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बहुत हो गया कबूतर उड़ाना…  – जी.डी. उपाख्य गगनदीप बक्षी

बहुत हो गया कबूतर उड़ाना… – जी.डी. उपाख्य गगनदीप बक्षी

by गंगाधर ढोबले
in चेंज विशेषांक - सितम्बर २०१८, साक्षात्कार, सामाजिक
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रक्षा के क्षेत्र में भी स्वाधीनता के बाद भारी बदलाव हुए हैं। थोड़ा-बहुत काम हुआ है, बहुत कुछ करना बाकी है। शांति के कबूतर बहुत उड़ा चुके। अब ठोस कार्रवाई हो। प्रस्तुत है फौज, युद्ध, हथियार आदि मुद्दों परें पर प्रसिद्ध वरिष्ठ फौजी अधिकारी, विचारक, तथा लेखक मेजर जनरल (नि.) जी.डी. उपाख्य गगनदीप बक्षी से हुई विस्तृत बातचीत के महत्वपूर्ण अंश-

 

पिछले 70 वर्षों में देश में विभिन्न क्षेत्रों में भारी बदलाव आए हैं। रक्षा के क्षेत्र में ये बदलाव किस तरह के रहे हैं?

अ्रंग्रेजों के जाने के बाद रक्षा के क्षेत्र में जमीन आसमान का फर्क पड़ा है। इतिहास देखें तो ब्रिटिश भारत के पास एक बड़ी शक्तिशाली सेना थी। प्रथम विश्व युद्ध में फौजियों की संख्या 13 लाख थी। दूसरे महायुद्ध में 25 लाख की फौज हमारे पास थी। वह जापान से लड़ी, जर्मनी से लड़ी, इटली से लड़ी और हर मैदान में अपना लोहा सिद्ध किया। लेकिन, अंग्रेजों के जाते समय 25 लाख की यह फौज महज 3.5 लाख रह गई। वह भी दो टुकड़ों में बंट गई। एक टुकड़ा पाकिस्तान की तरफ गया, दूसरा टुकड़ा भारत के पास रह गया। एक तिहाई फौज के रूप में पाकिस्तान के पलड़े में कुछ ज्यादा ही पड़ा। उसके मुकाबले हमें बहुत कम मिला।

असली दिक्कत कहां है?

असली दिक्कत तो हमारे तत्कालीन नेतृत्व की थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू स्वयं को शांति दूत घोषित करने पर तुले हुए थे, स्वयं को भगवान बुद्ध का अवतार समझने लगे थे, इसलिए विश्व शांति की बड़ी-बड़ी अटकलों में उलझे हुए थे। वे तो भारतवर्ष के लिए फौज की जरूरत ही नहीं समझते थे। कहते थे, मात्र पुलिस से काम चल जाएगा। उस समय जन. रॉय बुचर स्वतंत्र भारत के प्रथम अंग्रेज सेना प्रमुख थे। वर्दी पहनकर, टोपी लगाकर उन्हें सलामी देने पहुंचे। औपचारिकता के बाद भारतीय फौज के आधुनिकीकरण का विषय छेड़ा, योजनाएं प्रस्तुत कीं। पं. नेहरू आगबबूला हो गए और तुनक कर कहा, ‘ General, I don’t need an Army. Nobody will attack india.’ हमारा पैगाम शांति और अहिंसा का है। बेचारे जनरल क्या बोलते? लेकिन, नेहरू की इस जिद का बहुत बड़ा खामियाजा देश को भुगतना पड़ा।

1947 में ही वजीरिस्तान के कबाइलियों की फौज पाकिस्तान ने बनाई और कश्मीर पर धावा बोल दिया। क्या इससे भी हमने कोई सबक नहीं लिया?

