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सूर्य मंदिरों का रहस्य

सूर्य मंदिरों का रहस्य

by प्रशांत पोल
in संस्कृति
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सूर्य इस शब्द मे ही गूढता भरी हुई है. इक्कीसवी सदी का एक चौथाई हिस्सा समाप्त हो रहा है, फिर भी सूर्य का आकर्षण और सूर्य संबंधी ज्ञान / अज्ञान, आज भी वैसा ही है, जैसा हजारों वर्षों पहले था..!

मानव के जाती के उन्नती और उत्क्रांती के काल मे विश्व के लगभग सभी समूह प्रकृती को पूजते थे. दक्षिण अमेरिका की इन्का / माया संस्कृति हो, ग्रीक और इजिप्शियन सभ्यता हो, या रोमन, हिंदू और चिनी परंपरा… इन सभी सभ्यताओं में और इन सभी स्थानों पर, प्रकृती पूजन के साथ सूर्य की भी पूजा होती थी. उस प्रारंभिक काल मे तत्कालीन मानव जाती को यह समझ मे आया होगा, कि हमे मिलने वाली ऊर्जा सूर्य से मिलती है. दिन और रात, और ऋतू और मौसम मे बदलाव भी सूर्य के कारण होते है. इसलिये अलग – अलग नामो से, अलग – अलग पद्धती से, सूर्य देवता की उपासना सब जगह होती रही. युरोपियन्स ने इन प्रकृती पूजकों को ‘पेगन’ यह लेबल लगाया था. यह तुच्छता दर्शक और उनको हीन समझनेवाला शब्द था.

भारत मे भी सूर्य की उपासना अनादी काल से हो रही है. यजुर्वेद मे एक सुक्त है- ‘सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च’ (7/42).

अर्थात, सूर्य को सभी जड, चेतन पदार्थों का आत्मा कहा गया है. शुक्ल यजुर्वेद मे ‘सूर्य सूक्त’ या ‘मित्र सुक्त’ इस शीर्षक से कुल 17 श्लोक दिये है. भारत मे होने वाली सूर्य पूजा यह केवल किसी अनाकलनीय प्रकृती भगवान की पूजा नही है, तो सूर्य के सभी तत्व और गुणधर्म की जानकारी होते हुए की गई उपासना है. ऋग्वेद के प्रथम मंडल मे 527 से 599 सूक्त, सूर्य के वर्णन करने वाले सूक्त है. इसमे सूर्य के सप्तवर्णी (सात रंग के) किरण होते है,ऐसा स्पष्ट उल्लेख है. इसीलिए भारत में प्राचीन समय से सूर्यदेवता के जो मंदिर है, उनमे यह वैज्ञानिक जानकारी कूट-कुटकर भरी है. उसमे से कुछ ही हम ‘डीकोड’ कर सके हैं. बाकी बची हुई प्रचुर जानकारी, अभी भी अनसुलझी पहेली बनी हुई है.

भारत की इस सूर्य पूजा परंपरा को प्राचीन समय मे अनेक देशों ने अपनाया. सूर्य का संस्कृत में नाम है ‘मित्र’. हमारे बारा सूर्य नमस्कारों का प्रारंभ ही ‘ओम मित्राय नमः’ से होता है. सूर्य का यह ‘मित्र’ नाम, इजिप्शियन संस्कृती से लेकर युरोप तक, कई स्थानों पर मिलता है. जर्मनी में फ्रॅन्कफर्ट के पास ‘झालबर्ग’ नाम के रोमन कालीन किले मे एक संग्रहालय है. उसमे पहले / दूसरे सदी के सूर्यदेवता की प्रतिमा मे, सूर्य के लिए, ‘मित्रा’ शब्द का प्रयोग किया गया हैं. मित्रा या सूर्य इस शब्द का और उस देवता के पूजा का संबंध भारत के साथ स्पष्ट रूप से दिखाया है.

प्राचीन समय में विशाल, एकसंघ और अखंड भारत में सूर्य के अनेको मंदिर थे. बादमे इस्लामी आक्रमकोंकी ‘बुत शिकन’ मानसिकता के कारण इनमे से अधिकतम मंदिर गिराये गये. ध्वस्त किये गये. उनमे से कुछ ही मंदिरों का पुनर्निर्माण हो सका.

