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मुर्शिदाबाद के पीछे की सोच

मुर्शिदाबाद के पीछे की सोच

by हिंदी विवेक
in विशेष
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उच्च न्यायालय की तरफ से गठित तथ्य-खोजी समिति की मुर्शिदाबाद हिंसा संबंधी रिपोर्ट किसी को भी डराने के लिए पर्याप्त है। जिन लोगों ने मुर्शिदाबाद में हिंदुओं के विरुद्ध एकपक्षीय हिंसा पर काम किया है उनके लिए यह रिपोर्ट स्वाभाविक है। किंतु अभी तक कानूनी परिभाषा में इसे आरोप की परिधि में रखा गया था। इस रिपोर्ट के बाद सारे आरोपों की पूरी तरह पुष्टि हो गई है।

ध्यान रखिए कि इस रिपोर्ट के पहले पश्चिम बंगाल पुलिस ने भी उच्च न्यायालय में 34 पृष्ठ की रिपोर्ट पेश की थी। कट्टरपंथी मुस्लिम तत्वों की हिंदू विरोधी हिंसा और व्यवहारों को नजर अंदाज करने वाली पुलिस भी इस बार इनके हिंसा की शिकार हो गई थी। उसके बाद उसे लगा कि पानी सर से ऊपर निकल गया है तो उसने भी अपनी रिपोर्ट में स्वीकार किया की भीड़ किस तरह और नियंत्रित होकर हिंसा कर रही थी।

पुलिस रिपोर्ट की कुछ पंक्तियां देखिए- लगभग 4.25 बजे अचानक भीड़ अनियंत्रित हो गई.. पुलिसकर्मियों पर ईंट, पत्थर फेंकने लगी… पुलिस कर्मियों को मारने के इरादे से लाठी, हसुआ, लोहे की छड़ और घातक हथियारों आदि से हमला करना शुरू कर दिया। उपद्रवियों ने एसडीपीओ जंगीपुर की पिस्तौल छीन ली, जिसमें 10 राउंड गोली लोड था। भीड़ ने एसडीपीओ जंगीपुर के एक वाहन और एक हाईवे पेट्रोलिंग वाहन के साथ उमरपुर में सार्वजनिक संपत्तियों में आग लगा दी। आप कल्पना करिए स्थिति कैसी रही होगी! अगर पुलिस से पिस्तौल छीनी जा रही थी तो बंगाल की पुलिस किस अवस्था में रही होगी इसकी कल्पना करिए।

सच है कि पुलिस ने रिपोर्ट में स्वयं के भयभीत होने की बात नहीं लिखी है किंतु कई जगह पुलिस जान बचाने के लिए भागती नजर आई। एक पुलिस अधिकारी का बयान है कि जिला प्रशासन ने बीएसएफ बुलाने का आग्रह किया और तब तक पुलिस को छिपकर जान बचानी पड़ी। जिस बीएसएफ ने पुलिस की जान बचाई, जिसे पीड़ित अपनी रक्षक बता रही है उस पर ममता बनर्जी आरोप लगा रही थी।

हालांकि रिपोर्ट में पुलिस को सबसे ज्यादा कठघरे में खड़ा किया गया है।
17 अप्रैल को उच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग और राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण के एक-एक सदस्य वाली तीन सदस्यीय समिति का गठन किया था।

रिपोर्ट में कुछ बातें प्रमुख है। पहले, हिंसा केवल हिंदुओं के विरुद्ध थी और सुनियोजित थी। दूसरा, स्थानीय तृणमूल के मुस्लिम नेता और पार्षद ने हिंसा का नेतृत्व किया। तीसरा, लोगों ने पुलिस से मदद मांगी, पुलिस ने न हिंसा रोकने की कोशिश की और न पीड़ितों को सुरक्षा देने की ही। यह रिपोर्ट ऐसी है जिसके बाद पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार के होने का कोई कारण नहीं है।

कल्पना करिए अगर आज से तीन दशक पूर्व ऐसी हिंसा होती जिसमें पूरे एक समुदाय के विरुद्ध हिंसा में कानून के शासन की धज्जियां उड़ जातीं तो वह सरकार निस्संदेह बर्खास्त होती। आज की स्थिति वैसी नहीं है। क्योंकि उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रपति शासन लागू होने और सरकार के बर्खास्त करने को संवैधानिक रूप से गलत ठहरा सकती है। राज्यपाल ने केन्द्र को भेजी रिपोर्ट में केंद्र सरकार सरकार से संवैधानिक विकल्पों’ पर विचार करने का सुझाव तो दिया, हालात बिगड़ने पर अनुच्छेद 356 (राष्ट्रपति शासन) को विकल्प बताते हुए भी लिखा कि अभी जरूरत नहीं है।