नहीं, लेते तो स्थिति आज दूसरी होती। सफेद कबूतर उड़ाने के सपने में खो जाने के बजाय जमीनी हकीकत पर पं. नेहरू अधिक ध्यान देते तो शायद 1962 में इतनी बुरी हालत हमारी नहीं होती। उस दौर में केवल एक ही व्यक्ति ने फौज को बचाया और वे थे सरदार पटेल। वे यथार्थवादी थे, रिअलिस्टिक थे। सरदार पटेल ने नेहरू को फौज को खत्म करने जैसी मनमानी बातें नहीं करने दीं। इसका कारण भी था- 1947 में ही विभाजन के दौरान हुए दंगे, लाखों हिंदुओं का पाकिस्तान से शरणार्थी के रूप में भारत आना, बेहिसाब लोगों का मारा जाना और कुल अराजकता की स्थिति।  सरदार अटल रहे, नेहरू को भी हिलने नहीं दिया, न फौज के बारे में कुछ ऊलजलूल करने दिया। पटेल के इस देश पर ये बहुत उपकार हैं।

क्या तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व फौज के बारे में अज्ञानी था या दूरदृष्टि नहीं रखता था?

सपने के पीछे भागने का यह परिणाम है। सपना टूटता ही है और तब हम कहीं के नहीं रहते। कबूतर को आकाश में उड़ते हुए देखने में ही दंग रह गए और तलवार भूल गए; उसे चलाना पड़ता है यह भी याद नहीं रहा। विश्व शांति के नाम पर हताशा का दौर आ गया।

क्या 1947 से लेकर 1962 के इस दौर को हम रक्षा के क्षेत्र में आए बदलावों का पहला दौर मान सकते हैं?

अवश्य! पं. नेहरू के पंचशील को स्वीकार करनेवाले चीनने ही 1962 में पहला जबरर्दस्त झटका दिया। फौज की हालत बुरी थी, पुराने और अत्यल्प साजोसामान के साथ फिर भी हम वीरता से लड़े।

कहते हैं, पं. नेहरू को भी इसका गहरा सदमा लगा था?

पं. नेहरू शायद इस सदमे से कभी उबर नहीं पाए। लेकिन, अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत। इसीमें 27 मई 1964 को उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन, चीनी हमले की इस घटना से हम यकायक जाग गए। सारा परिवेश अब तेजी से बदल रहा था।

अगला दशक भारतीय फौज के लिए स्वर्णिम काल रहा। 1965 से 1971 के कालखंड में भारतीय फौज शक्तिशाली विजयी फौज के रूप में उभरी। क्या इसे बदलाव का दूसरा दौर माना जा सकता है?

हां, यहीं से हमारा मनोबल फिर ऊंचा हो गया। सारा देश  फौज के साथ एक स्वर से खड़ा था। भारतीय फौज में बदलावों का यह स्वर्णयुग है। इस अवधि में सैन्य शक्ति को लगी जंग साफ हो गई। फौज का लगातार विस्तार होता गया। चीन से लड़ने के लिए दस माउंटेन डिविजन खड़ी की गईं। चीन सतर्क हो गया। चीन ने ेपाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब खान के गले यह बात उतार दी कि भारत को हराने का यही समय है; क्योंकि उसका मनोबल टूटा हुआ है। 1965 की लड़ाई इसीका परिणाम है।

भारत को संकट में डालने में चीन का हित था इसलिए उसने पाकिस्तान को उकसाया… या कि पाकिस्तान चीन के झांसे में आ गया?

