देश के युवाओं का धर्म, अध्यात्म, संस्कृति, परम्परा की ओर रूझान भारत के उज्जवल भविष्य व सुरक्षा की गारंटी हैं। ईसाई-इस्लाम एवं साम्यवाद से मिल रही चुनौती का ध्यान रखते हुए युवाओं को शास्त्र व शस्त्र में पारंगत होकर संगठन शक्ति से इनका प्रतिकार करना होगा, तभी हमें विजयश्री की प्राप्ति होगी।
हर संस्कृति की अपनी कुछ विशेषताएं होती हैं। जापान अनुशासन तो स्विट्जरलैंड विलासिता तथा फ्रांस अपनी वेशभूषा के लिए जाना जाता है। इसी प्रकार भारत की पहचान इसके अध्यात्म से है। पाश्चात्य जगत का चरित्र भोगमय और चिंतन अधिकतम प्राप्ति की लालसा तक सीमित रहा है। इसी सोच की प्राप्ति का तो नाम अमेरिकन ड्रीम्स अर्थात बहुरंगे अमेरिकी स्वप्न हैं। इसके उलट भारत युग युगांतर से धर्मभूमि है। जहां लोकमंगल एवं लोकल्याण की भावना से कई धर्मों-पंथों का उदय हुआ।
यह मानवीय मूल्य संवेदना के विकास संग आदर्शों के उच्च मानबिंदुओं के स्थापन की पावन भूमि है। इस योगभूमि भारतवर्ष की आत्मा सदैव से अध्यात्म है। इसलिए इसे ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, साहित्य, कला, संस्कृति तथा जप, तप, ध्यान, भक्ति के उद्भव की भूमि बताई गई है। यहीं से स्थापत्य, आयुर्वेद, चिकित्सा, अभियंत्रण, खगोल, भूगोल, कृषि, वानिकी सब प्रारम्भ हुआ है। इस नाते यह शस्य श्यामला भूमि केवल धन धान्य से ही परिपूर्ण नहीं अपितु विश्वगुरु भी रही है, किंतु समय की यात्रा में हम अपनी गौरवशाली धर्म परम्परा से विमुख हुए हैं। स्वार्थ, अहंकार, परस्पर टकराव और जातिय आग्रह-दुराग्रह की भावना के नाते हमें गुलाम होना पड़ा। यही नहीं हजार वर्ष की पराधीनता और भारतवर्ष के टुकड़े-टुकड़े होने का भी दंश झेलना पड़ा। अनगिनत देवालय और सांस्कृतिक प्रतीक चिन्हों को आक्रांता जातियों द्वारा द्वेषवश पैरों से रौंद दिया गया। एक वीर जाति अपनी ही भूमि पर सदियों तक दासत्व में रही। खंड-खंड किए भारतवर्ष को जब आधी अधूरी एवं विखंडित स्वतंत्रता प्राप्त हुई तो अनगिनत जनों को निर्वासन-विस्थापन और धार्मिक उत्पीड़न झेलना पड़ा, जो अब तक जारी है। इसे आप कश्मीर से केरल तथा अफगानिस्तान से लेकर बांग्लादेश तक देख सकते हैं। यदि आपसी मतभेद हावी नहीं होता तो इस्लाम का विजय रथ हिंदूकुश पर्वत माला के पार ही कहीं ठहरा होता। इतिहास फिर कही सिंध और अफगान के बौद्ध प्रजा तथा कन्नौज के राजा जयचंद पर प्रश्न नहीं उठाता। यदि अतीत में भारतीयों ने दूरदृष्टि का आश्रय लिया होता तो निश्चित शत्रु बोध के संग आपसी सहयोग एवं तालमेल की भावना भी प्रबल होती तब यहां न मुगल और ना ही डच अथवा अंग्रेज राज कर पाए होते, किंतु पराभव पराधीनता, विभाजन, विखंडन और आपसी मतभिन्नता के बावजूद भी भारत खड़ा है। इस जीवंत जागृत प्रवाहमान और प्रबल जिजीविषा के पीछे कुछ तो विशेष है। यह इसका सर्वस्पर्शी और सर्वग्राह्य होना है। भारतीय संस्कृति सदैव से ही सहअस्तित्व तथा प्रकृति के साथ एकात्मकता में विश्वास करती है। इन सब कारणों से बहुलताओं से भरा भारत सर्वस्वीकार्य है। यह सभी को सुसंस्कृत एवं सुसभ्य बनाने की बात करता है। इतना ही नहीं सभी को श्रेष्ठ स्वावलम्बी स्वतंत्र तथा सुहृद बनाने की सोच रखता है। इस नाते सबके मंगल कल्याण की कामना अपनी प्रार्थनाओं में करता है। इसलिए कहा गया है कि विश्व का कल्याण हो, प्राणियों में सद्भावना हो, किंतु यह बिना धर्म की जय और अधर्म, अविद्या, अनीति तथा अविवेक के नाश बिना सम्भव नहीं है। इसलिए आवश्यकता अपने गौरवशाली इतिहास से सीख लेकर धर्मों रक्षति रक्षित: ध्येय के साथ राष्ट्र, धर्म, संस्कृति के चतुर्दिक प्रचार की है। भारत के पास एक बड़ी शक्ति उसके युवा हैं। यह विश्व में सर्वाधिक युवा जनसंख्या वाला देश है। ऐसे में यह नित्य नूतन चिर सनातन वाली ऋषिभूमि निश्चित ही इन युवाओं के सहारे भारत के बदलाव की गाथा रच सकती है।
