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संघ शाखा याने “स्वयंसेवक” निर्माण

by हिंदी विवेक
in युवा, शिक्षा, संघ
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हिंदू समाज के संगठन का कार्य हमारे धीरज की कसौटी देखने वाला कार्य है..” कार्यं वा साधयेत देहं वा पातयेत” ऐसी मनोभूमिका रखकर सतत काम करना पड़ेगा। यही बीड़ा आने वाली पीढ़ी को देना पड़ेगा। डॉ. हेडगेवार के बाद चार सरसंघचालक हुए। संघ का कार्य निरंतर चल रहा है। हमारे मन में स्वयंसेवक निर्माण करने की जो शाखा है, ऐसी कार्य पद्धति डॉक्टर हेडगेवार जी ने विकसित की।

‘अपने देश को परम वैभव प्राप्त कराना’ यही संघ का ध्येय है। रोज कही जाने वाली संघ प्रार्थना में उसका उच्चारण किया जाता है- ‘परम वैभवम नेतुमेतत स्वराष्ट्रम’।

परम वैभव प्राप्त करने के लिए संगठित समाज आवश्यक है। वर्तमान में बहुसंख्यक हिंदू समाज ऊंच-नीच की भावना से भरा हुआ, एक दूसरे से दूर हुआ, जाति भेद से परिपूर्ण, अस्पृश्यता सरीखी हीन भावना से विभाजित हुआ दिखता है। महात्मा ज्योतिबा फुले, डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर, स्वातंत्र्यवीर सावरकर इत्यादि सभी समाज सुधारकों ने हिंदू समाज को निर्दोष करने में अपने प्रयत्नों को प्रधानता दी है। ‘समाज’ के रूप में जो गुण होने चाहिए, वे हिंदू समाज के आचरण में कम दिखाई देते हैं।

‘मैं और मेरा’ इन संकुचित विचारों से हिंदू समाज के लोग ग्रस्त हैं।
देश स्वतंत्र, समृद्ध तथा सुखी करने के लिए हिंदू समाज को निर्दोष व संगठित करना अति आवश्यक है। परम वैभव प्राप्त करने के लिए यह पहली शर्त है। यह पहचान कर संघ ने अपना काम हिंदू समाज का संगठन करने का निश्चय किया।

संघ का ध्येय “परम वैभव और उसके लिए काम हिंदू संगठन”। हिंदू संगठन इन शब्दों में समाज सुधार की सभी संकल्पनाएं शामिल हैं।

हिंदू समाज का संगठन कोई सरल काम नहीं है, वह धैर्य की परीक्षा लेने वाला है। जिंदा मेंढकों का वजन करना जितना कठिन है, उससे अधिक कठिन हिंदू समाज का संगठन करना है। हिंदू समाज अपने भेदाभेद के कारण इतना खोखला हो गया है कि हमारा जीवन समाप्त हो जाएगा, परंतु संगठन नहीं होगा। निराशा एवं हताशा ही हमारे हाथ आएगी।

ऐसा असंभव होते हुए भी वह करना आवश्यक है। सतत करते रहना, निराश एवं हताश नहीं होना, बीच में ही काम नहीं छोड़ना, ऐसे संगठन कुशल कार्यकर्ता निर्माण करते रहना होगा।

संघ की शाखा इसीलिए चलाई जाती है कि वहां से संगठन कुशल कार्यकर्ता निर्माण हो। संघ ने उनके लिए “स्वयंसेवक” यह नाम स्वीकार किया है। “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ “का अर्थ संक्षेप में इस प्रकार समझा जा सकता है।
‘राष्ट्रीय याने हिंदू’, संघ याने समाज। हिंदू समाज को संगठित करने का बीड़ा जिन्होंने उठाया वे ‘स्वयंसेवक’।

संपूर्ण हिंदू समाज का संगठन यह संकल्पना किसी को समझाना, कही जाती है उतनी सरल नहीं है। किसी जाति के, एक भाषा बोलने वाले, किसानों के, मजदूरों के, कांग्रेस के, भाजपा के संगठन यह संकल्पनाएं समझने में सरल हैं। अस्तित्वहीन हिंदू समाज का संगठन यह संकल्पना ही डॉ. हेडगेवार के अतिरिक्त किसी ने समाज के सामने नहीं रखी। ग्राम वासी, शहर वासी, गिरीवासी, वनवासी, धनवान, निर्धन ऐसे लोग 6 लाख गांवों में फैले हुए एवं विविध भाषा बोलने वाले ‘ विराट’ समाज का संगठन करने का संकल्प करना यह भी एक चमत्कार ही है। डॉक्टर इसे एक ईश्वरीय कार्य ही मानते थे। डॉ. हेडगेवार ने यह कार्य करते हुए अपना जीवन समाप्त कर लिया। डॉक्टर जी का आदर्श सामने रखकर सैकड़ो कार्यकर्ताओं ने अपना जीवन इस कार्य के लिए होम कर दिया। परम पूजनीय श्री गुरु जी, पूजनीय सरसंघचालक श्री बालासाहेब देवरस, प्रोफेसर राजेंद्र सिंह जी, माननीय सुदर्शन जी ने वही आदर्श हम सबके सामने रखा है।