न किसी ने किसी को उकसाया, न कोई किसी के झांसे में आया। इसमें दोनों के मिलेजुले हित थे। पाकिस्तान ने सियालकोट और छम्ब में मोर्चा खोल दिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने पलटवार का आदेश दिया और हमारी फौज पाकिस्तान पर टूट पड़ी। उसे उल्टे पांव भागना पड़ा। हमारी भी कुछ मजबूरियां थीं और युद्ध में गतिरोध की स्थिति आ गई।

आगे का इतिहास हम सब जानते हैं। सोवियत संघ की मध्यस्थता से युद्ध रुक गया, ताश्कंद में समझौता हुआ, पाकिस्तान को उसकी जमीन हमने लौटा दी; लेकिन देश को ‘जय जवान’ का नारा देने वाले लालबहादुर शास्त्री समझौते के तुरंत बाद ताश्कंद में ही चल बसे। पाकिस्तान को हराने का उल्लास इस तरह सदमे में बदल गया।

लेकिन, देश के मनोबल को वीरत्व की श्रेणी पुनः बहाल करने के शास्त्रीजी के प्रयासों को देश नहीं भूला। 1971 के युद्ध से क्या यह साबित नहीं हुआ?

हां, हमारी तैयारियां और अधिक गति से चलती रहीं। 1960 से 1970 का यह दशक भारतवर्ष के इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण दशक है, जिसका चरम बिंदु था 1971 की लड़ाई। हमारी सैन्य ताकत चरम पर थी। हमने पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए और पूरब में एक नए देश बांग्लादेश को जन्म दिया। मात्र 13 दिन के युद्ध में हमने पाकिस्तान के 93 हजार फौजियों को युद्धबंदी बनाया। दूसरे विश्व युद्ध के बाद यह सबसे बड़ा फौजी सरेंडर (आत्मसमर्पण) है। हमारे सैन्य इतिहास में चंद्रगुप्त मौर्य के बाद यह हमारी सबसे बड़ी विजय है। चंद्रगुप्त ने सेल्युलस को हराकर अफगानिस्तान तक अपना साम्राज्य कायम किया था। जरा सोचिए, चंद्रगुप्त से चला बदलाव का यह क्रम 1971 में किस तरह पूरा हुआ है। इस बदलाव का यह एक चक्र है, सर्कल है। 1971 में इंदिरा गांधी हमारी नेता थीं। उनके साहस और नेतृत्व की जितनी तारीफ की जाए वह कम ही होगी। वह वीरांगणा थीं। उस समय अटलजी ने इंदिराजी को साक्षात दुर्गा का अवतार कहा था। इसी साहस ने दक्षिण पूर्व एशिया का भूगोल बदल गया।

बदलाव का अगला दौर कौनसा है और इस दौर में क्या महत्वपूर्ण बदलाव हुए?

अगले दो दशक हमारे परमाणु ताकत प्राप्त करने के दशक हैं। बदलाव के इस दौर को हमारी सैन्य शक्ति में इजाफे का तीसरा दौर कह सकते हैं। 1971 की विजय के बाद इंदिराजी ने फिर एक बार साहस का परिचय देकर मई 1974 में पोखरण में पहला परमाणु विस्फोट करवाया। शांतिवादी तबके ने होहल्ला मचाया। नेहरू के जाने के बाद भी इस शांतिवादी तबके का सफाया नहीं हुआ।

यह तो हमारी उदारता है। इसे सद्भावना का अतिरेक कह सकते हैं…

उदारता की तो हद हुई! जिन्होंने 800 वर्षों तक हम पर हमले किए, हमें गुलामी में ढकेला उनसे कैसी शांति? जिन्होंने हिंदुओं का कत्लेआम किया उनसे कैसी शांति? कुछ शर्म नाम की चीज है या नहीं? यह तो केवल कायरता है। अगले कुछ साल इसी कायरता और ऊहापोह के हैं। लेकिन, अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने के साथ फौज को नया उत्साह मिला। उन्होंने पोखरण में दूसरा शक्तिशाली परमाणु विस्फोट कराया और हम परमाणु अस्त्र बनाने वाले राष्ट्र बन गए। सारे शांतिवादियों ने फिर विरोध किया, बड़े देशों ने प्रतिबंध लगाए; परंतु वाजपेयीजी डिगे नहीं।

