भारतीय भाषाओं का आपसी संघर्ष अंग्रेजी साम्राज्यवाद की जड़ें और मजबूत करेगा
भरोसा नहीं होता कि महाराष्ट्र जैसी समावेशी और महान धरती से हिंदी के विरोध में भी कोई बेसुरी आवाज़ सामने आएगी। शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने महाराष्ट्र में पहली से लेकर पाँचवीं कक्षा तक हिंदी पढ़ाए जाने का विरोध किया है। यह एक ऐसा विचार है, जिसकी जितनी निंदा की जाए कम है। मैं पत्रकारिता का विद्यार्थी हूं और जानता हूं कि आज की हिंदी को स्थापित करने के लिए बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, पं. माधवराव सप्रे, रामकृष्ण खाडिलकर, लक्ष्मण नारायण गर्दे जैसे यशस्वी पत्रकारों का खास योगदान है।
महाराष्ट्र समन्वय और सद्भाव की घरती है, जहां सभी विचारों, भाषाओं, सामाजिक आंदोलनों को फलने-फूलने का मौका मिला है। छत्रपति शिवाजी जहां सुशासन के राष्ट्रीय प्रतीक बने, तो संत परंपरा ने महाराष्ट्र को आध्यात्मिक ऊंचाई दी, मुंबई जहां कांग्रेस की स्थापना का गवाह बना तो दूसरी ओर नागपुर से डॉ. बाबासाहब आंबेडकर और डॉ. केशवराम बलिराम हेडगेवार ने ऐतिहासिक आंदोलनों और संगठनों का सूत्रपात किया। मुंबई, नागपुर जैसे शहर अपनी बहुभाषिकता के कारण पूरे देश का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते रहे।
भाषा और मूल्यों को लेकर जिस तरह के विमर्श और चर्चाएं इन दिनों हवा में हैं, वह कई बार बहुत आतंकित करती हैं। अंग्रेजी के बढ़ते साम्राज्यवाद के बीच हमारी बोलियाँ और भाषाएं जिस तरह सहमी व सकुचाई हुई सी दिखती हैं, उसमें ऐसे विचार अँगरेज़ी के प्रभुत्व को ही स्थापित करने का काम करेंगे। कुल मिलाकर संदेश यह है कि आइए हम भारतीय भाषा परिवार के लोग आपस में सिर फुटौव्वल करें, एक-दूसरे के कपड़े फाड़ें और अंग्रेजी को राजरानी की तरह प्रतिष्ठित कर दें। भारतीय भाषाओं का आपसी संघर्ष किसे ताकत दे रहा है, कहने की जरूरत नहीं है। किंतु राजनीति भाषा, जाति, पंथ और क्षेत्र के नाम पर बांटने का व्यापार बन गयी है। कभी दक्षिण भारतीयों, कभी उत्तर भारतीयों के विरूद्ध अभियान चलाने वाली शिवसेना आज भाषा के नाम पर बंटवारे की राजनीति में लगी है।
विभाजनों का सुख लेती राजनीति
भारतीय भाषा परिवार की भाषाएं और बोलियाँ एक-दूसरे से टकरा रही हैं। राजनीतिक आधार पर विभाजन करके अपनी राजनीति चलाने वाली ताकतें भाषा का भी ऐसा ही इस्तेमाल कर रही हैं। देश का विचार और हमारी सामूहिक संस्कृति का विचार लुप्त होता जा रहा है। भाषा, क्षेत्र, जाति, पंथ ऐसे अखाड़े बन गए हैं, जिसने हमारी सामूहिकता को नष्ट कर दिया है। राजनीति इन्हीं विभाजनों का सुख ले रही है। कितना अच्छा होता कि शिवसैनिक अंग्रेजी को हटाने की बात करते, लेकिन उन्हें हिंदी से ही समस्या नज़र आई।
हिंदी भारतीय भाषा परिवार की बहुप्रसारित भाषा है। यह हमारे लोक जीवन में पैठी हुई है। हिंदी के ख़िलाफ़ किसी भी भाषा को खड़ा करना एक ऐसा अपराध है, जिसके लिए हमें पीढ़ियाँ माफ़ नहीं करेंगी। यह अपने पुरखों के यश को बिसरा देने जैसा है, अपने अतीत को अपमानित और लांछित करने जैसा है। स्वयं को राष्ट्रवादी और हिंदूवादी बताने वाले क्षेत्रीयता के आवेश में इस कदर आँखों पर पट्टियाँ बाँध लेंगे, इसकी कल्पना भी डरावनी है। जिस तरह अंग्रेजी ने हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को पददलित किया है, उसकी मिसाल नहीं मिलेगी।
आज जबकि बाज़ारवाद की तेज़ हवा में हमारी तमाम बोलियाँ, तमाम शब्द, मुहावरे, लोकोक्तियाँ, लोकगीत नष्ट होने के कगार पर हैं, क्या इन्हें बचाना और साथ लेकर चलना हमारी जिम्मेदारी नहीं है? हिंदी और मराठी सगी बहनों की तरह विकसित हुई हैं। मराठी का साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, अध्यात्म सब हिंदी भाषियों के प्रेरित करता रहा है। हिंदी इलाके में हो रहे ‘जाणता राजा’ के मंचन इस बात के गवाह हैं कि महाराष्ट्र की संस्कृति किस तरह हिंदी इलाकों में स्वीकृति पा रही है। हिंदी इलाकों से चुने गए सांसद, विधायक, जनप्रतिनिधि इसकी गवाही हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश के अनेक क्षेत्रों का मराठी भाषी शासकों ने नेतृत्व किया। राजनीति से लेकर साहित्य और समाज सेवा में अपना अग्रणी स्थान बनाया।
