मिथिला के प्रसिद्ध कवि एवं साहित्यकार विद्यापति की कालजयी कविताएं और साहित्यिक रचनाएं आज भी प्रासंगिक एवं प्रेरणास्त्रोत हैं। शैव भक्त होते हुए भी उनका मन वैष्णव भक्ति में सदैव रमा रहता था। राधा-कृष्ण पर लिखे भजन, उनकी भक्ति की पराकाष्ठा को दर्शाती है।
कबीर दास का एक दोहा याद आ रहा है, जिसमें वे कहते हैं –
कागा काको धन हरे, कोयल काको देय।
मीठे वचन सुनाइके मन सबका हरि लेय॥
अर्थात न तो कौवा किसी का कुछ लेता है और न हीं कोयल किसी को कुछ देती है, लेकिन उसकी मीठी बोली लोगों के हृदय को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। लोक लुभावन लगती है। इसी मिठास को ध्यान में रखते हुए मीठे स्वर के धनी लोगों को स्वर कोकिला की उपाधि दी जाती है। विद्यापति को उनकी कविता की मिठास, रसमयता आदि को ध्यान में रखकर ‘मैथिल कोकिल’ की उपाधि दी गई है। विद्यापति की कविता का मूल्यांकन करने की बजाय यदि उन्हें केवल ‘मैथिल कोकिल’ ही कह दिया जाए तो उनके काव्य-संसार की अनेकानेक विशेषताएं हमारे मानस पटल पर अंकित हो जाती हैं।
अयोध्या प्रसाद सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने विद्यापति के काव्य की प्रशंसा करते हुए लिखा है – ‘आपकी कोकिल-काकली-कलित मधुमयता, कोमल-कांत पदावली, भावुक हृदय विमोहिनी भावुकता और नव-नव भावोन्मेषिणी प्रतिभा देखकर चित्र विमुग्ध हो जाता है। आपके इन्हीं गुणों की आकर्षिणी शक्ति का यह प्रभाव है कि केवल मैथिली भाषा को ही आप पर गर्व नहीं है, बंग भाषा और हिंदी भाषा-भाषी भी आपको अपनाने में अपना गौरव समझते हैं और आज भी हृदय से आपका अभिनंदन करते हैं।’
विद्यापति का जन्म लगभग 14वीं सदी का माना जाता है। कुछ लोग 1400 ई. के आसपास इनका जन्म मानते हैं क्योंकि जिस राजा नरसिंह देव से इनका सम्बंध जोड़ा जाता है, उस नरसिंह देव का राज्यारोहण 1420 ई. माना जाता है।
विद्यापति आरम्भ में राजा कीर्ति सिंह के दरबार में शामिल थे, यही कारण है कि इनका पहला ग्रंथ ‘कीर्ति लता’ शीर्षक से हमारे सामने आया है। ‘कीर्ति लता’ विद्यापति की किशोरावस्था या युवावस्था की रचना है, जिसकी भाषा संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश की मिली-जुली भाषा है। कवि ने अपनी इस भाषा को अवहट्ट भाषा का नाम दिया है। कीर्ति लता के आरम्भ में ही उन्होंने स्पष्ट करते हुए लिखा है –
देसिल बयना सब जन मिट्ठा।
ते तैसन जम्पओ अवहट्टा॥
अर्थात देसी भाषा हर किसी को मीठी लगती है, यह समझते हुए मैंने अपनी इस कविता को अवहट्ट भाषा से समृद्ध किया है। विद्यापति अपनी भाषा और अपनी कविता के प्रति बहुत ही आत्मीयता रखते थे। अपनी काव्य-कुशलता पर उन्हें विश्वास था। उन्हें इस बात का विश्वास था कि उनके समय में उनके समानांतर और कोई कविता लिखने वाला नहीं है, इसीलिए उन्होंने बहुत स्पष्ट रूप से कहा –
बालचंद बिज्जावइ भाषा।
दुहु ने लागइ दुज्जन हासा॥
ओ परमेश्वर हर सिर सोहय।
इ निच्चय नाअर मन मोहय॥
अर्थात विद्यापति की यह भाषा बाल चंद्रमा की तरह है। भले ही दुष्ट प्रकृति के लोग बाल चंद्रमा को देखकर हंसे, लेकिन उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि वह बाल चंद्रमा भगवान शिव की जटाओं की शोभा बढ़ाता है। यही स्थिति विद्यापति की कविता की भाषा की भी है। विद्यापति ने आरम्भ में संस्कृत भाषा में रचनाएं शुरू कीं। संस्कृत में रचना करना उस समय काव्य की कसौटी मानी जाती थी, इसलिए उन्होंने इस कसौटी पर अपने आप को सिद्ध करने का प्रयास किया। उनकी पहली पुस्तक ‘कीर्ति लता’ नाम से है, जो राजा देवी सिंह के आदेश से लिखी गई