इसी दौरान 1999 में पाकिस्तान ने करगिल पर कब्जा करने की जुर्रत की। पाकिस्तान को यह गरूर था कि उसके भी परमाणु अस्त्र से सज्जित होने से भारत किसी कार्रवाई से हिचकेगा। पाकिस्तान सोचता था कि भारत को यह डर रहेगा कि यह एटमी फ्लैश प्वाइंट बन सकता है, और वह कार्रवाई से दूर रहेगा। लेकिन भारत नहीं डरा। वाजपेयीजी न डिगे, न हिचकिचाए। उन्होंने सीधी कार्रवाई का आदेश दिया और भारतीय फौज के आगे पाकिस्तानी टिक नहीं पाए। मुशर्रफ के सारे गणित फेल हो गए।

थोड़ा सा अलग सवाल। पाकिस्तान के करगिल की पहाड़ियों पर काबिज होते तक भारतीय फौज को इसकी जानकारी कैसे नहीं मिली? क्या यह हमारी सुस्ती का परिणाम है?

सुस्ती तो नहीं है; लेकिन गुप्तचरी विफलता अवश्य हुई है। इसका कारण भी है। सर्दियों में करगिल इलाके में भारी बर्फबारी होती है। 40-40 फुट तक बर्फ जमती है। भूस्खलन बहुत होते हैं। कई लोग बर्फ में दबकर मर जाते हैं, दसों लापता हो जाते हैं। इसलिए सर्दियों में बहुत ऊंची चोटियों की चौकियां खाली कर दी जाती हैं। पाकिस्तानी अपने क्षेत्र की और हम अपने क्षेत्र की ऐसी चौकियां खाली कर देते हैं। सर्दियां खत्म होने के बाद फिर उन चौकियों पर काबिज हो जाते हैं। यह दोनों ओर से होता है।

इसीका पाकिस्तान ने फायदा उठाया और स्थानीय सैनिकों को वहां चौकियों पर तैनात कर दिया। तोपों समेत हथियार भी लाकर रख दिए। जब इसका पता चला तब हम चकित रह गए। पहले तो यह मानते रहे कि ये तो आतंकवादी हैं जो वहां जमे हैं। इसलिए आनन-फानन में वहां जाकर हमले करने लगे और इसका शुरुआती दौर में हमें बहुत नुकसान उठाना पड़ा। बाद में जब पता चला कि ये आतंकवादी नहीं, नियमित फौज है; तब योजनाबद्ध तरीके से अभियान शुरू हुआ। बोफोर्स तोपें गरजने लगीं और पहाड़ों के शृंग आग के शोलों से दहकने लगे। पाकिस्तानियों के पैर उखड़ने लगे और वे भाग गए।

बदलाव के इस दौर को हम क्या कहें?

यह दौर परमाणु अस्त्रों से सज्जित होने और करगिल विजय का रहा। क्षात्रतेज का दौर रहा।

21वीं सदी बदलावों के हिसाब से कैसी रही?

इस सदी के आरंभ से सन 2014 तक के 14-15 साल की अवधि को बदलाव का चौथा दौर कह सकते हैं। यह दौर बेहद सुस्ती, अनिर्णय, फौज के प्रति बेरुखी का रहा। आधुनिकीकरण के मामले में कोई प्रगति दिखाई नहीं देती। फौजी साजसामानों की खरीदी मेें भी कोई तत्परता नहीं थी।

लेकिन एक और नकारात्मक बदलाव आया। परमाणु अस्त्र आने के बाद शांतिवादियों के तबके ने, सफेद कबूतर उड़ाने वाले इस तबके ने दुष्प्रचार शुरू कर दिया कि भारत-पाक दोनों परमाणु हथियारों वाले देश हैं। एक भी भारतीय सैनिक सीमा पार कर लेगा तो एटमी युद्ध हो जाएगा, दिल्ली में आग लग जाएगी।

मैं इसे बकवास मानता हूं। मेरा एक ही सवाल है- कारगिल युद्ध तीन महीने तक चला, कितने एटम बम दिल्ली पर गिरे? ये तथाकथित शांतिवादी, देश के सबसे घातक दुश्मन हैं। क्योंकि इन्होंने हमारे लड़ने का हौसला, माद्दा ही खतम कर रखा है।

2014 के बाद मोदीजी की सरकार आई। क्या इसे बदलाव का पांचवां दौर कहा जा सकता है?