जरा सोचिए, इतनी भयानक हिंसा और पुरुषों को तो छोड़िए महिलाओं और बच्चों के दर्दनाक आपबीती के बावजूद ममता बनर्जी ने एक शब्द आरंभ में सहानुभूति का नहीं बोला। वह और उनकी सरकार के मंत्री, नेता सब इसको भाजपा का षड्यंत्र बताते हुए बीएसएफ पर ही आरोप लगा रहे थे कि बांग्लादेश से बुलाकर हिंसा करवा दिया है। कायदे से तो बीएसएफ की ओर से भी उच्च न्यायालय अपील दायर होनी चाहिए थी। आखिर किस आधार पर इतना संगीन आरोप मुख्यमंत्री ने लगा दिया जिन्होंने संविधान के तहत शपथ लिया है? कम से कम उच्च न्यायालय की समिति की रिपोर्ट के बाद ममता से औपचारिक रूप से यह पूछा जाना चाहिए।

इस रिपोर्ट के अनुसार 11 अप्रैल को नए वक्फ संशोधन कानून के विरुद्ध प्रदर्शन की आड़ में हिंदुओं कौन निशाना बनाया गया। बेतबोना गांव में 113 घर जला दिए गए। रिपोर्ट में कहा गया है, ‘एक आदमी गांव में वापस आया और उसने देखा कि किन घरों पर हमला नहीं हुआ है और फिर बदमाशों ने आकर उन घरों में आग लगा दी।’ यह कैसे संभव हुआ? यानी गांव जला दिए गए लेकिन पुलिस प्रशासन वहां अनुपस्थित रहा। सोचिए, पानी का कनेक्शन काटा गया ताकि आग बुझाए न जा सके। सबसे निकृष्ट काम महिलाओं का वस्त्र तक को जला देना था ताकि पहनने को कपड़े नहीं बचे।

सबसे शर्मनाक भूमिका तो पुलिस की थी। रिपोर्ट में कहा गया है, ‘पश्चिम बंगाल पुलिस ने कोई जवाब नहीं दिया। बेतबोना के ग्रामीण ने शुक्रवार को शाम चार बजे और शनिवार को शाम चार बजे फोन किया, लेकिन पुलिस ने फोन नहीं उठाया।’ पुलिस ने मालदा में शरण लिए हुए पीड़ितों को ढाका से बेतबोना गांव में लौटने को विवश कर दिया।

साफ है कि ऐसा यूं ही नहीं हुआ होगा। सरकार की ओर से पुलिस प्रशासन पर दबाव रहा होगा कि पलायन कर गए लोगों को बुलाया जाए क्योंकि इससे केवल भारत ही नहीं बाहर भी सरकार की थूथू हो रही है। रिपोर्ट ने जिस तरह पुलिस प्रशासन को कटघरे में खड़ा किया है उससे पश्चिम बंगाल पुलिस सिर उठाने लायक भी नहीं रही। कहा गया है कि प्रशासन की तरफ से हिंसाग्रस्त इलाकों में किसी भी व्यक्ति की मदद नहीं की गई और न ही इस हिंसा में संलिप्त आरोपियों के खिलाफ कोई कार्रवाई की गई।‌

रिपोर्ट की यह पंक्ति देखिए – जिस तरह हिंसा को अंजाम दिया गया, उससे यह साफ जाहिर होता है कि यह सुनियोजित था, जिसे पूरे व्यवस्थित तरीके से अंजाम दिया गया। रिपोर्ट में पार्षद और पुलिस दोनों के बारे में जो कहा गया उसे देखिए-, ‘हमले स्थानीय पार्षद की तरफ से निर्देशित किए गए थे,’ स्थानीय पुलिस पूरी तरह से “निष्क्रिय और अनुपस्थित” थी। घटना देखिए, शुक्रवार को नमाज के बाद भीड़ निकलती है और करीब 2:30 से हिंदुओं के विरुद्ध वही दृश्य खड़ा किया गया जो हमने पिछले दिनों बांग्लादेश में देखा। इसमें कहा गया है, ‘बदमाशों ने घर के सभी कपड़ों को मिट्टी के तेल से जला दिया और घर की महिला के पास तन ढकने के लिए कपड़े नहीं थे।’ तो इसमें कोई संदेह नहीं कि इसके पीछे पूरे क्षेत्र को हिंदूविहीन करने का षड्यंत्र था, जो स्वतंत्रता के पहले से चल रहा है।

