रूस-यूक्रेन युद्ध के हालिया घटनाक्रमों ने यह बात और स्पष्ट कर दी है कि आज की रक्षा नीति केवल सीमाओं पर सेना की तैनाती तक सीमित नहीं रह गई है। अब युद्ध का स्वरूप बदल गया है — वह विचारधारा, जनसंख्या संरचना (डैमोग्राफी), आंतरिक अस्थिरता और सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभावों से भी जुड़ चुका है।
भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश के लिए यह आवश्यक हो गया है कि वह अपने अत्यावश्यक रक्षा ढांचे (सामरिक अधोसंरचना) के आसपास की जनसांख्यिकीय (डैमोग्राफिक) स्थिति को केवल सामाजिक विषय न मानकर, राष्ट्रीय सुरक्षा के व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखे।
जनसांख्यिकीय स्थिति: सुरक्षा की अनदेखी परत
भारत के कई प्रमुख वायुसेना अड्डे, सैन्य डिपो, संचार केंद्र और रडार स्थल ऐसे स्थानों पर स्थित हैं, जहाँ पिछले वर्षों में तीव्र गति से बस्तियाँ विकसित हुई हैं। इनमें से अनेक बस्तियाँ अनियंत्रित और अनधिकृत रूप से फैली हैं, जिनमें बाहरी विचारधारा या राष्ट्रविरोधी प्रभाव भी उपस्थित हो सकता है।
यह केवल कानून और व्यवस्था का विषय नहीं है, बल्कि यह रक्षा क्षेत्रों की सुरक्षा बनाए रखने और नागरिकों तथा सेना के बीच संतुलन की शुद्धता से भी जुड़ा हुआ है।
नई सुरक्षा नीति की आवश्यकता
अब भारत को एक ऐसी बहुस्तरीय सुरक्षा नीति की ओर बढ़ना होगा जो केवल सीमा की रक्षा न करे, बल्कि भीतर के संवेदनशील क्षेत्रों की सामाजिक संरचना को भी ध्यान में रखे।
महत्त्वपूर्ण उपाय इस प्रकार हो सकते हैं –
1. परिधि क्षेत्र का जनसांख्यिकीय मानचित्रण:
रक्षा प्रतिष्ठानों के ५ से १० किलोमीटर के दायरे में बसे लोगों की सामाजिक, सांस्कृतिक और वैचारिक पृष्ठभूमि का अध्ययन किया जाए। इससे यह स्पष्ट होगा कि वहाँ किस प्रकार की जनसंख्या रह रही है और क्या वह क्षेत्र रणनीतिक रूप से सुरक्षित है।
2. जनजागरण और वैचारिक स्थिरता के अभियान:
बाहरी विचारधारा के प्रभाव को रोकने के लिए मनोवैज्ञानिक अभियान चलाए जाएँ, जिनमें राष्ट्रभक्ति, संवैधानिक मूल्यों और सामरिक महत्व के प्रति जागरूकता उत्पन्न की जाए।
3. संदेहास्पद समूहों की निरंतर निगरानी:
उन समुदायों पर विशेष ध्यान दिया जाए जिनमें बाहरी प्रभाव, कट्टरपंथी झुकाव या राष्ट्रविरोधी गतिविधियों की आशंका हो। इसके लिए गुप्तचर एजेंसियों और स्थानीय प्रशासन में समन्वय आवश्यक है।
4. अतिक्रमण पर रोक और नियमन:
रक्षा क्षेत्रों के निकट अनधिकृत बस्तियाँ या व्यावसायिक निर्माण न केवल भूमि अतिक्रमण हैं, बल्कि सुरक्षा के लिए भी बड़ा खतरा बन सकते हैं। ऐसे क्षेत्रों में भूमि उपयोग की स्पष्ट नीति बने और कठोर निगरानी रखी जाए।
रूस से प्राप्त सीख: भीतर की रक्षा भी ज़रूरी है
यूक्रेन द्वारा रूस के भीतर की गई ड्रोन और प्रक्षेपास्त्र हमलों से यह स्पष्ट हुआ कि आधुनिक युद्ध केवल सीमाओं तक सीमित नहीं है। यदि देश के भीतर के सामरिक केंद्र असुरक्षित रहेंगे या उनके चारों ओर अस्थिर जनसांख्यिकीय समूह बसते रहेंगे, तो यह शत्रु को अंदर तक पहुँचने का अवसर देगा।
भारत की वायु रक्षा प्रणाली ने “ऑपरेशन सिंदूर” जैसे अभियानों में अपनी दक्षता सिद्ध की है, किंतु अब समय आ गया है कि हम अपने भीतर की सामाजिक सुरक्षा को भी उतनी ही प्राथमिकता दें।
नीतिगत सुझाव
1. राष्ट्रीय सामरिक सुरक्षा क्षेत्र अधिनियम:
रक्षा प्रतिष्ठानों के चारों ओर नियमन हेतु एक विशेष कानून बनाया जाए, जिसमें भूमि उपयोग, जनसंख्या घनत्व, निर्माण कार्यों आदि पर नियंत्रण हो।
2. राष्ट्रीय निगरानी प्राधिकरण की स्थापना:
गृह मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय, राज्य सरकारों और गुप्तचर अभिकरणों (एजेंसियों) के बीच समन्वय स्थापित करने हेतु एक स्वतंत्र निकाय का गठन किया जाए।
3. नागरिक सुरक्षा आचार संहिता:
रक्षा क्षेत्रों के निकट रहने वाले नागरिकों के लिए पहचान, पंजीकरण और आचरण से संबंधित स्पष्ट दिशा-निर्देश हों।
भारत को अब यह स्वीकार करना होगा कि रक्षा केवल सीमाओं की नहीं, भीतर के अति-संवेदनशील क्षेत्रों की भी होती है। यदि हम अपने अत्यावश्यक रक्षा ढाँचों के चारों ओर की जनसांख्यिकीय वास्तविकताओं की अनदेखी करते हैं, तो हम भविष्य की युद्धनीति को अधूरा ही समझ रहे हैं।
“सुरक्षा केवल हथियारों से नहीं होती, सोच और आसपास के लोगों से भी जुड़ी होती है। जो देश यह बात समय पर समझते हैं, वही आने वाले खतरों से बच पाते हैं।”