“विश्व प्रसिद्ध पितांबरी प्रोडक्ट प्रा. लि. के मैनेजिंग डायरेक्टर रविन्द्र प्रभुदेसाई अपने बिजनेस के साथ ही सनातन विचारों पर चलने वाले एक आर्दश कर्मयोगी हैं। आपने सनातन भारत के लिए हिंदी विवेक को दिए साक्षात्कार में अध्यात्म, साधना, आध्यात्मिक पर्यटन, गुरुकुल शिक्षा, आदर्श कुटुम्ब परम्परा, गुरु शिष्य परम्परा, रामराज्य समेत अनेक विषयों पर अपने विचार प्रकट किए हैं और साथ ही कर्म, ज्ञान, भक्ति एवं योग के माध्यम से सफल जीवन का सुत्र भी बताया है। प्रस्तुत है उनके साक्षात्कार के सम्पादित अंश “
आपकी दृष्टि में सनातन परम्परा का निश्चित अर्थ क्या है?
कहा गया है ‘नित्य नूतन ह इति सनातन:’ अर्थात जो कभी पुराना नहीं होता है, जो शाश्वत है, जो सदियों से चली आई है, अभी है और आगे भी रहेगी। जो नश्वर नहीं शाश्वत है, उसे हम सनातन कहते हैं। प्राचीन काल से ही भारत का सनातन धर्म गौरवशाली रहा है, यह भारत राष्ट्र का मूल प्राण तत्व है। आयुर्वेद, योग, प्रकृति आदि महत्वपूर्ण बातों को समाविष्ट कर अध्यात्म और विज्ञान का एक रूप है सनातन। सच कहूं तो सनातन विराट भी है और सूक्ष्म भी है।
पुरातन और वर्तमान भारत में आपको क्या अंतर दिखाई देता है?
ग्रामीण भारत और शहरी भारत में जो दूरी है, मुझे लगता है कि इसके कारण कुछ अंतर आया है। पहले हमारे यहां गुरुकुल शिक्षा पद्धति थी। गुरू के साथ सभी शिष्य जाते थे और बिना भेदभाव के विद्या अध्ययन करते थे, लेकिन अंग्रेजों एवं इस्लामिक आक्रमणों के चलते सनातन का प्रवाह थोड़ा खंडित हो गया। इसके अलावा जो गतिमानता शहरों में आई है, अंग्रेजी भाषा का जो हम पर आक्रमण हुआ, उसने हमें बहुत हानि पहुंचाई है। यदि हम पुन: अपनी गुरु शिष्य परम्परा या गुरुकुल पद्धति प्रारम्भ कर पाएं तो अपेक्षित सुधार संभव है।
सच्चा सुख और खुशियां किसमें है भोगविलास में या अध्यात्म में?
केवल पैसों के लिए जो 12 घंटे काम करते हैं, उन्हें अपने परिवार से भी दूर रहना पड़ता है, जिसके चलते बहुत सारी समस्याएं खड़ी हो गई हैं। अतः 5 दिन का काम का सप्ताह और दो दिन घर से ही काम करने की सुविधा जैसा सिस्टम बनाएंगे तो लोगों को अपने परिवार के साथ समय बिताने का समय मिलेगा। आज सभी पैसे के पीछे पागल हैं। पैसा ही सभी चीजों का मूल है, ऐसा सब लोगों को लगने लगा है जबकि सच्चाई यह है कि पैसे में आनंद नहीं है, पैसे में शांति नहीं है, पैसे में स्वास्थ्य नहीं है, पैसे में सुख नहीं है। पैसों के भोगविलास क्षणिक हैं। सनातन यह कहता रहा है कि आत्मिक आनंद होना चाहिए और मन को शांति-संतोष मिलना चाहिए, वही सर्वश्रेष्ठ है।
सनातन परम्परा की आत्मा अध्यात्म है, आप इसे किस दृष्टि से देखते हैं?