आज भारत अपने विशेषताओं, विशिष्टता और भारत विद्या के नाते विश्व का ध्यान खींच रहा है। योग, आयुर्वेद, अनेक उत्सव, सांस्कृतिक विविधता, नृत्य, संगीत, साहित्य एवं पराविद्या के नाते भारत आकर्षण का केंद्र बिंदु है। दुनिया भर में बसे परिश्रमी एवं सफल भारतवंशी तथा अप्रवासी भारतीय मूल के लोगों के नाते भी भारतीय संस्कृति की सर्वत्र चर्चा हो रही है। इनमें युवाओं की एक अच्छी खासी संख्या है। भारतीय महानगरों से लेकर अमेरिका के सिलिकॉन वैली तक इन्होंने अपने सफलता के झंडे गाड़े हैं। इसके साथ ही ऐसे युवा सनातन संस्कृति के ध्वजवाहक व संवाहक की भूमिका भी निभा रहे हैं। इसे आप सुंदर पिचाई, काश पटेल तथा विवेक रामास्वामी के उदाहरणों से समझ सकते हैं। विश्व प्रसिद्ध प्रौद्योगिकी कम्पनी गूगल के मुख्य कार्यकारी अधिकारी सुंदर पिचाई के लिए दीपावली सर्वाधिक महत्वपूर्ण उत्सव है। वहीं अमेरिका के नव निर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के मंत्रिमंडल सहयोगी काश पटेल तथा विवेक रामास्वामी अपनी हिंदू पहचान को सार्वजनिक रूप से स्पष्ट करते रहे हैं। काश पटेल ने पूर्व में राम मंदिर के पक्ष में बयान दिया है। वहीं विवेक अपने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा सभी में ईश्वर के वास वाली सोच को हिंदू धर्म की अवधारणा के तौर पर विभिन्न मंचों पर अपने वक्तव्य के दौरान रखते रहे हैं। बात भारत और अड़ोस-पड़ोस के संदर्भ में हो तो धीरेंद्र शास्त्री स्वामी दीपांकर, अमोघ लीला प्रभु तथा चिन्मय कृष्ण दास कुछेक प्रभावी नाम हैैं। ये सभी अपने स्तर पर सनातन संस्कृति के रक्षण एवं प्रचार में लगे हैं। आचार्य दीपांकर एवं धीरेंद्र शास्त्री जहां अपने सभा एवं यात्राओं के माध्यम से यह जागरण कर रहे हैं। वही गौड़ीय सम्प्रदाय से संबद्ध अंतराष्ट्रीय संस्था इस्कॉन के साधु अमोघ लीली प्रभु एवं चिन्मय कृष्ण दास अपने कृतित्व के नाते अपरिचित नहीं हैं। अमोघ लीली प्रभु युवाओं के बीच आकर्षक एवं तार्किक ढंग से हिंदू धर्म का प्रचार कर रहे हैं। वहीं चिन्मयप्रभु वर्तमान में बांग्लादेशी हिंदुओं के स्वर हैं। अभी तक वे यहां के हिंदू उत्पीड़न के विरोध के कारण कारावास में प्रताड़ना झेल रहे हैं। इसके बावजूद उन्होंने अपने विचार, सिद्धांत एवं मांगों से कोई समझौता नहीं किया है।
स्वामी नारायण, इस्कॉन एवं गायत्री परिवार के जैसे आध्यात्मिक हिंदू संस्थाओं से बड़ी संख्या में युवा वर्ग जुड़ कर देश एवं विदेश में सनातन धर्म तथा भारत भक्ति का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। योग, अध्यात्म, आयुर्वेद इत्यादि को लेकर भी युवा भारत एवं भारत के बाहर व्यक्तिगत तथा संस्थागत स्तर पर कार्य कर रहे है। इसमें भारतीय एवं अभारतीय दोनों मूल के युवा हैं। इसे आप प्रधान मंत्री मोदी के विदेश यात्रा के दौरान वहां भारत विद्या के प्रचारकर्ताओं के संग होने वाले भेंट तथा संवाद से समझ सकते हैं।
आगामी प्रयागराज कुम्भ भी एक ऐसा ही अवसर होगा जहां लाखों युवा सनातन प्रेम एवं भारत भक्ति की भावना के साथ जुटेंगे। इनमें से कुछ एक सदगृहस्थ के रूप में यहां दीक्षा, शिक्षा ग्रहण करेंगे। वहीं बहुतेरे सनातन हिंदू धर्म के विभिन्न दिशा और देशों में प्रचार की संकल्पनाओं संग वैराग्य लेंगे। बदलते समय के साथ लचीलापन बहुलतावाद के साथ ही आवश्यकतानुसार आक्रामकता की भी आवश्यक है। आखिर हर हिंदू देवी-देवता की कल्पना बिना शस्त्र को तो अपूर्ण है। ऐसे में इन भारत भक्त एवं सनातन संस्कृति प्रचारकों को शास्त्र के संग शस्त्र की महत्ता पर भी गहन विचार करना होगा। यही नहीं इन्हें राम सी मर्यादा के संग कृष्ण जैसी रणनीतियों पर भी सोचना होगा। बिना साम, दाम, दंड, भेद एवं नीति के ईसाई-इस्लाम एवं साम्यवाद जैसे बर्बर पाशविक विचारों से लड़ा एवं जीता नहीं जा सकता है। अतएव बदलते हुए जनसंख्या घनत्व, तीव्र गति धर्मांतरण तथा रंग बदल कर देश एवं व्यवस्था के विरुद्ध युद्ध छेड़ रखे वामपंथ के विरुद्ध शस्त्र, शास्त्र तथा छल, बल सभी के प्रयोग से ही विजयश्री मिलेगी।