अठारहवीं सदी के दूसरे दशक तक आते-आते मुस्लिम साम्राज्य भारत के भीतर ध्वस्त और विघटित हो गया था।
इस्लाम के पतन और पराभव की इस सदी में उसके भीतर से पुनरुत्थानवाद की जो लहर चली तथा इस लहर उन्माद को जेहादी स्वरूप देने के लिए अठारहवीं, उन्नीसवीं सदी के बीच जो पांच इस्लामिक व्यक्तित्व उभरकर आए, जिन्होंने इस्लाम मजहब को कुरानिक प्रतिज्ञा और उसके फंडामेंटल चरित्र से लैस किया,
उन पांचों व्यक्तित्वों के नाम थे –
1) शाह वली उल्लाह (1703 – 1762)
2) सैयद अहमद बरेलवी (1786 – 1831)
3) शरीयतुल्लाह (1790 – 1831)
4) सर सैय्यद अहमद खान (1817 – 1898)
5) सर मुहम्मद इकबाल (1876 – 1938)
इन पांचों में से कोई किसी से कम न था।
लेकिन सबसे पहले हम सबको जानना चाहिए अठारहवीं सदी के सबसे भयानक, खौफनाक और तिकड़मी शाह वली उल्लाह के बारे में।
शाह वली उल्लाह के बारे में रोचक और डरावना तथ्य यह जानिए कि उसका बैकग्राउंड, उसके जीवन की गतिविधियां और इस्लाम मजहब के लिए जीवन पर्यन्त किए गए उसके काम किसी बर्बर नरपिशाच से कहीं ज्यादा खौफनाक और विनाशकारी थे काफिर समुदाय के लिए।
उसका पिता और वह स्वयं सूफी तबके से आता था।
जिन्हें भी सूफीवाद (सूफिज्म) के वास्तविक उद्देश्य, असली चेहरे और कारनामों पर कोई भ्रम या संशय हो, उन्हें इस शाह वलीउल्लाह के जीवन और कार्यों को ठीक से जानना समझना चाहिए।
शाह वली उल्लाह का पिता शाह अब्दुर रहमान अपने समय का प्रसिद्ध सूफी था तथा उसे औरंगजेब ने भारत में दारुल इस्लाम को स्थापित करवाने के उद्देश्य से मुस्लिम कानूनों को संहिताबद्ध करने हेतु इस्लामी विधिवेत्ता के रूप में राज्य में तैनात किया था।
इस सूफी ने औरंगजेब के आदेश से अरबी भाषा में इस्लामी कानूनों और शरीयत के फतवों का संकलन “फतवा ए आलमगीरी” नाम से करवाया था।
इसने अपने पुत्र शाह वली उल्लाह को सूफिज्म और इस्लामी ग्रंथों की मदरसा शिक्षा में विधिवत पारंगत किया था, लेकिन बेटा अपने बाप से हजार कदम आगे का मुल्ला था।
सूफिज्म के भीतर वलीउल्लाह ने रूमी, अत्तार और हाफिज को पढ़ने के बाद इन उदार सूफियों के सिद्धांतों और उपदेशों से गहरी नफरत प्रकट की तथा उसका झुकाव कट्टर इस्लाम और कुरान, हदीस तथा सुन्नत के मूलभूत सिद्धांतों की ओर गया।
उसने सुल्तान महमूद गजनी को अपना हीरो घोषित किया तथा उसके व्यक्तित्व से खुद भी निरन्तर प्रेरणा ग्रहण की।
सीताराम गोयल जी अपनी पुस्तक “Muslim separatism, causes and consequences” में महमूद गजनी के प्रति शाह वली अल्लाह की आसक्ति के बारे में लिखते हैं :
(“According to the shah, Mahmud was the greatest figure in the history of islam after the first four caliphs. He accused the historians of Islam of failing to recognise the fact that Mahmud’s horoscope had been identical with that of the Prophet, and that Mahmud had won as many and as significant victories in jihad as the Prophet himself.”)
उसने सूफीवाद का चोला आजीवन ओढ़े रखा लेकिन पूरे जीवन उसने जिहाद तथा काफिरों के मतांतरण, नरसंहार और हिन्दू तबके के भीतर उच्च वर्ग के धर्मांतरण को राजकीय मशीनरी के माध्यम से प्रोत्साहित कराया। मतांतरण या धर्मांतरण के मुद्दे पर अन्य इस्लामी मुल्लाओं के बजाए शाह वलीउल्लाह बहुत ही भिन्न विचार रखता था। उसका मानना था कि काफिरों के समुदाय में से उनके प्रबुद्ध या नेतृत्वकर्ता वर्ग का धर्मांतरण करा लेने से हिन्दू समाज के अन्य तबके मनोवैज्ञानिक रूप से ऐसे ही इस्लाम की श्रेष्ठता स्वीकार कर लेंगे तथा इससे हिन्दू समाज के भीतर उनका सशक्त प्रतिरोधक समूह क्षीण व दुर्बल हो जायेगा तथा इस्लाम की धज आगे बढ़ती जाएगी।
इस धूर्त सूफी ने हिन्दू समाज के उच्च तबके के बलात धर्मांतरण के साथ-साथ हिन्दू समाज के निचली जातियों को उनकी कमजोर और दरिद्र स्थिति में बने देने रहने की वकालत की तथा उनसे जजिया लिए जाने के लिए मुगल राज्य और क्षेत्रीय मुस्लिम राज्यों को उकसाया। साथ ही हिन्दू समाज के इस निम्न तबके को खेती-किसानी और शिल्प कर्म में लगे रहने देने के लिए भी उसने शासकों को प्रोत्साहित किया ताकि इनसे जजिया लेकर इस्लामी राज्य को मजबूत आर्थिक संसाधन से समृद्ध रखने में दिक्कत न आए।