अधी आत्मा यानी अध्यात्म, अर्थात आत्मा की उन्नति के लिए कुछ करना ही भारतीय संस्कृति है। इसके साथ एक ओर शब्द आता है आत्मविश्वस। ‘मैं शरीर नहीं बल्कि आत्मा हूं और परमेश्वर का ही अंश हूं’, इस तरह की श्रद्धा जिसकी दृढ़ हो गई है वो किसी से डरता नहीं है क्योंकि उसके साथ परमेश्वर है। उसका भाव मजबूत है। उसे परमेश्वर पर पूरा भरोसा है। इसे ही आत्मविश्वास कहते हैं। जो भगवान से जुड़ा है, साधना करता है, आत्म मुक्ति के लिए प्रयासरत है, वह रोजमर्रा की जिंदगी के साथ भी आध्यात्मिक है।
आप एक सफल बिजनेसमैन हैं, आपकी सफलता में अध्यात्म का क्या योगदान है?
मैं ऐसा बहुत बार सोचता हूं कि पीताम्बरी की शुरुआत करने के पहले, पिताजी तो संघ और जनसंघ के सामान्य कार्यकर्त्ता थे और कोंकण से केवल कपड़ों के साथ खाली हाथ मुंबई आए थे। 19 वर्ष रेलवे में नौकरी करने के बाद उन्होंने ट्रांसपोर्ट का बिजनेस शुरू किया। उनके साथ अनेक फैक्ट्रियों में घूमते-घूमते मेरे मन में ऐसा विचार आया कि अपनी भी एक ऐसी फैक्ट्री होनी चाहिए, लेकिन हम सामान्य परिवार से थे। एक छोटे से घर में हम 5 लोग रहते थे, इसलिए यह सम्भव प्रतीत नहीं होता था। जन्म के बाद यदि आपको कुछ बड़ा करना है तो इस जन्म में ही आपको कुछ पुण्यकर्म करने पड़ते है। मुझे ऐसा लगता है कि आध्यात्मिक साधना करते-करते मन की एकाग्रता से कुछ सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं। उसी का लाभ मुझे भी मिला है जो सफलता के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है। इसलिए मेरा मानना है कि मेरी सफलता में सर्वाधिक योगदान अध्यात्म, साधना और सनातन विचारों का है।
कोरोना के समय आप बहुत बीमार थे, उससे उबरने के बाद आपको क्यों लगा कि आपका पुर्नजन्म हुआ है?
मीडिया में, अखबारों में हम अनेक प्रकार की दुर्घटना-हादसों की खबर देखते हैं तो मन में ख्याल आता है कि यदि हमारे साथ ऐसा हो जाता तो क्या होता? कोविड के समय भी तबियत ठीक नहीं होने से हॉस्पिटल में भर्ती होना पड़ा था। तब भी भगवान का नाम स्मरण और जप शुरू था। भगवान् की शरण होने के कारण मुझे डर नहीं लगा, लेकिन यह एहसास हुआ जैसे कि मेरा दूसरा जन्म हो गया है। भगवान ने मुझे एक और मौका दिया है कुछ अच्छा करने के लिए। सतत भगवान का चिंतन, मनन, भक्ति करने से व्यापार में बढोत्तरी हुई है। अत: पीतांबरी प्रोडक्ट प्रा. लि. में हम केवल पैसों के पीछे नहीं भाग रहे हैं। समाज, राष्ट्र, धर्म की सेवा के लिए हम कुछ करना चाहते हैं। भारतीयों की भलाई एवं रोजगार हेतु हम प्रयासरत हैं।
धर्म को कर्मकांड से जोड़ कर देखा जाता है। कर्मकांड को आप किस रूप में देखते है?