असंभव से लगने वाले हिंदू समाज का संगठन करने निकले हुए स्वयंसेवकों में कौन से गुण आवश्यक हैं, यह संघ निर्माता डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के जीवन का गहन चिंतन का विषय होना चाहिए। सार्वजनिक जीवन में काम करने वाले अनेक व्यक्तियों से उनका परिचय था। लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, महर्षि योगी अरविंद, त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती, भाई परमानंद ऐसे कुछ लोगों का हम उल्लेख कर सकते हैं।

साधारणत: किसी अधिवेशन के लिए कार्यक्रम की व्यवस्था करने वालों को “स्वयंसेवक” कहा जाता है। डॉ. हेडगेवार के मन की “स्वयंसेवक” यह संकल्पना बिल्कुल अलग थी।
1- संगठन करना याने मानव को मानव से जोड़ना। जोड़ने का स्वभाव होना चाहिए। तोड़ने का नहीं। जोड़ना अति कठिन।
2- “स्वयंसेवक” अहंकारी नहीं होना चाहिए। उसके मन में संपूर्ण समाज के बारे में आत्मीयता होनी चाहिए। किसी भी प्रकार का भेदभाव मन में नहीं होना चाहिए।
3- जोड़ने के लिए व्यक्ति के घर जाना पड़ता है, स्वत: आगे होकर अनजान व्यक्ति के यहां जाने का स्वभाव बनाना पड़ता है।
4- नए-नए लोगों के यहां जाने के लिए समय निकालना पड़ता है। अन्य जवाबदारियां कम समय में पूर्णकर ज्यादा से ज्यादा समय संगठन के लिए देने वाले व्यक्ति चाहिए।
5- मृदु भाषी एवं मित भाषी होना चाहिए।
6- प्रतिज्ञा लेकर काम करने वाला होना चाहिए।

हिंदू समाज के संगठन का कार्य हमारे धीरज की कसौटी देखने वाला कार्य है..” कार्यं वा साधयेत देहं वा पातयेत” ऐसी मनोभूमिका रखकर सतत काम करना पड़ेगा। यही बीड़ा आने वाली पीढ़ी को देना पड़ेगा। डॉ. हेडगेवार के बाद चार सरसंघचालक हुए। संघ का कार्य निरंतर चल रहा है। हमारे मन में स्वयंसेवक निर्माण करने की जो शाखा है, ऐसी कार्य पद्धति डॉक्टर हेडगेवार जी ने विकसित की।

संघ की शाखा भगवा ध्वज को प्रणाम कर प्रारंभ होती है और भारत माता को वंदन कर पूर्ण होती है।
शाखा में किसी भी देवता की या व्यक्ति की प्रतिमा नहीं रखी जाती। ध्वज को सर्वोच्च स्थान दिया जाता है। ध्वज के सामने सभी समान होते हैं। उच्च नीच, शिक्षित-अशिक्षित, शहरी-ग्रामीण ऐसे किसी भी प्रकार के भेदभाव का कोई स्थान नहीं है। “सभी की एक ही आराध्य देवी भारत माता”। “भारत माता के लिए सर्वस्व त्याग करने की तैयारी याने स्वयंसेवक”
पततु एश:काय: ऐसी इच्छा स्वयंसेवक रोज प्रार्थना में व्यक्त करता है।

भारत माता हमारी आराध्य देवी। समाज यह परमेश्वर तथा भगवा ध्वज यह आदर्श। यह संघ शाखा की रचना है। अहंकार तथा स्वार्थ को कहीं भी स्थान नहीं। शाखा के लिए 1 घंटे का समय निर्धारित किया गया है। एक-एक मिनट का विचार कर 1 घंटे का नियोजन किया जाता है। शरीर-मन-बुद्धि का समन्वय साधने वाला यह एक घंटा होता है। यह समन्वय यदि साध्य होता है तो मनुष्य हाथ में लिए गए कार्य को संपन्न करने के लिए समर्थ होता है। यदि इन तीनों का आपस में समन्वय नहीं होता तो व्यक्ति एकात्म नहीं होता, हमेशा द्विधा मन: स्थिति में रहता है।

