पहलगाम आतंकवादी हमले और आतंकवाद के विरुद्ध निर्णायक कार्रवाई और तैयारियों के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मंत्रिमंडल द्वारा जनगणना के साथ जाति जनगणना कराने के निर्णय ने राष्ट्रीय विमर्श को कुछ समय के लिए एक सीमा तक दूसरा मोड़ भी दिया है। हमारे देश में गंभीर दूरगामी परिणाम वाले विषयों के भी राजनीतिक दुरुपयोग करने की ऐसी घातक प्रवृत्ति है जिसमें वास्तविक मुद्दे ओझल हो जाते हैं। भारत की एकता-अखंडता, सामाजिक सद्भाव आदि की दृष्टि से जाति जनगणना ऐसा कदम है जिसके सदुपयोग – दुरुपयोग दोनों की संभावनाएं हैं और उनके खतरे भी बड़े हैं। बावजूद राजनीति होगी और हो रही है। 1977 में मंडल आयोग का गठन, उसकी रिपोर्ट और राष्ट्रीय स्तर पर 1990 में लागू किए जाने के पीछे भी राजनीति थी। इससे शुरू सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक उथल-पुथल का दौर पूरी तरह कभी स्थिर नहीं हुआ क्योंकि इसे वास्तविक सामाजिक न्याय का ईमानदार-जिम्मेदार अंग बनाने की बजाय मंडलवादी नेताओं की अदूरदर्शिता और संकुचित सोच के कारण इसका घटक दुरूपयोग हुआ। पूरे देश की राजनीतिक और सत्ता संरचना के वर्णक्रम में आमूल बदलाव आया पर अदूरदर्शी, बेईमान और नासमझ नेताओं और उनके परिवारों के हाथों कई राज्यों की राजनीति केंद्रित होने के कारण देश को ऐसा नुकसान भी उठाना पड़ा, जिसकी भरपाई संभव नहीं हो पा रही।
कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी पार्टियां इसे अपनी विजय बता सकती है क्योंकि पिछले तीन-साढे तीन वर्षों से ये इसकी आवाज उठा रहे थे। 2024 लोकसभा चुनाव में जाति जनगणना को एक बड़ा मुद्दा बनाया गया। यह भी सच है कि राहुल गांधी जाति जनगणना के साथ संपत्ति सर्वे से लेकर संख्या के आधार पर संसाधनों के बंटवारे जैसे अतिवादी वायदे कर रहे थे। भाजपा का पहला स्टैंड था कि यह व्यावहारिक नहीं है और एक याचिका पर उच्चतम न्यायालय में सरकार ने यही शपथ पत्र दिया था। दूसरी ओर किसी भी मंत्री या नेता ने जाति जनगणना का नाम लेकर विरोध नहीं किया। पिछले वर्ष के उत्तरार्ध से भाजपा सरकार की ओर से जाति जनगणना करने का संकेत मिलने लगा। जब सरकार की ओर से आगामी जनगणना की बात आई तो गृह मंत्री अमित शाह ने पिछले वर्ष अगस्त में एक प्रश्न के उत्तर में कहा था कि समय आने पर इसका निर्णय होगा। मैंने 30 अगस्त को नवभारत टाइम्स में प्रकाशित अपने लेख में कहा था कि सरकार ने जनगणना के साथ जाति जनगणना का मन बना लिया है तो इसके राजनीतिक दुरुपयोग से बचने की कामना करनी चाहिए।
भारत में शुद्ध मुसलमान में भी जाति व्यवस्था कायम है और उनकी गणना होगी। विपक्ष और आम भाजपा विरोधी इस पर कैसी प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे यह भी देखना होगा। गणना सभी की होनी है तो उसमें मुस्लिम जातियों की भी होनी ही चाहिए। देश को पता चलना चाहिए कि जाति विहीन मजहब का भारतीय सच क्या है।
जाति गणना से संबंधित कुछ बातें अवश्य ध्यान रखनी चाहिए। 2011 की जनगणना के समय भी जाति जनगणना की जबरदस्त मांग उठी थी और संसद का रिकॉर्ड देखें तो भाजपा भी सरकार से इसकी मांग कर रही थी। यूपीए सरकार ने इसे संविधान के तहत जनगणना आयुक्त के अधीन मान्य तरीके से कराने की जगह ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षण के रूप में कराया तो उसके भी निहितार्थ थे। नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा रिपोर्ट जारी करने की घोषणा की, पूरा परिश्रम करने के बावजूद नहीं कर सकी क्योंकि पूरी रिपोर्ट त्रुटियों से भरी थी। लगभग 46 लाख जातियां और गोत्र आ गए थे। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल ने अनुसूचित जाति – जनजाति को छोड़कर अन्य जातियों की गणना नहीं करने का निर्णय लिया तो सोच यही थी कि अंग्रेज जाति भेद उभार कर भारत में अपनी सत्ता बनाये रखने के लक्ष्य से ऐसा कर रहे थे, जिससे बचना है। यह सच है कि एक समय सामाजिक दृष्टि से गहरे अन्वेषण और व्यावहारिकता से निर्मित सशक्त जाति व्यवस्था भारत के स्वावलंबी और आदर्श देश का कारण था तो कालांतर में जाति भेद, ऊंच-नीच और छुआछूत ने देश को जबरदस्त नुकसान पहुंचाया। क्या जाति गणना ऊंच-नीच और भेदभाव से मुक्ति का कारण बन सकता है?