कर्म, ज्ञान, भक्ति और योग के अनुरूप जीवनशैली अपनाने से जीवन का उत्कर्ष निश्चित रूप से बढेगा। भक्ति से हम अंत:करण से जुड़े हैं। जैसे सुबह उठे तो हमें सर्वप्रथम भगवान का ध्यान करना चाहिए क्योंकि दिनभर की जो हमारी दिनचर्या है उसे ठीक रखने के लिए यदि हम नियम नहीं बनाएंगे तो सब अस्त-व्यस्त हो जायेगा। जैसे कि ऑफिस में हम लोग 8 घंटा जाते है तो हमें सैलेरी मिलती है। जो हमें पूजा पाठ करना है या ईश्वर का ध्यान करना है तो हम कैसे करते हैं, इसे भगवान के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना कह सकते है। महीने या साल में जैसे भी हम करना चाहे। कोई सत्यनारायण भगवान् की पूजा करता है, कोई नियमित रूप से निश्चित समय पर नाम स्मरण और ध्यान करता है, गणपति, नवरात्री आदि पर्व त्यौहार, पंचांग के अनुसार कुछ अच्छे दिन और कुछ बुरे दिन होते हैं। उनमें सबसे शुभ मुहर्त पर हम पूजा करते हैं। ग्रह-नक्षत्र का भी हम पर प्रभाव पड़ता है। निसर्ग के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए नियमबद्ध पद्धति से कर्म करने को हम कर्मकांड कहते हैं। जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश, जिन्हें हम पंचमहाभूत कहते हैं। इनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए हम विविध प्रकार से सारे कर्मकांड करते हैं। यदि आप कर्मकांड कीकृति को देखेंगे तो आपको केवल कर्मकांड ही लगेगा, लेकिन उसके पीछे छुपा कृतज्ञता का भाव आपको दिखाई नहीं देगा लेकिन जब आपको यह एहसास होगा कि हम प्रकृति के प्रति भी कृतज्ञ भाव से आभार मान रहे हैं तो उसका मर्म समझ में आएगा और फिर आप उसे कर्मयोग मानने लगेंगे। जब हम समर्पण भाव से इनके प्रति श्रद्धापूर्वक कृतज्ञता व्यक्त करते हैं तो उनके आशीर्वाद से हमारे सभी मनोरथ पूर्ण होने लगते है। ऐसा मुझे लगता है।
गुरु के बिना मनुष्य की उन्नति संभव नहीं है, गुरु और गुरु दीक्षा के संदर्भ में आपके विचार और अनुभव स्पष्ट करें।
हमारे धर्म ग्रंथों में बताया गया है कि पूर्वजन्म के कर्म के अनुसार उसका मानव रूप में जन्म होता है। इस संदर्भ में मैंने भी बहुत सारे धर्मग्रंथ पढ़े थे लेकिन जब तक गुरु जैसा कोई हमें योग्य मार्गदर्शक नहीं मिलता, जब तक ग्रंथ का सार बताने वाला गुरु आपको नहीं मिलता, तब तक आपको विश्व की रचना समझ नहीं आती। हम भ्रमित हो जाते हैं। अज्ञानतावश हमने शिक्षक को ही गुरु समझ लिया है। वास्तव में जिन्होंने ईश्वर का साक्षात्कार किया है, वही गुरु कहलाने के लायक होते है। ऐसे ही गुरु परम पूज्य पाण्डेय जी महाराज मेरे जीवन में आए, वे सनातन संस्था के
पनवेल आश्रम में रहते थे। उनके गुरु थे डॉ. जयंत बालाजी आठवले और उनके गुरु थे भक्तराज महाराज।