1 घंटे का समय नियोजन साधारणत: निम्नानुसार होता है- पहले के 5 मिनट ध्वज वंदन के लिए, अंत के 5 मिनट भारत माता वंदन के लिए, 40 मिनट खेल, सूर्य नमस्कार, योग, समता, संचलन इत्यादि शारीरिक कार्यक्रमों के लिए होते हैं। रोज 10 मिनट बौद्धिक कार्यक्रमों के लिए, इस प्रकार सप्ताह का टाइम टेबल नियोजित होता है।

खेल खेलने से मन प्रसन्न, उत्साही और विजयाकांक्षी बनता है।
‘मैं जीतूंगा’ यह भावना जीवन में महत्वपूर्ण होती है। समाज में विजय प्राप्त करने की, आगे बढ़ने की महत्वाकांक्षा आवश्यक होती है। योग, समता, संचलन इत्यादि कार्यक्रमों से स्वयंसेवक को अनुशासित रखने में सहायता मिलती है। शरीर के इंद्रियों की मनमानी कम होती है। शरीर मन के वश में रहता है।

सूर्य नमस्कार सर्वांग सुंदर व्यायाम के रूप में जाना जाता है। इसमें सात आसन तथा प्राणायाम का मेल है। सूर्य नमस्कार के कारण शरीर को मजबूती मिलती है। परिश्रम करने वाला शरीर तैयार होता है।

शरीर माध्यम खलू धर्म साधनम, यह अमृत वचन प्रसिद्ध है। शरीर बड़ा और बुद्धि छोटी होती है। 10 मिनट बौद्धिक कार्यक्रम के लिए होते हैं। हिंदू समाज के प्रति निष्ठा, वर्तमान समाज की अव्यवस्थित अवस्था, एकात्मता का अभाव, समरसता का भाव निर्माण करने के लिए किए जाने वाले प्रयत्न, इन सब के लिए समय दान इत्यादि विषयों पर चर्चा के कार्यक्रम, यह सब 10 मिनट के बौद्धिक कार्यक्रमों में शामिल होता है। समाज प्रेम, शौर्य, पराक्रम, चारित्र्य, सेवा, समर्पण इत्यादि गुणवाचक छोटे प्रेरक प्रसंग बताना, ऐसा बौद्धिक कार्यक्रमों का स्वरूप होता है। शाखा में देश भक्ति के गीत सामूहिक रूप से गाए जाते हैं। स्वयंसेवक गीत गाने में तल्लीन हो जाते हैं। रोज कही जाने वाली प्रार्थना यह बौद्धिक विभाग का महत्वपूर्ण विषय है।

शाखा चलानेवाले स्वयंसेवक को ‘मुख्य शिक्षक’ कहा जाता है। उससे थोड़ा बड़ा स्वयंसेवक जो मुख्य शिक्षक की सहायता करता है, उसे शाखा कार्यवाह कहते हैं। शिशु, बाल, विद्यार्थी, तरुण तथा प्रौढ़ इन श्रेणियों के अनुसार गण शिक्षक नियुक्त किए जाते हैं। शिशु, बाल, विद्यार्थी, तरुण, व्यवसायी तरुण, व्यवसायी प्रौढ़, श्रेणी के अनुसार शाखा के प्रकार होते हैं। शाखा में पांच-सात स्वयंसेवकों के गट बनाए जाते हैं। प्रत्येक गट का एक ‘गटनायक ‘ होता है। गटनायक अपने गट के प्रत्येक स्वयंसेवक के घर जाता है। घर में सबके साथ संपर्क करता है एवं परिचय साधता है। गटनायक से ही संगठन शास्त्र कौशल्य प्रारंभ होता है।

शाखा स्तर से ही “योजना कौशल्य” विकसित होता है। सूक्ष्म स्तर पर डिटेल में जाने की आदत लगती है।

योजना कौशल्य तथा शरीर में रचा बसा अनुशासन, इसके कारण बड़े-बड़े काम भी स्वयंसेवक सहज रूप से पूर्ण करते हुए दिखाई देते हैं। भूकंप हो, बाढ़ हो, चक्रवात हो या कोरोना महामारी, आपत्ति के समय स्वयंसेवक के ये गुण प्रखरता से दिखाई देते हैं।