आप देखें तो रानी अहिल्याबाई होलकर, जो एक हिंदी भाषी इलाके की शासिका थीं, उन्हें पूरे देश में किस तरह याद किया गया। भारत का विचार कृतित्व को सम्मान देने का रहा है। इसलिए अनेक मराठी भाषी राजनेता, लेखक, कलाकार हिंदी भाषी क्षेत्रों में सम्मान पाते रहे। ताजा उदाहरण में इंदौर से सुमित्राताई महाजन आठ बार लोकसभा का चुनाव जीतीं। कृष्ण मुरारी मोघे इंदौर के मेयर और खरगोन से सांसद रहे। ग्वालियर का सिंधिया परिवार भी मूलतः मराठी भाषी है जिसे हिंदी भाषी लोगों ने दिलों में जगह दी। कुशाभाऊ ठाकरे तो मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा के पितृपुरूष रहे, बाद में राष्ट्रीय अध्यक्ष बने।
मप्र में तुकोजीराव पवार का परिवार, छत्तीसगढ़ में रजनीताई उपासने, पंडरीराव कृदत्त, यशवंत राव मेधावाले, दिनकर डांगे विधायक रहे, उप्र में मधुकर दीघे जैसे अनेक नेता विधानसभा पहुंचे। गंभीर अध्ययन से अनेक ऐसे उदाहरण हर क्षेत्र में पाए जा सकते हैं। इसी तरह महाराष्ट्र ने हिंदी वासियों को दिल में जगह दी। अनेक सांसद, विधायक और मंत्री महाराष्ट्र की सरकार में रहे। इस तरह कभी हिंदी और मराठी विवाद सामने नहीं आया।
आजादी के 75 सालों के बाद इस तरह का विवाद चिंतनीय है और सोचनीय भी। हिंदी साहित्य, पत्रकारिता, थियेटर, फिल्म और कलाएं महाराष्ट्र में फली-फूलीं। यह सहज संवाद और आत्मीयता समाज के स्तर पर भी थी, भाषा के स्तर पर भी। हिंदी देश के बड़े क्षेत्र में सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा है। इसका आदर करते हुए ही हिंदी को देश की राजभाषा का दर्जा दिया गया है। किंतु राज्यों में राज्य की भाषाएं आदर पाएं और उच्चासन भी, इससे किसी को आपत्ति कहां है। क्या सरकारों और राजनेताओं की हिम्मत है कि वे अंग्रेजी को प्राथमिक शिक्षा से बाहर कर सकें? उन्हें पता है कि ऐसा करने से अभिभावकों का जो प्रतिरोध सामने आएगा, उसका वे सामना नहीं कर सकेंगें। इसलिए भाषा प्रेम की नौटंकी से बाज आकर ऐसे रास्ते निकालने चाहिए जिससे भारतीय भाषाओं का न्यूनतम सम्मान तो सुरक्षित रह सके। जाहिर है ऐसे विवाद अंग्रेजी की जड़ों को गहरा करने में सहायक बनेगें। इससे भारतीय भाषाएं उपेक्षा और अनादर की शिकार होती रहेंगी।
मातृभाषा में हो प्राथमिक शिक्षा
कई देश अपनी मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करते हैं, किसी अन्य भाषा में नहीं। मराठी भाषा में प्राथमिक शिक्षा दिए जाने की माँग कतई नाजायज नहीं है और ऐसा होना ही चाहिए। किंतु ‘हिंदी विरोध’ को किसी नारे की तरह इस्तेमाल करते हुए उसके राजनीतिक इस्तेमाल से बचना सबसे बड़ी ज़रूरत है। मराठी को अध्ययन, अध्यापन की भाषा बनाने के लिए आंदोलन होना चाहिए पर वह हिंदी के तिरस्कार से नहीं होगा। मराठी को महाराष्ट्र में राजभाषा का दर्ज़ा मिला हुआ है, तो राज्य सरकार का यह नैतिक दायित्व है कि उसे राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए सारे जतन करे।
राजनीति का यह द्वंद समझा जा सकता है कि वह अपने सारे क्रिया व्यापार एक विदेशी भाषा (अंग्रेजी) में करती है और आम जनता के भावनात्मक शोषण के लिए स्थानीय भाषाओं के विकास की नारेबाजी करती है। महाराष्ट्र की फ़िजाओं में इस तरह की बातें फैलाना वास्तव में इस क्षेत्र की तासीर के ख़िलाफ़ है। भारतीय भाषाओं के बिना हम कितने बेचारे हो जाएँगे, इसे बताने की आवश्यकता नहीं है। जब हजारों-हजार भाषाएं, हजारों-हजार बोलियाँ, हज़ारों शब्द लुप्त होने के कगार पर हैं और अंग्रेजी का साम्राज्यवाद उन्हें निगलने के लिए खड़ा है, तो ऐसे समय में क्या हम ऐसी फ़िजूल की बहसों के लिए अपना वक्त खराब करते रहेंगे।
– प्रो. संजय द्विवेदी