इस्लाम के प्रोफेट के संदेशों और कुरानिक आयतों को देश भर में व्यवहृत करवाने के लिए इस सूफी जेहादी ने अरबी भाषा में अपना सुप्रसिद्ध ग्रंथ “हुज्जत-अल्लाह अल-बलीघा” लिखा, जिसमें उसने बहुत स्पष्ट तरीका से प्रतिपादित किया कि किसी भी देश में शरीयत को उत्कृष्ट ढंग से क्रियान्वित करने की सर्वोच्च कसौटी यह होगी कि वहां पर इस्लाम के सैनिकों और मजहबी अवाम द्वारा जेहाद का प्रदर्शन किस स्तर का किया जाता है।
इसने इस पुस्तक में रेखांकित किया कि काफिरों या मूर्तिपूजको में से जो इस्लाम को अस्वीकार करने की धृष्टता दर्शाए, उसका सिर धड़ से कलम कर दिया जाए।
इस धूर्त सूफी ने 1731 में मक्का और मदीना की यात्रा रमजान के महीने में की तथा वहां प्रोफेट मोहम्मद के जन्मस्थान, कर्मस्थली से जुड़े एक-एक गली कूचे का भ्रमण किया।
इस्लाम मजहब के तमाम जानकारों और दर्जनों सूफी विशेषज्ञों के साथ इस दौरान इसने संवाद और गहन विमर्श किया तथा इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि हजारों साल से काफिर देश भारत में हमारे मुल्ले गांव-गांव में इस्लाम का संदेश दे रहे हैं लेकिन अभी उसका वाजिब परिणाम इस्लाम के पक्ष में आया नहीं है। इस्लाम के मूलभूत उद्देश्यों या कहिए आसमानी पुस्तक के आदेशों और शरीयत के राज्य को जमीनी आकार देने के लिए इस जेहादी ने 1732 ईस्वी से लेकर अपनी मृत्यु की नारकीय यात्रा पूरी करने के समय तक अर्थात पूरे 30 वर्ष तक उसने 1000 उन इस्लामी विधि विशेषज्ञों के कथनों का संकलन किया, जिन्होंने मुहम्मद बिन कासिम के समय से लेकर उसके खुद के समय तक इस्लामी कानूनों, शरीयत और कुरानिक व्याख्याओं पर कार्य किया था।
इसी दौरान उसने 43 से अधिक पुस्तकें लिखी तथा अपने समकालीन सुलतानों और मजहबी गुरुओं को 1000 चिट्ठियां लिखी।
इन चिट्ठियों में उसने अफगानिस्तान के शासक अहमद शाह अब्दाली जिसे वह भारत में “डूबते हुए इस्लाम का एकमात्र उद्धारक” कहता था, से निवेदन किया था कि काफिरों को मारकर वह हिंदुस्तान में इस्लाम की विजय पताका पुनः स्थापित कराए।
साथ ही इन सभी चिट्ठियों के माध्यम से उसने इस्लामी देशों के सुलतानों और वहां के कठमुल्लो से अपील की थी कि उन सबको अपने यहां काफिरों का धर्मांतरण करना चाहिए, हिंदुओं को अपमानित करना चाहिए तथा हिन्दुस्तान में किसी भी दशा में कुरान द्वारा निर्देशित पवित्र राजाज्ञा के अनुसार इस्लामिक स्टेट बनाए रखना चाहिए।
कुल मिलाकर इस जेहादी के जीवन का पूर्ण संदेश इतना भर ही था : “मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक।”
लेकिन इस कहावत में निहित व्यंग्यार्थ से मुस्लिम जमात को क्या मतलब ?
सारे इस्लामी विद्वान और इस्लामी जमात के इतिहासकार इस सूफी जेहादी को इस्लाम का सच्चा व्याख्याकार बतलाते हैं तथा उसे अपने कौम का मसीहा मानते हैं।
यही नहीं इस्लामी इतिहासकार प्रोफेसर अजीज अहमद तो लिखते हैं कि – “शाह वली अल्लाह ने भारत में मध्यकालीन और आधुनिक इस्लाम के बीच एक सेतु का निर्माण किया।” (जबकि कोई इस प्रोफेसर से पूछता कि बे तुम्हारे इस्लाम में मध्यकालीन इस्लाम का मतलब तो समझ में आता है, क्योंकि इस्लाम का उद्भव और विकास ही इसी कालखंड में हुआ था। लेकिन ‘आधुनिक’ जैसी चीज थी ही क्या, जब इस्लाम के भीतर उसी तौर तरीकों पर चलने के लिए दीनी, मोमिन और जेहादी लोग सदैव प्रयत्नशील रहे हैं और करोड़ों करोड़ जनता के दिमाग और विवेक को आज तक जड़ बना दिया गया है।
इस्लाम तो आज तक अपने को 1400 वर्ष पुराने उसी रूप में रखने की जिद पाले चला आ रहा है।) सभी मुस्लिम विद्वान इस सूफी जेहादी को एक स्वर में भारतवर्ष के भीतर “18 वीं सदी में इस्लाम के पुनरुत्थानकर्ता के रूप में” स्वीकार करते हैं। फिलहाल इस पोस्ट में अभी इस सूफी के कारनामे ही जानिए आप सब।
शेष चारों के बारे में क्रमशः अलग अलग पोस्टों में बतलाया जाएगा।
(शाह वली उल्लाह के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए सैयद अतहर अब्बास रिजवी की कृति “Shah Wali-Allah and His Times, Canberra, 1980 पुस्तक पढ़ सकते हैं आप सब।)