अभी बीच के काल में गंगामाता-भारतमाता यात्रा संपन्न हुई। 50000 किलोमीटर का प्रवास संपन्न हुआ। समय का पालन हुआ। व्यवस्था में कहीं भी गड़बड़ नहीं हुई। इंडियन एक्सप्रेस इस नामचीन दैनिक के कॉलम में यात्रा में “मिलिट्री प्रेसीजन” दिखाई दिया, ऐसा वर्णन किया गया था। पूरे कार्यक्रम के अखिल भारतीय संयोजक आदरणीय मोरोपंत पिंगले थे जो बालक की उम्र से ही संघ के स्वयंसेवक थे।

‘मैं विजयी होऊंगा ही’ विश्वास से एक-एक कदम बढ़ाने वाले तथा विवेकानंद शिला स्मारक को साकार रूप देने वाले माननीय एकनाथ जी रानडे यह संघ की कोख से निकला हुआ एक और व्यक्तित्व!

माननीय एकनाथ जी रानडे शिला स्मारक के निर्माण के बाद भी चैन से नहीं बैठे। स्वामी विवेकानंद की प्रेरणा लेकर समाज सेवा के लिए अग्रसर युवा- युवतियों को योग्य प्रशिक्षण मिले, ऐसा विद्यापीठ निर्माण किया। विवेकानंद केंद्र में प्रशिक्षित सैकड़ो कार्यकर्ता देशभर में समाज संगठन का कार्य कर रहे हैं।

संघ के प्रारंभ में नागपुर से ही नहीं वरन संपूर्ण महाराष्ट्र से अनेक
‘स्वयंसेवक’ अपना घर छोड़कर दूसरे प्रांतों में, अनजान प्रदेशों में संघ कार्य बढ़ाने के लिए गए। जिन संघ शाखाओं ने उन्हें तैयार किया, उनकी जितनी सराहना की जाए, कम है।

पंजाब में राजाभाऊ पातुरकर तथा माधवराव मुले, दिल्ली में वसंतराव ओक, उत्तर प्रदेश में श्री भाऊराव देवरस तथा नानाजी देशमुख, बिहार में मधुसूदन देव, उड़ीसा में बाबूराव पालधिकर, दक्षिण में दादा राव परमार्थ, दत्तोपंत ठेंगड़ी तथा यादव राव जोशी ऐसे अनेक नाम गिनाये जा सकते हैं। यह सब लोग कहां सोते होंगे? कब खाते होंगे? उनकी कल्पना शक्ति और योजना बद्धता की, एक-एक व्यक्ति के साथ उनकी आत्मीयता की, प्रशंसा ही करनी होगी।

आज स्वयंसेवक निर्माण करनेवाली 80000 संघ शाखाएं चल रही हैं।

स्वामी विवेकानंद के साहित्य में निम्नलिखित वाक्य पढ़ने को मिलता है। ‘व्यक्ति चाहिए, उसी से सब साध्य होगा। मैं ऐसे ही व्यक्तियों की खोज में हूं।’ जिनके शब्दों में M यह अक्षर कैपिटल होगा, I am in search of man
making machine. Man with capital M, ऐसा कहते हुए उन्हें देश का व्यक्ति कैसा चाहिए था? मृत्यु के जबड़े में प्रवेश करने वाला, अथांग सागर को तैर कर पार करने वाला, ऐसे अनेक बुद्धिमान और धैर्यशील युवक मुझे चाहिए हैं। उद्देश्य पूर्ति की आग उनके मन में धधकती हो, पवित्रता के तेज से चमकने वाले, भगवान पर श्रद्धा का शुभ कवच जिन्होंने धारण कर रखा हो, जो सिंह जैसे बलशाली हो, ऐसे युवक मुझे चाहिए। दीन- दलितों के बारे में अपार करुणा रखने वाले हजारों युवक-युवती हिमाचल से लेकर कन्याकुमारी तक प्रवास करेंगे, ऐसा मुझे विश्वास है। मुक्ति, सेवा और सामाजिक उत्थान के तथा सभी प्रकार की समानता का वे आवाहन करेंगे और यह देश पौरुष से खड़ा हो जाएगा।
“व्यक्ति निर्माण यानी स्वयंसेवक निर्माण” (Man with capital M) यह उद्देश्य सामने रखकर शाखा कार्य पद्धति के अनुरूप स्वामी विवेकानंद के राष्ट्र पुनरुत्थान के विचारों को साकार करने के प्रयत्न संघ द्वारा किए जा रहे हैं, ऐसा यदि कहा जाए, तो कुछ गलत नहीं होगा।

 

-मधु भाई कुलकर्णी

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