जैसे ही मैं उनके पास गया, तो उन्होंने बहुत ही सरल तरीके से सत्संग, सत्सेवा, त्याग, प्रीति और परमेश्वर की प्राप्ति यह सीधे रास्ता बता दिया। जैसे-जैसे मैं सत्संग और ग्रंथ पढ़ने लगा तो पहले पढ़े हुए ग्रंथों का भी अर्थ मुझे समझने लगा। जैसे नदी का पानी समुद्र में जाकर मिलता है, यही उसकी नैसर्गिक नियति है। वैसे ही मानव की गति भी परमात्म प्राप्ति ही है। जैसे अग्नि की दिशा ऊपर की ओर होती है, यही उसका स्वभाव है। आपको आनंद और परमानंद की प्राप्ति तभी होगी जब आप परमेश्वर से एकाकार, एकरूप हो जाएं। लेकिन यह कोई सिखाता ही नहीं है, बताता ही नहीं है, क्योंकि यह समझने की आपकी योग्यता ही नहीं है। यदि हम अपनी योग्यता बढाते जायेंगे, नाम स्मरण, सत्संग, सत्सेवा करके, दूसरों की अच्छाइयों यानी देव प्रवृतियों को प्रोत्साहित करेंगे तो आपके ही साथ उनका भी कल्याण होगा। इस तरह के व्यवहार को हमें अपने आचरण में लाना होगा। गुरु के अंदर एक आध्यात्मिक चुंबकीय शक्ति होती है। गुरुओं की यही इच्छा होती है कि शिष्यों की आध्यात्मिक उन्नति हो, बाकि उनको दूसरा कुछ नहीं चाहिए। मेरे जीवन में भी ऐसे ही गुरु का आगमन हुआ जिससे मेरा जीवन भी धन्य हो गया। मुझे ऐसा लगता है कि हम यदि साधना करे तो ईश्वरीय कृपा से गुरु खुद हमारे पास चले आते है। ऐसी अनुभूति होती है।
गुरुकुल शिक्षा पद्धति क्या भारत में फिर से शुरु किया जाना चाहिए?
पहले गुरुकुल होता था तो सभी के लिए आसानी से गुरु सुलभ थे, उन्हें पहले से ही गुरु की प्राप्ति हो जाती थी। इसलिए महान पराक्रमी पुरुष, ज्ञानी, दानी, ऋषि-मुनि आदि श्रेष्ठ महामानव, महापुरुष भारत में हुए। पहले के लोग सेवा निवृत्ति के बाद गुरुकुल खोलते थे और आज के लोग शेयर में निवेश करते हैं। तब ऐसा था कि आपको ज्ञान और अनुभव की प्राप्ति हो गई है तो यह ज्ञान आनेवाली पीढ़ी में साझा कर उन्हें और अधिक योग्य बनाएं। इसलिए देश में यह मांग अब जोरों से उठने लगी है कि स्व-आधारित गुरुकुल शिक्षा भारतीय विद्यार्थियों को दी जानी चाहिए
जिससे उनका और देश का सर्वांगीण विकास हो सके।
सनातन परम्परा और संस्कृति की ऐसी कौन सी विशेषता है जो समूचे विश्व को अपनी ओर आकर्षित कर रही है?
मुझे लगता है कि जो आनंद और शांति मैंने बताई, कर्म, भक्ति, ज्ञान और योग शास्त्र, के माध्यम से, दुनिया इसकी साक्षात् अनुभूति करना चाहती है इसलिए आध्यात्मिक प्यास मिटाने के लिए वह भारत की ओर आकर्षित हो रही है। इसके अलावा प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने विश्व योग दिवस के द्वारा पूरे विश्व को सुखी और कल्याण करने की पहल की। भारत का योग विश्व को अनुपम देन है। दूसरों को सुखी देखकर सुखी होने में जो मजा है वह किसी में नहीं है। यही भाव सब में आ जाये तो इस भावना से पूरा विश्व आन्दमय हो जायेगा। यह अनुभूति लेना और देना यही भारतीय संस्कृति है। हमारी संस्कृति यही सबको सिखाती है।
कर्मयोगी बनने का सबसे आसान मार्ग क्या है?