कह सकते हैं; लेकिन यह दौर अभी जारी है। परिणामों का इंतजार करना होगा। लोगों को उनसे बड़ी उम्मीदें हैं। इतना अवश्य है कि रक्षा सौदें अब कुछ पैमाने पर होने लगे। उनमें कुछ पारदर्शिता आने लगी। लेकिन महज एक ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ के आगे मामला बढ़ता नहीं दिखाई दे रहा है। सर्जिकल स्ट्राइक में तो केवल 250 जवान लगे थे, लेकिन करगिल युद्ध तो 30 हजार जवानों ने लड़ा। जब 30 हजार जवानों के युद्ध में उतरने पर एटमी जंग नहीं छिड़ी तो हमारे कुछेक जवानों के सीमा पार करने पर कैसे छिड़ेगी?

वे लोग सीमा पार करें, हमारे लोगों को मारे तो कुछ नहीं, और हम ही सीमा पार करें तो बवाल! सीमा पार न करने की सीमा हम पर क्यों? दिक्कत तो हमारे नौकरशाहों से भी है। वे कोई जोखिम उठाना नहीं चाहते। यथास्थिति उनके फायदे की होती है। इसलिए वे भी हमें डराते रहते हैं। परिणामतः हमारी क्षमता पर असर पड़ता है। प्रश्न यह है कि क्या हम फिर से नेहरू युग में जाकर सफेद कबूतर उड़ाते रहेंगे? दुश्मन हमला करें तो अपनी बला से, हम तो अहिंसा और शांति की ही बात करेगे। ऐसी बातें हमें कहीं का नहीं रखेंगी। जैसे को तैसा बर्ताव होना चाहिए।

मोदी सरकार से हमें बहुत उम्मीद थी, लेकिन सिवाय एक सर्जिकल स्ट्राइक के पिछले चार साल में बहुत नहीं हुआ। लिहाजा, अभी भी एक साल है। मेरी इस सरकार को राय है कि वह अपनी के्रडिबिलिटी (साख) को कायम रखें। 1999 में करगिल के समय भी एनडीए की सरकार थी और आज भी एनडीए की सरकार है।

1999 के बाद आप पर कितने हमले हुए? क्या आपने मुंबई का जवाब दिया? उरी, पठानकोट आदि अन्य हमलों का भी कितना जवाब दिया? उरी के बाद केवल एक सर्जिकल स्ट्राइक हुई। तिस पर भी हम पाकिस्तान के डीजीएम को कह रहे हैं कि हम तो  आतंकवादियों को मार रहे थे, आपको नहीं। हद हो गई। सब जानते हैं कि हमला पाकिस्तान की फौज करवाती है। फिर उन्हें दो टुक जवाब देने के बजाय यह क्या बचकानी बात हो रही है।

मेरी राय में सबसे बड़ा बदलाव तो हमारी इच्छाशक्ति में आना चाहिए। ‘विल पावर’ में आना चाहिए। हममें यह दृढ़ता फिर से कायम होनी चाहिए कि फौज का बड़े पैमाने पर किंतु नियंत्रित तरीके से किस तरह उपयोग करें।

अब सवाल कश्मीर में चल रहे घमासान के बारे में… क्या आतंकवादियों के नाम पर पाकिस्तानी फौज के जवान ही घुसपैठ कर हमला करते हैं? आपका अनुभव क्या है?

