अ’ का उच्चारण स्पष्ट और मधुर होता है। भोजपुरी में स्वर वर्ण का उच्चारण (मध्यभारत में प्रचलित भाषाओं की तरह) थोड़ा ठेठीपन में है। इन दोनों भाषाओं में मैथिली और भोजपुरी का यह अंतर इतना स्पष्ट है कि इनको पहचानने में देर नहीं होती है। संज्ञाओं के शाब्दिक रूपकरण की दृष्टि से भोजपुरी में सम्बंधकारक का सरल रूप नहीं होता है। मैथिली और मगही में मध्यम पुरुष का सर्वनाम जो प्राय: बोलचाल में प्रयोग होता है, ‘अपने’ है और भोजपुरी में ‘रऊरे’। मैथिली में सबस्टेंटिव क्रिया ‘छई’ और ‘अछी’ है, परंतु आम बोलचाल में हैं और हय, हबे प्रयोग किया जाता है, परंतु मगही में ‘है’ और भोजपुरी में ‘बाटे’, ‘बारी’ और ‘हवे’। अन्य भारतीय भाषाओं की तरह क्रिया विशेषण मेें सबस्टेंटिव क्रिया जोड़कर वर्तमान काल बनाने में ये तीनों प्रादेशिक भाषाएं एक-सी हैं। मगही का वर्तमान काल ‘देखा है’ भी एक मिक्रत रखता है। भोजपुरी मे ‘देखा है’ के बदले ‘देखे ला’ प्रयोग होता है। मैथिली और मगही में क्रिया के भिन्न-भित्र रूपांतर-धातुरूप सरल नहीं हैं। उनके पढ़ने और समझने में पेचीदगी पैदा होती है, लेकिन हिंदी की तरह भोजपुरी के धातुरूप साफ-सुथरे हैं। इनके पढ़ने और समझने में दिमाग में पसीना नहीं आता और न इनके शब्द मन में अलग-अलग तम्बीर पैदा करते हैं। इन तीनों प्रादेशिक भाषाओं में और भी कितने अंतर हैं, लेकिन ऊपर जो भेद दिखलाए गए हैं वे ज्यादा उपयोगी और उल्लेखनीय हैं। मगही और मैथिली अधिक समय तक एक ही भाषा मानी जाती थी।
मार्च 2018 में मैथिली को झारखंड की दूसरी आधिकारिक भाषा का दर्जा मिला। 2003 में मैथिली को भारतीय संविधान की 8वीं अनुसूची में मान्यता प्राप्त भारतीय भाषा के रूप में शामिल किया गया था। मैथिली साहित्य हिंदी से भी पुराना है। विद्यापति मैथिली साहित्य का महान नाम है। 1324 की शुरुआत में ज्योतिरीश्वर ठाकुर ने मैथिली में एक गद्य रचना लिखी।
भाषा के इतिहास की बात करें तो मैथिली का सबसे पुराना रिकॉर्ड 1771 में पाया जाता है जब बेलगट्टी के अल्फाबेटम ब्रम्हनिकम के लिए अमादुजी की प्रस्तावना प्रकाशित हुई थी। फिर 1801 में कोलब्रुक ने संस्कृत और प्राकृत भाषाओं पर अपने प्रसिद्ध निबंध में मैथिली को एक अलग बोली के रूप में वर्णित किया। मिथिला संगीत का नियमित इतिहास नान्यदेव 1097-1133 से शुरू होता है, जो संगीत के एक महान संरक्षक और इस कला पर एक ग्रंथ के लेखक थे। उन्होंने व्यवस्थित रूप से लोकप्रिय रागों का विकास किया। उनमें से कुछ राग हैं: नचारी, फाग, चैता, पूरबी, लगनी।
मैथिल गायन परम्परा बुवाई, जुताई, फटकने आदि के दौरान गाए जाने के साथ-साथ वट सावित्री व्रत, नागपंचमी, मधुश्रावणी, कोजेगरा, सामा-चकेवा, भरदुतिया जैसे त्यौहारों के उत्सव के दौरान भी गाई जाती हैं। इस श्रेणी में आम गीत बारहमासा, चाहोमासा और चेतावर शामिल हैं।
मैथिल ग्राम साहित्य सागर के विस्तीर्ण अंतस्थल में न मालूम कितने अनमोल सुंदर हीरे यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं, जो एकल के सूत्र में पिरोए जाने पर विश्व साहित्य के भंडार को पूर्ण बना सकते हैं। मैथिल ग्रामीण कवियों ने साहित्य के विभित्र पहलुओं जैसे-नाटिकाएं, विनोद-पद, कहानियां, पहेलियां, कहावतें आदि सभी को समान-रूप से स्पर्श किया है। वे अपने परिमार्जित और सयत गीतों के रचयिता ही नहीं, बल्कि अनेक नूतन छंदों और तालों के उत्पादक भी हैैं। कहीं-कहीं एक ही छंद बहुरुपिए-सा रूप बदल कर अलग-अलग रूपों में प्रकट हुआ है। उनमें कुछ ऐसे हैं जो तेज रेती के समान कठोरतम इस्पात को भी काट सकते हैं। कुछ ऐसे हैं जो पतझड़ से जीर्ण-शीर्ण आत्मा का वांसतिक निर्माण करते हैं और कुछ ऐसे हैं जो फूल की कोमल कली की तरह वनदेवी की गोद में मचल रहे हैं।
लोक-साहित्य के आकाश में गीतों के उद्दाम अहर्निश उड़ते फिरते हैं। जनवरी से दिसम्बर तक बारहों महीने गीतों की बहार रहती है। भारत तथा विश्व के वर्तमान समय की गीतों की जननी है यह मां मैथिली!
– रामइकबाल सिंह ‘राकेश’