साधना करने के बाद रज, तम गुण कम होने लगता है और सात्विकता बढ़ने लगती है। जैसे-जैसे सात्विकता बढने लगती है, दूसरों के आनंद की अनुभूति हमें भी होने लगती है। फिर हम दूसरों के आनंद के लिए प्रयास करना शुरु कर देते हैं और स्वयं भी आनंदमय हो जाते हैं। विश्व कल्याण की कामना करना भारत की प्रमुख विशेषता है। भारत की आध्यात्मिक साधना के अनेक माध्यम है। जो संगीत में रूचि लेता है वह संगीत के साथ साधना कर सकता है। आप चाहे जिस क्षेत्र में कार्यरत हैं, यदि आप अपने कर्म को भगवान को अर्पित करेंगे तो आप कर्मयोगी बन जायेंगे। केवल एक ही पंथ, मत के अनुसार साधना करना भारत में आवश्यक नहीं है। आपको जैसा अच्छा लगता है वैसे आप परमेश्वर की साधना करें और उससे एकनिष्ठ होकर रहें तो आपको भगवान् की प्राप्ति होगी। गुरु प्राप्ति और साधना हम जैसे-जैसे बढ़ाते हैं, वैसे-वैसे हमारा अहंकार कम हो रहा है या नहीं, सात्विकता बढ़ रही है या नहीं, यह हमें ध्यान रखना चाहिए। क्रोध पर नियंत्रण आया या नहीं यह देखना चाहिए।
भारत में आध्यात्मिक पर्यटन की संभावना आपको दिखाई देती है?
भारत में आध्यात्मिक पर्यटन यदि हम शुरू करते हैं, जिनको शांति नहीं है, वह गंगा के किनारे और नर्मदा नदी के पास आए, कुछ समय बिताए, वह श्राद्ध करे, तो उन्हें परम शांति की अनुभूति अवश्य होगी। पितृदोष की समस्या विदेशियों को बहुत है, इसके लिए वह अस्वस्थ भी रहते हैं और अशांत भी रहते है। हर समस्या का समाधान भारत में है। भारत ने आध्यात्मिक पर्यटन की पहल की तो इसका लाभ पूरे विश्व को होगा। जिस तरह से हम मंदिर का निर्माण कर रहे हैं, राम मंदिर बन रहा है। जैसे हमारे यहां रामकृष्ण मिशन है, या हरे राम हरे कृष्ण जो है, केवल नाम जप में ही विदेशी रम जाते है और उन्हें परम शांति की अनुभूति होती है। लोगों का भरोसा अध्यात्म पर बढ़ता जा रहा है। उसी तरह भारत का अध्यात्म सभी को अपनी ओर सहर्ष आकर्षित करने की क्षमता रखता है। यह भारत की अनोखी दिव्य आकर्षण शक्ति है।
किसी भी संस्था की कार्यप्रणाली जब अध्यात्म और संस्कारों से प्रेरित होती है तो उनमें सकारात्मक परिवर्तन दिखाई देने लगता है। इस पर आपका अनुभव क्या कहता है?
मेरा अनुभव तो बहुत अच्छा है। पीताम्बरी में विगत 10 वर्षों से हम सभी सुबह-सुबह नियमित रूप से प्रार्थना करते हैं। विश्व कल्याण प्रार्थना करने के उपरांत ही हम सभी अपने कामकाज की शुरुआत करते हैं। इससे अलग-अलग अनुभूतियां सभी को आने लगी हैं। पहले कर्मचारियों में आपस में एक दूसरे से जलन का भाव था, एक का प्रमोशन किया तो दूसरे को तकलीफ होती थी। प्रार्थना करने के बाद उनकी साधना का स्तर बढ़ता गया और उनमें आपसी बंधुभाव बढ़ने लगा। एक दूसरे के प्रति आत्मीयता और मदद करने की भावना विकसित हुई। उसका आनंद भी उन्हें मिलने लगा है। मुझे लगता है कि कम्पनी में अध्यात्म के साथ नैतिक मूल्यों की भी शिक्षा दी जानी चाहिए। जैसे आज कहा जाने लगा है कि अध्यात्म पीताम्बरी का कल्चर है, यह हमारी विशेष पहचान बन गई है। फिर उस संस्कृति से जुड़ाव रखने वाले लोग यहां आते हैं, काम करते हैं, रहते हैं। जिनको यह पसंद नहीं वो चले जाते हैं। जो अच्छी तरह से इसे आत्मसात कर लेते हैं, वे पीताम्बरी के कल्चर में समा जाते हैं। मुझे लगता है कि कम्पनियां अध्यात्म को थोड़े प्रतिशत में भी व्यवहार में लाएं तो उसका सकारात्मक प्रतिसाद उन्हें भी निश्चित रूप से मिलेगा।
सनातन परम्परा संस्कृति भारत की नींव है, लेकिन उस नींव पर ही आघात करने की कोशिश निरंतर हो रही है। इसके क्या दुष्परिणाम हमारे समाज में हो रहे हैं और इसे रोकने के लिए हमें क्या करना चाहिए?
