‘’इन दिनों समूचा विपक्ष पूरे जोर शोर से यह प्रचारित करने में जुटा हुआ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में वर्तमान केंद्र सरकार देश के लोकतंत्र एवं संविधान का गला घोंटने में जुटी हुई है और स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अपरिहार्य विपक्ष की आवाज को बुरी तरह दबाया जा रहा है। लेकिन; यह प्रलाप करने वाले लोगों को आपातकाल के उस क्रूर दौर को याद करने जरूरत है जब इंदिरा गाँधी के शासनकाल में लोकतंत्र की बुरी तरह हत्या हुई थी।
तत्कालीन केंद्र सरकार ने भारतीय नागरिकों के सभी संवैधानिक व मौलिक अधिकारों को जबरन हथियाकर एक झटके में लोकतंत्र से ‘लोक’ हटा कर ‘तानाशाही’ लिख दिया था। जिस देश की आजादी के लिए असंख्य देशभक्तों ने अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया था, अमानवीय यातनाएं झेली थीं, उस आजादी को इंदिरा गाँधी ने पिंजरे में कैद कर लिया था।‘’ यह कहना है आपातकाल के दौरान 19 महीने की जेल काटने वाले भारतीय धर्म दर्शन के गहन जानकार, सुप्रसिद्ध लेखक तथा उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष पद्मश्री हृदय नारायण दीक्षित जी का।
हिटलर का अनुसरण कर रही थीं इंदिरा गाँधी
बकौल; हृदय नारायण जी 26 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक देश में आपातकाल लागू रहा। 25 जून 1975 की मध्य रात्रि को भारतीय इतिहास का एक ऐसा काला अध्याय लिखा गया था जिसकी कालिमा ने भारतीय लोकतंत्र पर 21 महीने तक ग्रहण लगा दिया था। सत्ता के लालच में कांग्रेस की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने समूचे देश को इमरजेंसी की बेड़ियों में कैद कर दिया था। कोरी आशंका के आधार पर भारी तादात में लोकतंत्र सेनानियों को जेल में डाल दिया गया था। कई नेताओं को उस दौरान जेल में 19 महीने तक रहना पड़ा था। उन दौर के शासन की क्रूरता याद करना आज भी मन को गहरी पीड़ा से भर देता है।
हृदयनारायण दीक्षित की मानें तो उस समय देश में किसी प्रकार कोई आतंरिक समस्या नहीं थी किन्तु अपनी तानाशाही सोच के चलते इंदिरा गाँधी ने पूरे देश को आपातकाल के अंधेरे में झोंक दिया था। वे हिटलर का अनुसरण कर रही थीं। दरअसल उस दौरान हुआ यह था कि साल 1975 में 12 जून को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गाँधी के संसदीय चुनाव को अवैध करार दे दिया था, जिसके कारण विपक्ष इंदिरा गाँधी से त्यागपत्र मांगने लगा। मगर सत्तामद में चूर इंदिरा गाँधी पद से हटना नहीं चाहती थीं, इसलिए उन्होंने संविधान में संसोधन कर देशभर में आपातकाल लगा दिया था। हर तरफ कैदखाने जैसी स्थिति पैदा हो गयी थी। विपक्ष के जयप्रकाश नारायण,अटल बिहारी वाजपेयी समेत बहुत से नेताओं को जेल में डाल दिया गया और प्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। अखबारों में पुलिस राज और उत्पीड़न की खबर छापने पर जेल में जाना पड़ता था। आपातकाल के समय लाखों लोग जेल में थे।
देशवासियों को अंग्रेजी शासन की क्रूरता याद आ गयी थी
ज्ञात हो कि आपातकाल का मुख्य कारण इलाहाबाद हाईकोर्ट का एक फैसला बताया जाता है; जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को चुनाव प्रचार अभियान में कदाचार का दोषी करार दिया गया था। एक लोकप्रिय दैनिक में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी बड़े अंतर से जीती थीं तथा कांग्रेस पार्टी को भी बड़ी जीत मिली थी। इस पर प्रतिद्वंद्वी राजनारायण ने इंदिरा जी की जीत पर सवाल उठाते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया था। राजनारायण जी ने अपनी याचिका में आरोप लगाया था कि इंदिरा गाँधी ने चुनाव जीतने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल किया है। उक्त मामले की सुनवाई के बाद साल 1975 में 12 जून को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गाँधी के संसदीय चुनाव को अवैध करार दे दिया। इस कारण विपक्ष उनसे त्यागपत्र मांगने लगा किन्तु इंदिरा गाँधीसत्ता से हटना नहीं चाहती थीं, इस कारण सुनियोजित रणनीति के तहत संविधान संशोधन के द्वारा देश पर आपात काल थोप दिया गया।