थी और इसमें नैतिक मूल्यों से सम्बंधित कहानियां हैं। इसे ही बृहद रूप में तीसरी पुस्तक ‘पुरुष परीक्षा’ शीर्षक से लिखा गया। इसमें विद्यापति की प्रौढ़ रचनात्मकता का परिचय दिखाई देता है। उनकी चौथी पुस्तक ‘कीर्ति पताका’ शीर्षक से है, जो मैथिली भाषा में लिखी गई है। मैथिली भाषा को अपनी कविता का आधार बनाने का इनका मुख्य उद्देश्य था कि वह अपनी भाषा को विशेष महत्व देना चाहते थे। इसके बाद उनकी कई रचनाएं हैं। विद्यापति पदावली शीर्षक से उनकी अपभ्रंश मिश्रित हिंदी कविताओं का संकलन है, जिसमें इन्होंने भक्ति परक कुछ पदों की रचना की है, साथ ही श्रृंगार का अप्रतिम निदर्शन किया है। विद्यापति ने लगभग एक दर्जन संस्कृत की रचनाएं कीं तथापि प्रसिद्धि उनकी पदावली से ही रेखांकित होती हैं। विद्यापति पदावली के छंद चांद है जो संगीत के सूर्य से समृद्ध होते गए हैं। विद्यापति ने स्वयं गीत गोविंद के रचयिता जयदेव को अपना आदर्श माना है। इसीलिए काव्य रूपों में उन्होंने गीति को अपनाया तो जयदेव की प्रेरणा से श्रृंगार को उन्होंने विशेष रूप से कविता का आधार बनाया। विद्यापति पदावली की भाषा को लेकर अनेक मत मतांतर सामने आए हैं। उनकी पदावली बांग्ला भाषा में भी गाई जाती है, इसलिए बंगाल के लोग उन्हें बंग भाषा का कवि मानते हैं और यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि विद्यापति मूल रूप से बंगाली भाषा के कवि थे। विद्वानों द्वारा अब यह सिद्ध हो चुका है कि विद्यापति मूल रूप से मैथिल थे, इसलिए उनकी भाषा मैथिली भाषा के नजदीक है या यूं कहे कि वह मैथिल भाषा के ही कवि हैं।
विद्यापति की पदावली का सम्पादन करने वाले रामवृक्ष बेनीपुरी ने विद्यापति के बारे में स्पष्ट करते हुए लिखा है – विद्यापति एक अजीब कवि हो गए हैं। राजा की गगनचुंबी अट्टालिका से लेकर गरीबों की टूटी हुई फूस की झोपड़ी तक में उनके पदों का आधार है। भूतनाथ के मंदिर और कोहबर घर में उनके पदों का समान रूप से सम्मान है। कोई मिथिला में जाकर तमाशा देखे। एक शिव पुजारी डमरू हाथ में लिए त्रिभुवन त्रिपुंड चढ़ाए जिस प्रकार ‘कखन हरब दुख मोर हे भोलानाथ’ गीत तन्मय होकर गाता हुआ अपने आप को भूल जाता है, उसी प्रकार कलकंठी कामिनियां नववधू को कोहबर में ले जाती हुई -‘सुंदरि चललिहूं पहु घर ना, जाइतहु लागि परम ढरना’ गाकर नव वर-वधू के हृदयों को एक अव्यक्त आनंद स्रोत में डूबा देती हैं। जिस प्रकार नवयुवक ‘ससन-परस खसु अंबर रे देखन धनि देह’ पड़ता हुआ एक मधुर कल्पना से रोमांचित हो जाता है, उसी प्रकार एक वृद्ध ‘तातल सैकत बारिबुंद सम सुत मित रमनि समाज, ताहेर बिसारि मन ताहि समरपिनु अब मझु हब कौन काम, माधव, हम परिनाम निरासा’ गाता हुआ अपने नैनों से शत-शत अश्रुबूंद गिराने लगता है।
विद्यापति सम्भवतः इस तरह के भक्ति मिश्रित श्रृंगार के अकेले गुणी कवि हैं, जिन्होंने राधा और श्रीकृष्ण के प्रेम-सौंदर्य का अद्भुत वर्णन किया है। शैव भक्त विद्यापति का मन राधा-श्रीकृष्ण में इतना रमा है कि कविता कामिनी स्वयं प्रस्फुटित होती प्रतीत होती हैं। संयोग-वियोग के सहज वर्णन में उनका कोई सानी नहीं है। मिथिला के लोक, लोकभाषा, लोकोक्तियां और उनकी निश्छल अभिव्यक्ति के अप्रतिम कवि हैं विद्यापति। कविता में अछूती भाव संवेदना के कुशल चित्रकार विद्यापति के गीत मिथिला के जन मानस के गले का कंठहार बनकर आज भी जीवंत हैं। सचमुच द्वितीया का चांद और विद्यापति के गीत का कोई सानी नहीं है।
– शीतला प्रसाद दुबे
अद्भुत जानकारी
धन्यवाद गुरु जी
हमारी प्रार्थना है आप हमें सदैव ही ऐसे जानकारी प्रदान कीजीए।🙏🏻🙏🏻🙏🏻