हम अपने पुराणों में भी देखते आए हैं कि देव और दानव हमारे समाज में रहते आये हैं। दानव वृत्ति यही है कि जो दूसरों का है वह भी हमारा ही है और जो हमारा है वह तो हमारा है ही। इसके अलावा और मुझे मिलना चाहिए, इसे ही दानव मानसिकता कहते हैं। जैसे दुर्योधन था, वैसे लोग आज भी होते हैं। राक्षस जिन्हें कहते हैं वह दिखने में वैसे लगते नहीं है, उनकी जो वृत्ति और काम करने का तरीका गलय होता है। जैसे राक्षस शक्तिशाली व संगठित होते थे उसी तरह आज के ये कलयुगी राक्षस भी संगठित रूप से अपराधों को अंजाम देते हैं। नक्सली, आतंकवादी, ड्रग्स, तस्कर, माफिया आदि वर्तमान राक्षस सदैव अपने गिरोह का विस्तार करते रहते हैं। जो नादान है जिन्हें सही-गलत की पहचान नहीं है वह आसानी से इनके चंगुल में आ सकते है। इसके लिए हमें इनके विरुद्ध प्रचार-प्रसार करना चाहिए। यह कलयुग है, इस युग में सज्जन शक्ति का संगठन करना आवश्यक है। संगठन में शक्ति है ऐसा हम लोग बोलते हैं। सज्जन शक्ति की कुछ कमियां है कि वह आसानी से संगठित नहीं होते इसका फायदा राक्षसी वृत्ति के लोग उठाते हैं और उनपर आक्रमण करते हैं। इस चुनौती और खतरे से पार पाने के लिए सज्जन शक्ति को संगठित होना ही होगा। इसके सिवा दूसरा कोई उपाय नहीं है।
धर्म एवं समाज विरोधी दुर्जन शक्ति का प्रतिकार कैसे कर सकते है?
राष्ट्र विरोधी असामाजिक तत्वों के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई करने के लिए जो मदद चाहिए वह सज्जन शक्ति को देनी चाहिए। धन की आवश्यकता होने पर धन एकत्रित कर अच्छे कार्यों में लगाना चाहिए। सत्संग, अच्छे कार्यक्रम में सज्जन शक्ति को जाना चाहिए। जैसे प्रभु रामजी ने सभी को एकत्रित कर रावण से युद्ध किया, अंग्रेजों के खिलाफ भारतियों ने एकजुट होकर क्रांति-आंदोलन के माध्यम से उन्हें खदेड़ दिया। वैसे ही अभी जो दुर्जन लोग हैं, उस वृत्ति के लोग हैं, वो भी चाहते हैं कि सत्ता में आएं और शक्ति को नियंत्रित कर सभी को उसका लाभ दिलाएं और उनके तंत्र को फलने-फूलने में मदद करे। इसके लिए वह जुल्म, अत्याचार, जबरदस्ती करके भी अपनी महत्वकांक्षाओं को पूरा कर सकते हैं। जैसा हमने हजार सालों का इतिहास देखा था गुलामी का, संघर्ष का, वैसा फिर से हो सकता है। स्वतंत्र हो गए इसका मतलब यह नहीं है कि स्थाई रूप से संकट टल गया है। फिर से यह संकट आ सकता है इसलिए सदैव हमें जागरूक और सतर्क होकर संघर्ष के लिए तैयार रहना चाहिए। जैसे ताम्बा पीतल को घिसने का प्रोडक्ट है पीताम्बरी, अगर उससे नहीं घिसेंगे तो धातु काली हो जाएगी। वैसे ही यदि हम इनका प्रतिकार नहीं करेंगे तो ये दुष्ट प्रवृत्तियां बढ़ जायेंगी। इससे अच्छे लोगों का जीना कठिन हो जायेगा। इसलिए हम सभी को लड़ना तो पड़ेगा ही। अपने काम, घर, परिवार से कुछ समय निकाल कर, जैसी अपने परिवार की जिम्मेदारियां हैं, वैसी ही समाज के प्रति भी हमारा दायित्व है, यह सोचकर, हमें समाज हित में काम जरूर करना चाहिए। समाज व्यवस्थित रहेगा तभी हमारा कुटुम्ब सुरक्षित रहेगा और कुटुम्ब रहेगा तो हम रहेंगे। समाज की सेवा तन-मन-धन से हम सभी को करनी चाहिए।
आज भारत युवा देश है। भारत का युवा कितना जागरूक है और उसे अपनी जिम्मेदारियों का कितना एहसास है?