25 जून 1975 को घोषणा के बाद 21 मार्च 1977 तक करीब 21 महीने भारत में आपातकाल लागू रहा। इस आपातकाल को स्वतंत्र भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का सर्वाधिक काला अध्याय माना जाता है। उस आपातकाल के दौरान देशभर में चुनाव स्थगित हो गये थे। साथ ही हर नागरिक के मौलिक अधिकार भी निलंबित कर दिये गये थे। उस दौर में देश के लोगों के पास न तो अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार था, न ही जीवन का अधिकार। 25 जून की रात से ही देश में विपक्ष के नेताओं की गिरफ्तारियां शुरू हो गयी थीं। इतनी बड़ी संख्या में लोगों को जेल में डाला गया था कि जेलों में जगह ही नहीं बची। प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गयी। हर अखबार में सेंसर अधिकारी रख दिये गये थे। उस सेंसर अधिकारी की अनुमति के बिना कोई खबर छप ही नहीं सकती थी। अगर किसी ने सरकार के खिलाफ खबर छापी तो उसे गिरफ्तारी झेलनी पड़ी।
आपातकाल के 21 महीनों में ही देशवासियों को अंग्रेजों का शासन याद आ गया था। उस दौर में प्रमुख राष्ट्रीय अखबारों के कार्यालय दिल्ली के जिस बहादुरशाह जफर मार्ग पर थे, वहां की बिजली काट दी गयी थी ताकि अगले दिन अखबार प्रकाशित न हो सकें। जो अखबार छप भी गये, उनके बंडल जब्त कर लिये गये थे। आदेश था बिजली काट दो, मशीन रोक दो, बंडल छीन लो। अखबारों और समाचार एजेंसियों को नियंत्रित करने के लिए सरकार ने नया और कठोर कानून बनाया और साथ ही प्रेस के लिए आचार संहिता की घोषणा कर दी थी। कई संपादकों को सरकार के विरोध में लिखने पर गिरफ्तार कर लिया गया। उस काले दौर की जेल-यातनाओं की दहला देने वाली कहानियां भरी पड़ी हैं।
उस समय देश में अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जयप्रकाश नारायण जैसे विपक्ष के सभी बड़े नेता सलाखों के पीछे डाल दिये गये थे। उस दौरान पुलिस की भूमिका किसी खलनायक से कम नहीं थी। अपने ही देश की पुलिस के अत्याचार ब्रिटिश राज के अत्याचारों को भी मात दे रहे थे। नेताओं की गिरफ्तारी की सूचना उनके रिश्तेदारों, मित्रों और सहयोगियों तक को नहीं थी। जेल में बंद नेताओं को किसी से भी मिलने की अनुमति नहीं थी। उनकी डाक तक सेंसर होती थी और मुलाकात के दौरान खुफिया अधिकारी मौजूद रहते थे।
संजय गांधी की अगुवाई में चला था नसबंदी अभियान
काबिलेगौर हो कि आपातकाल के दौरान एक तरफ देशभर में सरकार के खिलाफ बोलने वालों पर जुल्म हो रहा था तो दूसरी तरफ जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर संजय गांधी और बंसीलाल की अगुवाई में लोगों की जबरदस्ती नसबंदी करायी जा रही थी। एक जानकारी के अनुसार आपातकाल के दौरान देशभर में करीब 83 लाख लोगों की जबरदस्ती नसबंदी करा दी गयी थी। कहा तो यह भी जाता है कि अविवाहित युवाओं तक को नहीं छोड़ा गया। यही नहीं, उस दौरान आर्थिक नीति में मनचाहा परिवर्तन और श्रमिकों के बुनियादी अधिकारों को खत्म करने की कोशिश की गयी। उस दौरान जहां कहीं भी मजदूर हड़ताल हुई, वहां उन्हें कुचलने की कोशिश की गयी। आपातकाल के दौरान नागरिक अधिकारों की रक्षा करने वाले वकीलों और जजों को भी नहीं छोड़ा गया।
जेल की बैरक में कपड़ों के बीच छिपाया था रेडियो
आपातकाल की आपबीती सुनाते हुए हृदयनारायण दीक्षित जी कहते हैं कि सरकार के इशारे पर किये जा रहे अत्याचारों से देश के लोगों में गहरा आक्रोश पैदा हो चुका था। हालात इतने खराब थे कि पुलिस राज कायम था और आये दिन हृदय विदारक घटनायें सामने आ रही थीं जो लोगों के बर्दाश्त के बाहर थीं। यह बात इंदिरा सरकार को भी पता थी। जनता के इस आक्रोश के डर के चलते कांग्रेस पार्टी द्वारा चुनाव की तारीखें बढ़ा दी गयीं थीं। इसी वजह से डरी सरकार ने 1976 में प्रस्तावित आम चुनाव को 1977 में कराया था।
दीक्षित जी ने बताया कि जिस दिन मतगणना होनी थी, उस दिन एक साथी की मदद से जेल के अंदर रेडियो मंगाया गया था। रात के समय बैरक के अंदर वे साथियों के साथ उसी रेडियो पर मतगणना के परिणाम सुन रहे थे। सब तरफ से कांग्रेस के हारने की सूचना आ रही थी। उसी बीच डिप्टी जेलर निरीक्षण के लिए बैरक के पास पहुंच गये और उन्होंने रेडियो की आवाज सुन ली; लेकिन तब तक उन्होंने रेडियो बंद कर छुपा दिया था। डिप्टी जेलर ने कहा-तुम लोग रेडियो बजा रहे हो और मैने कहा नहीं तो। इस पर डिप्टी जेलर ने कठोरता से कहा,‘’झूठ बोलते हो साले! अभी तलाशी लूंगा और डंडा मार कर सारी हेखड़ी निकाल दूंगा। ‘’ यह कह कर वे डंडा फटकारते हुए वहां से चले गये। उस घटना के करीब तीन घंटे बाद सुबह चार बजे कांग्रेस की पराजय की खबर आमने आ गयी। उस चुनाव में इंदिरा गाँधी स्वयं रायबरेली से चुनाव हार गयी थीं और समूचे देश में कांग्रेस को बुरी तरह से हरा कर जनता ने सबक सिखा दिया था
– पूनम नेगी