जिस सबसे प्राचीन सूर्य मंदिर का उल्लेख इतिहास मे आता है, वह आदित्य सूर्य मंदिर आज के पाकिस्तान के मुलतान मे है. इस सूर्य मंदिर का उल्लेख ग्रीक सेनानी ‘एडमिरल स्कायलेक्स’ ने किया है. एडमिरल स्कायलेक्स, ईसा पूर्व वर्ष ५१५ मे इस क्षेत्र मे आया था. उन दिनों मुलतान यह ‘काश्यपपूर’ इस मूल नाम से जाना जाता था. यह मंदिर कम से कम, 5000 वर्ष पुराना होगा,ऐसी मान्यता है. उसके बाद आये चिनी प्रवासी ह्युएन त्सांग ने वर्ष 641 मे इस मंदिर को भेट दी. वे लिखते है, ‘यह आदित्य मंदिर अत्यंत भव्य और विपुलता से भरा हुआ है. इसमे सूर्यदेवता की प्रतिमा सोने की बनी हुई है. वह मौल्यवान और दुर्लभ रत्नोंसे अलंकृत है.’

आगे चल कर अल् बिरुनी इस अरब इतिहासकार ने ग्यारहवी सदी मे किये हुए मुलतान यात्रा मे इस मंदिर का उल्लेख किया है. आठवी सदी मे, अर्थात, वर्ष 712 मे उम्मयाद साम्राज्य के तत्कालीन खलिफा ने, मोहम्मद बिन कासीम को सिंध प्रांत पर आक्रमण करने भेजा. इस मोहम्मद बिन कासीम ने राजा दाहीर को इस युद्ध मे परास्त करके, मुलतान समेत लगभग पूरा सिंध प्रांत अपने अधिपत्य मे ले लिया. तब उसके ध्यान मे आया की मुलतान का आदित्य मंदिर और उसके आसपास लगने वाला बाजार, यह उसके कमाई का बडा साधन बन सकता है. इसलिये उसने यह मंदिर तोडा नही, वैसे ही रहने दिया. इस मंदिर से मिलने वाला राजस्व, उसके लिए मोटी तगडी कमाई था. बाद में जब आसपास के क्षेत्र के हिंदू राजा मुलतान पर आक्रमण करके मुस्लिम आक्रांताओंको खदेडने आते थे, तब यह कासिम धौंस देता था, कि ‘मुलतान पर आक्रमण करोगे तो याद रखो, तुम्हारा आदित्य सूर्य मंदिर मै ध्वस्त कर दूंगा.’

उस समय इस सूर्य मंदिर की प्रसिद्धी इतनी जबरदस्त थी, कि यह मंदिर ध्वस्त ना हो इसलिये हिंदू राजा मुलतान पर आक्रमण करने से डरते थे. अर्थात, इस आदित्य मंदिर को बंधक रख कर, मोहम्मद बिन कासीम ने अनेक वर्षों तक बिना युद्ध किये समूचे सिंध प्रांत पर राज किया.

सन 1026 मे मोहम्मद गजनी ने इस मंदिर को पूर्णतः ध्वस्त किया. ऐसा कहते है, इस मंदिर में सूर्य के बारे मे अनेक रहस्यमय जानकारी विविध मूर्ती और ‘विशिष्ट रचना’ द्वारा दर्शायी गयी थी. ‘सांब पुराण’ मे इस मंदिर का उल्लेख है.

आज के हमारे खंडित भारत मे भी अनेक छोटे – बडे सूर्य मंदिर है. यह सूर्य मंदिर, हमारे पुरखों को सूर्य सृष्टी के संबंध में जो जानकारी थी, वो हमारे सामने रख रहे है. इन मंदिरो में, पूर्व दिशा मे ओडीशा मे कोणार्क का सूर्य मंदिर, उत्तर मे जम्मू-काश्मीर स्थित मार्तंड सूर्य मंदिर, और पश्चिम में गुजरात में मोढेरा का सूर्य मंदिर, यह तीन सूर्य मंदिर एक त्रिकोण बनाते है.

इनमे से जम्मू-काश्मीर राज्य मे अनंतनाग के पास स्थित ‘मार्तंड सूर्य मंदिर’ यह आठवी सदी मे, वर्ष 764 मे बनाया गया था. कार्कोट वंश के चंड प्रतापी राजा ‘ललितादित्य मुक्तापीड’ ने इस मंदिर का निर्माण किया. इसके लिये ललितादित्यने काश्मीर की उंचाई पर स्थित ऐसी समतल भूमि का चयन किया, जहांसे पुरा प्रदेश अच्छे से दिख सके. अत्यंत भव्य ऐसे इस सूर्य मंदिर मे, अनेक खगोलशास्त्रीय घटनाये और सूत्र उकेरे गये थे.