दुनिया में एकमात्र भारतीय कुटुम्ब परम्परा ही सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। यह कुटुम्ब व्यवस्था अच्छी तरह से रहनी ही चाहिए। इतना बड़े समाज और जनसंख्या वाले देश में कुटुम्ब व्यवस्था ही सबसे छोटी लेकिन मजबूत इकाई है। कम्प्यूटर के आधुनिक युग में तकनीक का सदुपयोग किया जाना चाहिए लेकिन आज के युवा सोशल मीडिया के चलते गुमराह हो गए हैं और वह व्हाट्सअप, इन्स्टा, यूट्यूब, फेसबुक, डेटिंग एप आदि सोशल मीडिया के कारण अपनों से (परिवार) दूर होते जा रहे हैं। कुटुम्ब हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए क्योंकि कुटुम्ब व्यवस्था सभी प्रकार के संस्कारों का केंद्र है। माता-पिता, भाई-बहन, दादा-दादी, उनके जो रिलेशन है वो संस्कार के सबसे अच्छे आयाम हो सकते हैं। सर्विस करने के लिए युवा 8 से 12 घंटे घर से बाहर रहते हैं, अपने शहर से भी बाहर रहते हैं। वे अपनों से दूर होते हैं अत: उनके बिगड़ने की सम्भावना अधिक होती है।
युवा शक्ति को संस्कारित करने के लिए हमें क्या करना चाहिए?
युवा एक उर्जावान शक्ति है। उन्हें सही दिशा देने की आवश्यकता है। यदि उन्हें अध्यात्म से जोड़ कर कला-गुणों का विकास और उसे आत्मसात करने की प्रेरणा दी जाए तो वह काबिल बन सकते हैं और आनंदित रह सकते हैं। हम जैसा आचरण करेंगे, जैसा हमारा चरित्र रहेगा उसे ही देखकर बच्चे हमारा अनुसरण करते हैं। हमें आदर्श बनना होगा जिसे देखकर लोग हमारा अनुसरण करें। हमें बचपन से ही बच्चों को अच्छे संस्कार देने चाहिए, उनके साथ अच्छा समय बिताना चाहिए। हमारी ज्ञान परम्परा की विरासत को संजोना चाहिए और सही रूप में आनेवाली पीढ़ी को सौंपना चाहिए।
आप अपने जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि किसे मानते हैं?
रोज सुबह उठकर काम करना और यह विश्वास रखना कि भगवान आपके साथ है। जो भी हम काम करते हैं, घर पर जाते हैं, यात्रा करते हैं, उसमें जो आनंद और शांति की अनुभूति मैं लेता हूं, वह परमानंद है। जो भी मेरी इच्छा होती है वह पूरी हो जाती है। जैसे हमें प़ेड-पौधे लगाने का मन किया, तो हमने जमीन लेकर बड़े स्तर पर वृक्षारोपण किया, हालांकि बिजनेस के रूप में ही सही पर उसका भी आनंद मिल रहा है। भगवान इस तरह हमारी सभी मनोकामनाएं पूरी कर देते हैं। हमें लगता है कि हर काम में हमें आनंद की अनुभूति होनी चाहिए और आध्यात्मिक उन्नति भी होनी चाहिए। मेरे लिए तो बड़ी उपलब्धि यह हो गई कि मुझे गुरु की प्राप्ति हो गई, जिसने मेरा पूरा जीवन और जीवन को देखने का मेरा दृष्टिकोण बदल दिया।
क्या भारत में रामराज्य आएगा?