ध्यान रखिए अंग्रेजों ने 1853 में नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविंस में पहली जनगणना कराई और उसके बाद जातिवार गणना का विचार किया। तब सेंसेक्स एडमिनिस्ट्रेटर एच.एच. रिजले की अगुवाई में विचार हुआ और किसे किस जाति का मान जाए इसके लिए वर्ण व्यवस्था और पेशे के अनुसार जाति समूह बनाए गए। बावजूद 1901 में पहली जनगणना हुई, लेकिन अंग्रेजों की दृष्टि से भी जाति पूर्ण जनगणना केवल 1931 में संभव हो सका। दरअसल भारत की जाति व्यवस्था को समझना अंग्रेजों के वश की बात नहीं थी। 1901 में 1646 जातियां थी तो 1931 की जनगणना में 4147 और 2011 में करीब 46 लाख। 1980 के मंडल आयोग रिपोर्ट में भी 3428 अन्य पिछड़ी जातियां की सूची थी। एक ही जाति श्रेणी के अलग-अलग राज्य के साथ एक ही राज्य में अलग-अलग नाम और गोत्र है। इसलिए शत-प्रतिशत मान्य और सुसंबद्ध जातिगत आंकड़ा देना गणना के बावजूद अत्यंत कठिन होगा। एक उदाहरण देखिए। 1931 में महाराष्ट्र में अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग में आने वाली जातियों की संख्या 494 थी, जबकि 2011 की गणना में यह संख्या 4 लाख 28 हजार 677 पाई गई।
इससे कल्पना की जा सकती है की जाति की गणना और फिर संपूर्ण स्पष्ट रिपोर्ट ले आना आसान नहीं होगा। मोदी सरकार ने 2011 की गणना पर गहराई से काम किया इसलिए उसे इसका अनुभव है। मूल बात इस गणना के उद्देश्य की है। जब अधिसूचना जारी होगी तो पता चलेगा कि सरकार क्या उद्देश्य घोषित करती है। साफ है कि जाति जनगणना के पीछे दूरगामी सोच, भविष्य में उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रियाओं को संभालने की तैयारी और उसके सदुपयोग की आधारभूमि होनी चाहिए। अभी तक नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा जाति, आरक्षण और अन्य मुद्दों पर दिखाई गई गंभीरता से उम्मीद की जा सकती है कि सत्ता की राजनीति करते हुए भी इसका हस्र वैसा नहीं होगा जैसा मंडल और उसके नाम पर निकले नेताओं ने आरक्षण का किया। जाति जनगणना पर निर्णय के एक दिन पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पू. सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत की प्रधानमंत्री से लंबी मुलाकात हुई। इसमें जाति गणना की रुपरेखा और इससे उत्पन्न भविष्य की परिस्थितियों पर भी विस्तृत बातचीत हुई होगी। पिछले वर्ष 2 सितंबर को पलक्कड में आयोजित समन्वय बैठक में संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील अंबेकर ने कहा था कि समाज के वंचित वर्ग के कल्याण के लिए जाति आंकड़े इकट्ठे करने में समस्या नहीं है, लेकिन यह गंभीर मुद्दा है, राष्ट्र की एकता और अखंडता से जुड़ा है, इसलिए इसका राजनीतिक दुरुपयोग नहीं हो बल्कि उपयोग जन कल्याण के लिए हो। तो विपक्ष जो आरोप लगाये संघ को व्यापक उद्देश्य से जाति गणना करने में समस्या नहीं रही है। संघ ने अपना मंतव्य सरकार के सामने स्पष्ट किया होगा। संघ का उद्देश्य हिंदू समाज के अंदर उसके स्व का भाव घनीभूत करते हुए भेदभाव समाप्त कर पूर्ण एकता स्थापित करना है।
भेदभाव पूर्ण जाति व्यवस्था भारत का मूल नहीं बल्कि कालांतर में विकृत होता गया भयानक सच है। हिंदू समाज को विभाजित कर देश को कमजोर करने के लिए अनेक शक्तियां अंदर और बाहर सक्रिय हैं और जाति गणना की उग्र मांग के पीछे प्रत्यक्ष परोक्ष उनकी भूमिका भी है। जिस तरह राहुल गांधी या अखिलेश यादव सभाओं में पत्रकारों तक की जाति पूछते हुए डराते और शर्मशार करते देखे गए हैं वो भयभीत करने वाला है। यह समाज के वास्तविक वंचितों और पिछड़ों के कल्याण द्वारा जाति भेद समाप्त कर समता पर आधारित समाज निर्मित करने और देश की एकता अखंडता को सशक्त करने की भूमिका तो नहीं हो सकती। सरकार, भाजपा, संघ तथा सामाजिक-सांस्कृतिक पुनर्जागरण में लगे दूसरे संगठनों को संपूर्ण परिस्थितियों की समझ है। इसलिए उम्मीद करनी चाहिए कि जाति के आंकड़े नए सिरे से विभाजन और जातीय विद्वेष, ईर्ष्या, घृणा उभारने का कारण नहीं बनेगा। जनगणना के बारे में जितनी जानकारी है उसके अनुसार यह 1951 से अब तक की सबसे विस्तृत, व्यापक और समग्र गणना होगी जिसमें जाति गिनना एक भाग होगा। इसमें संभवत: एक-एक परिवार के संपूर्ण आर्थिक, वित्तीय जिसमें संपत्ति, कर्ज, वाहन, पेशा, शिक्षा आदि की संपूर्ण जानकारी सामने आ सकती है।
-अवधेश कुमार