लेकिन पंद्रहवी सदी के प्रारंभ मे, सिकंदर शाह मिरी इस क्रूरकर्मा अफगान शासक ने यह मंदिर ध्वस्त किया. ढहा दिया. इस कारण, बडे पैमाने पर खगोलशास्त्रीय इतिहास भी मंदिर के मलबे मे दब गया.

गुजरात मे मोढेरा का सूर्य मंदिर यह उसके बाद बनाया गया मंदिर है. वर्ष 1026 – 27 में, आज के गुजरात के मेहसाणा जिले में, चालुक्य राजवंशके भीम राजा (प्रथम) ने इस मंदिर का निर्माण किया. हो सकता है, कि इस जगह पर कोई छोटा सूर्य मंदिर होगा और राजा भीम (प्रथम) ने भव्य रूप से उसका पुनर्निर्माण किया हो. उन दिनों, पुष्पावती नदी के किनारे का यह स्थान, खगोलशास्त्रीय दृष्टी से सटीक था, इसलिये इस जगह का चयन किया गया. रहस्य से भरा मंडप, सभा मंडप और बीचोंबीच पानी का कुंड, ऐसी इस मंदिर की रचना है. यह मंदिर पूर्वाभिमुख है.

इस मंदिर की विशेषता यह हैं, कि यह मंदिर कर्क रेखा पर स्थित है. इस मंदिर के अक्षांश – रेखांश है- 23″ 58′ – 72″ 13′.

आजसे एक हजार वर्ष पूर्व, उस जमाने के मंदिर निर्माताओंने, ठीक कर्क रेखापर मंदिर कैसे बनाया होगा, यह एक आश्चर्य हैं..!

इस मंदिर के गर्भगृह की रचना ऐसी है कि, दिन और रात जब समान होते हैं, उस दिन, अर्थात 21 मार्च और 23 सितंबर को, जब सूर्य विषुववृत्त को पार करता हैं, तब सूर्य की पहली किरण, गर्भगृह की सूर्य प्रतिमा को प्रकाशित करती है. वैसे ही, वर्ष का सबसे बडा दिन और सबसे बडी रात जब होती है, तब इस मंदिर की छाया नही होती. (अभी इस मंदिर मे सूर्य देवता की मूर्ती नही है). मंदिर पर अनेक प्रकार की मूर्तियां और आकृतियां उकेरी गयी है. इसमे सूर्य मालिका और पंच महाभूतोंका (वायू, पृथ्वी, आकाश, अग्नी, जल) संबंध (relation) बताया है. यह मंदिर 52 स्तंभोंपर खडा है. यह स्तंभ, वर्ष के 52 सप्ताहोंका प्रतिनिधित्व करते है.

भारत के प्रसिध्द सूर्य मंदिरोंके त्रिकोण का तिसरा मंदिर है, ओडिशा में, कोणार्क का सूर्य मंदिर. तुलना से सबसे नया मंदिर यही है. यह मंदिर बहुत प्राचीन होगा. नौवी सदी के इस मंदिर के अनेक संदर्भ मिलते है. बादमे यह मंदिर भव्य रूप मे फिर से बनाया गया होगा.

तेरहवी सदी के भारत में इस्लामी आक्रांताओंका प्रवेश हुआ था. बख्तियार खिलजीने नालंदा और अन्य विश्वविद्यालय ध्वस्त किए थे. परंतु भारत के पूर्व किनारे पर इन आक्रांताओंका आतंक अभी प्रारंभ नही हुआ था. उत्कल प्रांत में अभी भी हिंदू राजाओ का राज था. पूर्ब गांग (रुधी गांग या प्राच्य गांग) राजवंशका राज चल रहा था. इस राज वंश के नरसिंह देव (प्रथम) ने वर्ष 1250 में, समुद्र किनारे, कोणार्क का सूर्य मंदिर स्थापित किया.

कोणार्क का पूर्व में नाम ‘कैनपरा’ था. सातवी – आठवी सदी तक यह पूर्वी दिशा के देशों के साथ व्यापार करने वाला एक बंदरगाह था. लेकिन सूर्य मंदिर के कारण इसका नाम कोणार्क हुआ. कोणार्क का अर्थ होता हैं, कोण + अर्क. संस्कृत में सूर्य को ‘अर्क’ कहा जाता है. इसलिये ‘सूर्य मंदिर के कारण तयार हुआ कोण’, ऐसा इसका मोटे तौर पर अर्थ होता है.