जैसा कि हम कहते है कि रामराज्य आना चाहिए, उसकी एक झलक दिखाई दे रही है। भारत को स्वतंत्र हुए 75 वर्ष हो गए हैं। आज देश के प्रधान मंत्री पद पर नरेंद्र मोदी जैसे सुयोग्य व्क्ति हैं। संघ के विविध संगठन सामाजिक, राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत ही अच्छे कार्य कर रहे हैं। जिसे देखकर लगता है कि देश में सकारात्मक उर्जा शक्ति का निर्माण हो रहा है। देश की अर्थव्यवस्था भी प्रगति की राह पर अग्रसर है, यह एक अच्छा संकेत है। समाज जब अच्छा हो जायेगा तो रामराज्य भी आ जाएगा। आध्यात्मिक शक्ति के बल पर ही रामराज्य आ सकता है ऐसा मुझे लगता है। मुझे इस बात की बहुत ख़ुशी है कि व्यक्तिगत एवं पारिवारिक प्रगति के साथ ही समाज और राष्ट्र की भी प्रगति हो रही है।
साधना से आत्मोत्कर्ष किस तरह से संभव है?
जैसा कि मैंने बताया मेरा व्यवसाय ही मेरी साधना है। आप जिस क्षेत्र में भी कार्यरत हैं, कला का आविष्कार करते हैं, जो भी कार्य कर रहे हैं यदि उसे आप भगवान को समर्पित कर देंगे, तो आपका प्रत्येक कर्म साधना हो सकती है। अपना जो काम है उसमे 1% भी गलती नहीं होनी चाहिए। उसमें और अच्छा मैं क्या कर सकता हूं, यह विचार हमें करना चाहिए। स्थूल से सूक्ष्म की ओर हमें जाना चाहिए, यह अध्यात्म का पहला चरण है। साधना करने से आपकी आंतरिक शक्ति जाग्रत हो जाती हैै। इसलिए आपको ब्रह्मांड से जुडाव समझ में आने लगता है। हम सब एक ही शक्ति परम तत्व से जुड़े हुए है। काम करते-करते यदि थोडा समय हम निकालेंगे, भगवान का ध्यान करते रहेंगे तो हर काम में आपको यश मिलेगा। इस बात का हमेशा ध्यान रहे कि त्याग करने से आपको सुख मिलता है। देने से ही आपको कुछ मिलेगा। नहीं देंगे तो नहीं मिलेगा। रोज हमें त्याग करना चाहिए, मंदिर में जाना चाहिए। हफ्ते-महीने में एक बार दान धर्म करना चाहिए। धर्म का जहां पर संस्मरण होता है, धर्म का प्रसार करनेवाली जो संस्थाएं जैसे विश्व हिंदू परिषद् है, वनवासी कल्याण आश्रम है, आरएसएस है या सनातन संस्था है, इस्कोन है, गीता का संदेश देने वाले लोग हैं, उनको हम दान धर्म करेंगे तो 10 गुणा अधिक भगवान हमें देता है। समाज भी हमें तभी स्वीकार करता है जब हम देनेवाले बनते है। जब हम प्रेम देते है तो हमें भी 10 गुना अधिक प्रेम मिलता है। काम करते-करते भगवान का स्मरण रखते हैं तो बहुत अच्छी बात है लेकिन तब अवसर नहीं मिले तो सुबह और शाम या रात को भगवान को स्मरण जरूर करना चाहिए, थोडा समय निकालेंगे और भगवान का ध्यान करेंगे तो आत्मोन्नति आसानी से संभव है। जब हम नियमित रूप से ईश्वर का ध्यान, स्मरण, चिंतन करने लगते हैं, तो सकारात्मक अनुभूति हमें होने लगती है।