पहलगाम हमले में धर्म पूछ कर हिंदुओं को मारने वाले आतंकवादियों को नेस्तनाबूद करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने ऑपरेशन सिंदूर जैसा युगांतकारी पराक्रम दिखाया। लेकिन बंगाल के हिंसक तत्वों, जिन्हें आतंकवादी कहने में भी समस्या नहीं होनी चाहिए, के विरुद्ध कैसा ऑपरेशन सिंदूर करना होगा? पाकिस्तान के फील्ड मार्शल और तब थल सेना अध्यक्ष जनरल आसिफ मुनीर ने यही तो कहा था कि हिंदू और मुसलमान एक साथ नहीं रह सकते हैं। दोनों दो कौमें हैं और यही विचार पाकिस्तान बनाने की नींव है। उन्होंने लोगों से अपील किया कि इस बात को अपनी बच्चों को बताते रहना ताकि कोई भूल न पाए।

मुर्शिदाबाद में भी क्या यही विचार हिंदुओं के विरुद्ध भयानक हिंसा के पीछे नहीं था? क्या पश्चिम बंगाल में इसके पहले हिंदू पर्व त्योहारों पर हमले नहीं हुए? चुनाव में तृणमूल के विरुद्ध वोट देने वाले हिंदुओं की क्या दशा हुई? उन्हें किस हालत में पलायन करना पड़ा यह भी देश के सामने है। हम पाकिस्तान के आसिफ मुनीर के विरुद्ध अपनी भृकुटियां तान सकते हैं लेकिन पश्चिम बंगाल और मुर्शिदाबाद में बैठे ऐसे आसिफ मुनीरों की पहचान कैसे होगी और उनके साथ क्या किया जाएगा?

हम पाकिस्तान में भारत विरोधी आतंकवादियों को सरकार और आईएसआई द्वारा संरक्षण देने की बात करते हैं। उच्च न्यायालय की समिति के अनुसार यहां गैर मुसलमानों के विरुद्ध हिंसा करने वालों को भी पुलिस का साथ मिलता है। बंगाल विशेषकर मुर्शिदाबाद में भी पुलिस ने घटना से आंखें मूंद कर इन उग्रवादी समूहों को एक प्रकार से काम करने की स्वतंत्रता ही दी। पाकिस्तान सरकार भी वहां गैर मुसलमानों के विरुद्ध हिंसा या उनके धर्म परिवर्तन तथा भारत में आतंकवादी हमले को नकारते हुए भारत पर ही आरोप लगाती है। ममता बनर्जी की भूमिका भी ठीक वैसे ही है। उन्होंने पूरी घटना को आरएसएस-बीजेपी की साजिश बता दिया। तो इसके बारे में क्या शब्द और विचार प्रकट करेंगे?

रिपोर्ट में शमसेरगंज के जाफराबाद इलाके में हरगोबिंद दास और उनके बेटे चंदन दास की हत्या का जिक्र करते हुए कहा गया है, ‘उन्होंने घर का मुख्य दरवाजा तोड़ दिया और उसके बेटे और उसके पति को ले गए और उनकी पीठ पर कुल्हाड़ी से वार किया। एक आदमी तब तक वहां इंतजार कर रहा था जब तक वे मर नहीं गए।’ दोनों पिता पुत्र का दोष यह था कि वे हिंदू देवी – देवताओं की मूर्तियां बनाते थे। तो यह कैसी सोच है कि मूर्तियां बनाने वाला इनका दुश्मन हो गया? मुर्शिदाबाद हिंसा के बाद वहां गए राज्यपाल ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि बंगाल को दोहरा खतरा है खासतौर पर बांग्लादेश से सटे मुर्शिदाबाद और मालदा जिलों में ज्यादा है क्योंकि यहां हिंदू आबादी अल्पसंख्यक है। इसी तरह उन्होंने नौर्थ दिनाजपुर को भी हिंदुओं के लिए खतरनाक बताया।

-अवधेश कुमार

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