यह मंदिर अति भव्य स्वरूप मे बनाया गया था. आज इस मंदिर के जो भग्नावशेष दिखते है, उससे इसके भव्य रूप की कल्पना हम कर सकते है. सात घोडों के रथमे भगवान सूर्य देवता बैठे है, ऐसा इस मंदिर का स्वरूप है. और रथ भी कितना बडा? तो कुल 24 बडे पहियों का रथ, 12 – 12 पहिये दोनो तरफ…!

इस रथ को जो सात घोडे जोडे है, वे सूर्यकिरण के सात रंगों का प्रतीक है. ऋग्वेद मे इसका स्पष्ट उल्लेख है. इन्हे सप्ताह के सात दिनों का प्रतीक भी मान सकते है. इस मंदिर की वास्तुकला यह स्वतंत्र अध्ययन का विषय है. संपूर्ण मंदिर केवल और केवल पत्थरोंसे बनाया हुआ है. कहीं पर भी चुना, मिट्टी का उपयोग नही है. ये पत्थर भी कम से कम 35 किलोमीटर दूर से लाये गये है. मंदिर में अनेक भूमितीय आकार और आकृतीयां बनी हुई है. भूमिती, खगोलशास्त्र और अध्यात्म का अद्भुत संगम, सुंदर मिलाफ इस मंदिर मे दिखाई देता है.

ये सूर्य मंदिर होने के कारण इसमे खगोलशास्त्र की जानकारी और कुछ बारीकियां दिखती होगी यह स्वाभाविकही है. मंदिर के रथ को जो 24 पहिये लगे है, वह विशेष है, और उनमे कुछ रहस्यमय अर्थ छुपा है. रथ का पहिया यह सूर्य घडी (Sun Dial) है. दुनिया की यह एक मात्र सूर्य घडी है जो वर्टिकल है. दुनिया मे अनेक स्थानो पर सूर्य घडी है, जो दिन का समय दिखाती है. लेकिन वे सब हॉरिजॉन्टल है. कुछ वर्षों के बाद जयपुर के सवाई जयसिंह ने निर्माण किये हुए जंतर-मंतर मे जो सूर्य घडी है, वह भी हॉरिजॉन्टल ही है. दिन में, विशिष्ट समय पर सूर्य की जो छाया आती हैं, उसके अनुसार समय बताने की सुविधा सूर्य घडी मे होती है.

कोणार्क मंदिर के रथ के पहिये भी ऐसे ही अचूक, सटीक और सही समय दिखाते है. इसके हर पहिये मे आठ बड़े आरे (spoke) रहते है. यह आठ आरे, दिन के आठ प्रहरोंको दिखाते है. कुछ दशक पहले तक, अपने यहां कालमापन के लिये ‘प्रहर’ को इकाई माना जाता था. एक प्रहर तीन घंटों का होता है. लेकिन इन आठ आरीयोंके बीचोंबीच एक छोटी सी (पतली सी) आरी होती है. अर्थात एक प्रहर के दो भाग किये है. हर भाग देढ घंटे का हैं, अर्थात नब्बे मिनिट का.

इसमे एक और मजेदार बात है. जो आठ छोटे आरे है, उन पर तीस मणी, समान अंतर पर लगाए गए है. अर्थात, नब्बे मिनिट भागीत 30 करने पर, एक मणी की किमत तीन मिनिट होती है. मणी भी पूर्णतः गोल आकार के नही है. इलिप्टीकल है. उनकी रचना ऐसी हैं, की उन पर पड़ने वाली छाया के अनुसार उनके भी तीन भाग होते है. इसका अर्थ, अब इस सूर्य घडी के कालमापन की सबसे छोटी इकाई हैं, एक मिनिट.

अब उस पहिये के अक्ष (केंद्र बिन्दु) पर एखाद छोटी छडी रखने के बाद, उस बारीक छडी से, पहिये पर पडने वाली सूर्यप्रकाश की छाया से हमे दिन का बिलकुल सही समय मिलता है.

अब यह प्रश्न मन मे आता है की, सूर्य का प्रवास तो छह महिने उत्तरायण और छह महिने दक्षिणायन मे होता है. ऐसी स्थिती मे, कालमापन कैसे होगा? इसलिये रथ के दोनो तरफ पहिये है. रथ की दिशा इस प्रकार रखी गई है की उत्तरायण मे एक तरफ के पहिये से समय देखना है, तो दक्षिणायन मे दुसरी तरफ के पहियेसे.

कितना अद्भुत है यह…..!