इसमें क्या शक है? आईएसआई से प्रशिक्षित कुछ लोग हैं, कुछ मुफ्ती में आए पाकिस्तानी जवान हैं। फौज आतंकवादियों को प्रशिक्षण, हथियार, संचार साजोसामान, पैसा सबकुछ देती है। गोलीबारी का कवर देकर उन्हें भारतीय सीमा में घुसाती है। आपको और क्या सबूत चाहिए? क्या अभी भी आप इसे फिक्शन (कहानी) बनाना चाहते हैं कि अरे साहब, ये तो नॉन-स्टेट एक्टर हैं। यह सब बकवास है। इससे बड़ी कायरता और क्या हो सकती है? फिर तो हमें लड़ना ही नहीं पड़ेगा। उनकी अदालतों में जाकर हम फैसला करवाएंगे। क्या मजाक चल रहा है? मुंबई हमले के कितने किलो दस्तावेज आपने उन्हें दिए। उन्होंने इसे फिक्शन कहकर मजाक उड़ाया। रही शांति वार्ता की बात- किससे, कैसे और क्यों शांति वार्ता? हुर्रियत के ये लोग तो गद्दार हैं।

फिर दौर आया महबूबा मुफ्ती का- उसने तो जम्मू-कश्मीर को ही नहीं, दिल्ली को भी हिला रखा था। अच्छा हुआ भाजपा ने उससे समर्थन हटा लिया- देर आए, दुरुस्त आए। दिल्ली के कुछ महानुभाव, जिनके मैं नाम नहीं लेना चाहता, वहां दिल जीतने की बात कर रहे थे और वहां के लड़के आपको पत्थर मारकर आपका सिर तोड़ रहे थे। यह कैसी मुहब्बत है?

देखिए, पूरे देश में एक कानून होना चाहिए। हरियाणा में डेरा सच्चा ने दंगा कराया तो उससे हम सख्ती से निपटे, 36 लोग मारे गए, कोई हल्ला नहीं हुआ। वहीं जम्मू-कश्मीर में होता है तो हमें छर्रे चलाने का हुक्म होता है, हथियार रख दिए जाते हैं। मार खाओ, पर हथियार न उठाओ। यह मानसिकता हमें फिर से नेहरू युग में ले जाएगी। यह नहीं होना चाहिए।

अब आखरी सवाल- यदि युद्ध छिड़ जाता है तो हम पाकिस्तान-चीन के संयुक्त मोर्चे का किस तरह मुकाबला कर पाएंगे? क्या इतने आधुनिक संसाधन हमारे पास हैं?

देखिए, 1962 के बाद से अब तक ब्रह्मपुत्र में बहुत पानी बह चुका है। आज का भारत 1962 का भारत नहीं है। हम फौजी क्षेत्र में तेजी से प्रगति कर रहे थे कि यूपीए के 10 साल के कार्यकाल ने हमें पीछे ढकेेल दिया। कबूतर उड़ाने वाले वहां हावी थे। एंटनी साहब रक्षा मंत्री थे। पारदर्शिता के नाम पर उन्होंने एक रक्षा समझौता नहीं होने दिया। यह कैसी पारदर्शिता है? नई सरकार आई तो हमने उन्हें कदम उठाने का आग्रह किया। कुछ हुआ है, कुछ बाकी है। किंतु बड़े पैमाने पर कदम उठाने की उम्मीद बरकरार है। बहुत खाइयां बन चुकी हैं, जिन्हें भरना होगा। नौसेना का कुछ ठीक है, लेकिन वायु सेना और थल सेना की हालत एक जैसी हैं। रफेल का सौदा हुआ है, लेकिन उसे आने में देर है। रूसी मिग की नई श्रेणी नहीं आ रही है, पुराने मिग उड़ते ही नीचे टपक रहे हैं। नौकरशाह फाइलों पर जल्दी दस्तखत नहीं करते। वे भी तो सबसे बड़ा रोड़ा है। उनका क्या जाता है- मरते तो फौजी हैं।

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