“हम सब भारत माता के सुत आपस में भाई-भाई
भ्रम, अज्ञान, स्वार्थ के कारण भेदभाव की यह खाई”
जातिगत एक ऐसा विषय है जो वर्तमान भारत में सामाजिक न्याय और राष्ट्रीय एकता-एकात्मता दोनों से सीधे जुड़ा हुआ है। (भारत विखण्डन- राजीव मल्होत्रा)
जब यह विषय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के दृष्टिकोण से देखा जाता है तो वह इसे ना तो पूरी तरह नकारता है और ना ही आंख मूंदकर समर्थन करता है। संघ का मत सूक्ष्म, सन्तुलित और दूरदर्शी विवेक पर आधारित है। जिसमें समाज की सच्चाई को स्वीकारते हुए भारतीय अलगाव और विखंडन से बचने की चेतना भी निहित है।
1. मूल विचार: उद्देश्य से मूल्यांकन, न कि प्रक्रिया से
संघ का दृष्टिकोण स्पष्ट है, यदि जातिगत जनगणना का उद्देश्य न्याय और कल्याण है, तो समर्थन योग्य है।
यदि इसका उद्देश्य राजनीति और समाज को बांटना है तो उसका सदैव ही विरोध।
यह दृष्टिकोण न तो भावुक है, न ही राजनीतिक, यह सामाजिक यथार्थ और सांस्कृतिक समरसता के संतुलन की समझ से युक्त है।
2. “न्याय और कल्याण” का उपकरण — समर्थन क्यों?
(क) कल्याणकारी योजनाओं की सटीकता के लिए आंकड़े अनिवार्य हैं, वो सरकार जुटाती ही है।
जुगाड़ के साथ बिना उचित डेटा के सरकारों की योजनाएं अक्सर अनुचित वर्ग को लाभ पहुंचाती हैं और वंचित वर्ग वंचित ही रह जाता है।
OBC वर्ग के भीतर कौन-कौन सी जातियाँ पीछे हैं? किसे बार-बार लाभ मिला, और किसे नहीं, इसका मूल्यांकन तभी होगा जब आंकड़े हों। Cripto Christian सूची और D-Listing के अनन्य प्रयासों पर काम हो रहा है।
(ख) पारदर्शिता और सामाजिक विश्वास की नींव
जब समाज के सामने यह स्पष्ट होगा कि “कौन कितना पीछे है और कौन कितना आगे जा चुका है”, तब सामाजिक तनाव नहीं, संतुलन बनता है। Creami layer…
(ग) सुधार की पूर्व शर्त ‘वास्तविकता की स्वीकार्यता’
समाज सुधार, समरसता और नीति निर्माण तथ्य के आधार पर ही संभव है, कल्पना या भावनाओं के आधार पर नहीं। समाजप्रति आत्मीयता कि जागरण, संवेदनशीलता निर्माण से उत्पन्न मति…
3. “राजनीति और अलगाव” का औजार, विरोध क्यों?
(क) आंकड़े अगर वोटबैंक की राजनीति के लिए उपयोग हो रहे हैं।
यदि जाति गणना का उद्देश्य केवल यह तय करना है कि “किसे कितना सत्ता में हिस्सा देना है” — तो यह समाज को जोड़ने की नहीं, बाँटने की राजनीति है। इसलिये इसका विरोध भी रहा है।
इससे समाज “हमें कितना मिला बनाम उन्हें कितना मिला” में उलझ जाएगा, जो सनातन समरसता के विपरीत है। इस स्वार्थ गणना से बचना है, उसके साथ भरोसा पक्का भी करना है। ईमानदारी से प्रयास हो रहा है तो साथ देना भी है। अविवेकपूर्ण, हठधर्मिता से विरोध करना समाधान नहीं।
(ख) जातीय संघर्ष और हिंसा की आशंका
जैसे मणिपुर या बिहार में “जाति आधारित आरक्षण बनाम प्रतिनिधित्व” की बहस ने, विघटनकारी तत्वों ने सामाजिक तनाव और हिंसा को जन्म दिया, वैसी स्थिति देशभर में खड़ी नहीं होनी चाहिए। इसलिये संशयात्मक मन और बुद्धि तो नकारात्मक विषयों को ही आगे बढ़ाती है।
संघ जानता है कि यदि राजनीतिक दल जाति को हथियार बनाएंगे, तो भारत के सामाजिक तानेबाने को नुकसान होगा।
(ग) हिंदू समाज की एकता को खतरा: जातिगत पहचान को केंद्र में लाकर हिंदू समाज को खंडित करना, अंततः राष्ट्रविरोधी ताकतों को बल देना है।
4. संघ का दृष्टिकोण: यथार्थवाद और समरसता का संतुलन
RSS का मत न तो जातिगत वाद के अंधविरोध में है, न ही जातिगत विशेषाधिकार के अंधसमर्थन में।
संघ मानता है कि जातिगत असमानता एक सामाजिक सच्चाई है, लेकिन उसका समाधान राजनीतिक सौदेबाज़ी नहीं, समरस सामाजिक संरचना है।
संघ के सूत्रबिंदु: यथार्थ को नकारना समाधान नहीं है।
सत्य को स्वीकार कर, न्याय का मार्ग अपनाना चाहिए।
लेकिन वह न्याय ऐसा हो जो संपूर्ण समाज में संतुलन और एकता को बढ़ाए, न कि विभाजन को।
5. जातिगत जनगणना वह चाकू है जिससे रोटी भी काटी जा सकती है और नस भी। यह इस पर निर्भर करता है कि हाथ किसका है और उद्देश्य क्या है…
RSS का समर्थन तभी है जब उद्देश्य “सच्चे वंचित को न्याय” हो और विरोध तब जब लक्ष्य “सत्ता में जातीय सौदेबाज़ी” हो।
संघ का दृष्टिकोण यही सिखाता है: “जाति का अंत आंकड़ों से नहीं, आत्मीयता से होगा, लेकिन आंकड़ों के बिना न तो नीति बनेगी, न न्याय मिलेगा।”
इसलिए ज़रूरत है ईमानदार मंशा, संतुलित नेतृत्व और सांस्कृतिक चेतना की, तभी जातिगत जनगणना समरसता का माध्यम बनेगी, विखंडन का कारण नहीं। अन्यथा अभारतीय दृष्टिकोण और अराष्ट्रीय सोच से ग्रसित मानसिकता तो देश में उलट- पुलट करने में ही सत्ता की वापसी देख रही है। उनको देश की प्रगति और स्थिरता असहनीय है।
“समाज है आराध्य हमारा, सेवा है आराधना’’
– कैलाशचंद्र जी