775 वर्ष पूर्व, हमारे पूर्वजोंने इतनी कुशलता से इस सूर्य घडी की रचना की है, की जैसे लगता है आज के जमाने के दिवार के घडी मे हम समय देख रहे है. हमारे पूर्वज कितने परिपूर्णवादी (perfectionist) थे इसका और क्या प्रमाण चाहिये?

कोणार्क के रथों के पहिये से, दिन का समय हम जान सकते है, यह भी हमे बहुत बाद में पता चला. कुछ वर्ष पूर्व, एक साधू, एक पतली लकडी लेकर रथों के पहियों पर आई हुई छाया से कुछ देख रहा था. उससे लोगों को पता चला की इससे हम समय देख सकते है.

लेकिन यह समय केवल सूर्य के प्रकाश मे ही देखना संभव हैं. रात का क्या? तो कहा जाता है की रथ के इन्ही पहियों मे चंद्रमा घडी भी छुपी हुई है. इस चंद्र घडी का उपयोग करके, रात का समय भी निकाल सकते है. सूर्य घडी के लिए केवल दो पहिले आवश्यक होते है. बाकी 22 पहियों का क्या काम? क्योंकि प्रत्येक पहिये पर की गई नक्काशी अलग – अलग है. दिन और रात के हर प्रहर मे लोगों की दिनचर्या क्या होती है, ये उन पर रेखांकित किया गया है. दुर्भाग्य से इस चंद्र घडी को ‘डीकोड’ करना, हमे आज भी साध्य नही हुआ है. वह अभी तक एक रहस्य ही है.

ये सभी सूर्य मंदिर भारत के विशाल पट पर जिस पद्धती से निर्माण किये गये है, वो पध्दती, वो पैटर्न, हमे कुछ बताना चाहते है. हमारे दुर्भाग्य से पूर्वजों की यह रहस्यमय भाषा हम आज भी ठीक से समझ नही पाए है.

एक उदाहरण देता हूं….

मध्य प्रदेश के सागर जिले में, रहली नाम का एक छोटा गाव है. मराठी भाषिक लोगों के लिए इसका खास महत्व है. सागर के गोविंदपंत (खेर) बुंदेला के मृत्यु के पश्चात, खेर परिवार की एक व्यक्ती, लक्ष्मीबाई खेर ने, वर्ष 1790 में, रहली मे विठ्ठल भगवान के एक सुंदर मंदिर का निर्माण किया. इसलिये रहली को, मराठी भाषिक ‘प्रति पंढरपूर’ कहते है.

किंतु रहली का महत्व इससे अलग है. इस रहली में, सुनार और देहार नदियों के संगम पर एक छोटासा और उपेक्षित ऐसा प्राचीन सूर्य मंदिर है. इस मंदिर की विशेषता यह है, कि कर्क वृत्त पर निर्मित यह मंदिर, मोढेरा और कोणार्क, इन दो मंदिरों के बिल्कुल बीच मे बना है. जी हां… एकदम बीचोंबीच. बिल्कुल मध्य मे. अक्षांश – रेखांश देखकर हम समझ सकते है.

कोणार्क मोढेरा रहेली
19″53′ 23″58′ 23″37′
86″05 72″13′ 79″06′

रेखांश का गणित देखिये.
कोणार्क 86″05′ – मोढेरा 72″13′ = 13″92′
इसको अगर दो से भागित किया, तो उत्तर हैं, – 6″96′
अब मोढेरा के रेखांश मे ये जोडे तो,
72″13 + 6″96′ = 79″09′
रहेली के सूर्य मंदिर के ये रेखांश है.

अक्षांश – रेखांश को कुछ देर के लिए छोड भी दे, तो भी मोढेरा और कोणार्क का वायू अंतर (air distance), या सेना की भाषा मे ‘क्रो फ्लाय डिस्टन्स’, निकाला तो हम देखते हैं, की बिलकुल मध्य मे यह रहेली का, उपेक्षित ऐसा छोटासा सूर्य मंदिर आता है.

हजारों वर्ष पूर्व, हमारे पूर्वजों के पास पृथ्वी की दूरी नापने की क्या पद्धती रही होगी, जिससे इन सूर्य मंदिर की रचना की होगी?

ये सब अनाकलनीय और रहस्य से भरा है. हमारे पुरखो का खगोलशास्त्र का ज्ञान जबरदस्त था. मंदिरों की रचाना और मूर्तियों के माध्यम से यह ज्ञान, हमारे सामने रखने का प्रयास भी किया है.

और हम आधुनिकता का डंका बजाने के बाद भी, हमारे प्राचीन ज्ञान को, हमारे संचित को, हमारी विरासत को ठीक से समझ ही नही पाए है..!

 

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