यह एक विचित्र पहेली है कि हिंदी पढ़ने से स्वयं की पहचान खतरे में पड़ जाती है, लेकिन अंग्रेजी का अध्ययन करते समय ऐसी कोई चिंता नहीं सताती। महाराष्ट्र का हालिया घटनाक्रम इसकी एक बानगी है। बीते दिनों विपक्षी दलों के विरोध के बाद महाराष्ट्र सरकार ने कक्षा 1 से 5 तक मराठी और अंग्रेजी के साथ हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में अनिवार्य रूप से पढ़ाने का आदेश वापस ले लिया। विरोधी दल त्रिभाषा योजना को “हिंदी थोपने की कोशिश”, “मराठी अस्मिता-पहचान पर हमला” और “मराठी भाषा-संस्कृति को कमजोर करने” का आरोप लगा रहे है। यह स्थिति तब है, जब महाराष्ट्र के स्कूलों में पहली से दसवीं कक्षा तक अंग्रेजी पढ़ना अनिवार्य है। क्या कारण है कि हिंदी की भांति, अंग्रेजी पढ़ना मराठी संस्कृति और पहचान पर कुठाराघात नहीं करता है? आखिर इस दोहरे मापदंड का राज क्या है?
वास्तव में यह जहरीला और घृणा प्रेरित चिंतन असहिष्णुता और औपनिवेशिकता का मूर्त रूप है, जोकि तमिलनाडु और कर्नाटक से होते हुए महाराष्ट्र पहुंचा है, जिसका एकमात्र उद्देश्य भारतीय एकता, अखंडता और सुरक्षा को क्षीण करना है। निसंदेह, मराठी अन्य राष्ट्रीय भाषाओं (प्राचीन सहित) की तरह सशक्त और समृद्ध है। कुछ दक्षिण भारतीय राज्यों की तुलना में— जहां विभाजनकारी औपनिवेशिक चिंतन के कारण हिंदी का विरोध होता है, वही महाराष्ट्र में इस तरह कोई इतिहास नहीं है। महाराष्ट्र के विदर्भ और मराठवाड़ा क्षेत्रों में बड़ी संख्या में हिंदी भाषी आबादी बसती है। महाराष्ट्र के गठन से पहले विदर्भ मध्य भारत (अब मध्यप्रदेश का हिस्सा है) का भाग था, जबकि मराठवाड़ा निजाम के शासनाधीन था। इस कारण हिंदी आज भी इन क्षेत्रों में विशेष महत्व रखती है।
यह दिलचस्प है कि जो राजनीतिक समूह हिंदी भाषा का विरोध कर रहा है, वह अक्सर ‘संविधान-लोकतंत्र बचाओ’ का नारा बुंलद करते हुए मोदी सरकार को बात-बात पर कटघरे में खड़ा करते है। अब सवाल उठता है कि उसी हिंदी को लेकर भारतीय संविधान में क्या प्रावधान है? संविधान के अनुच्छेद 343-351 के बीच हिंदी के प्रचार, प्रसार और विकास पर बल दिया गया है। हिंदी को देश की राजभाषा का दर्जा संविधान के अनुच्छेद 343(1) में दिया गया है, जिसके अनुसार संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। सोचिए, संविधान की प्रतियां लहराने वाले भी संवैधानिक मान्यता प्राप्त हिंदी का विरोध कर रहे है। यह रोचक स्थिति तब है, जब मराठी भाषा की लिपि भी देवनागरी है।
मजेदार बात यह है कि जिस हिंदी सिनेमा ने दशकों तक हिंदी को वैश्विक पहचान दिलाई— जिसने हिंदी को भारत और दुनिया के बीच एक संपर्क भाषा के रूप में स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई—उसका गढ़ कोई और नहीं, बल्कि महाराष्ट्र की मायानगरी मुंबई है। वही मुंबई, जो एक मराठी भाषी राज्य की मांग के तहत 1955 में शुरू हुए ‘संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन’ का केंद्रबिंदु था। लंबे संघर्ष और बलिदान के बाद 1 मई 1960 को मुंबई को राजधानी बनाकर महाराष्ट्र राज्य का गठन हुआ।
धुंडिराज गोविंद फालके (1870-1944), जोकि दादासाहब फालके नाम से विख्यात हैं, जिन्हें भारतीय फिल्म उद्योग का ‘पितामह’ भी कहा जाता है और उनके नाम पर कलाकारों को भारतीय सिनेमा का सबसे प्रतिष्ठित सम्मान भी दिया जाता है— वे मराठी भाषी और चितपावन ब्राह्मण परिवार में जन्में थे। दशकों से मुंबई हिंदी फिल्मों का गढ़ रहा है, जिससे रोजगार के असीम अवसर उत्पन्न होते है। चाहे पंजाब (अविभाजित पंजाब सहित) में जन्में धर्मेंद्र, राजेश खन्ना, राजेंद्र कुमार, सुनील दत्त, देवानंद, सनी देओल, अमरीश पुरी, अक्षय कुमार, जूही चावला सरीखे अभिनेता-अभिनेत्री हो या पेशावर के विनोद खन्ना, दिलीप कुमार आदि या उत्तरप्रदेश से अमिताभ बच्चन, नसीरुद्दीन शाह और प्रियंका चोपड़ा या फिर दक्षिण से रेखा, हेमा मालिनी, कमल हसन, सुनील शेट्टी आदि और पूर्व से डैनी डेंजोंगपा— इन सभी ने हिंदी फिल्मों के माध्यम से महाराष्ट्र सहित विश्वभर में मान-सम्मान पाया। क्या इन सबसे भी मराठी भाषा, उसकी संस्कृति और पहचान की अहमियत कम हो गई?
जो राजनीतिक समूह (ठाकरे बंधु सहित) महाराष्ट्र में अपने लिए इस समय किसी माकूल मौके की तलाश कर रहे थे, जिन्हें विधानसभा चुनाव में अप्रत्याशित हार मिली— वे हिंदी पर अपनी विभाजनकारी राजनीति के माध्यम से खोया जनाधार वापस पाना चाहते है। स्पष्ट है कि उनका सरोकार मराठी भाषा के बजाय अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति करने पर अधिक है। हम सभी को अपनी अंतरात्मा से पूछना चाहिए— क्या मराठा साम्राज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी महाराज सहित कई वीर मराठाओं का त्याग, बलिदान और शौर्य केवल महाराष्ट्र या मराठी पहचान के लिए था या फिर ‘हिंदवी स्वराज्य’ के लिए?
महान समाज सुधारकों में से एक और स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर, जिन्हें अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने के लिए दो बार आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी, जिसमें उन्हें अंडमान-निकोबार स्थित कालापानी जेल की अमानवीय यातनाएं झेलनी पड़ी थी— क्या उनका तप केवल तत्कालीन बंबई प्रांत के लिए था या फिर समस्त भारत को ब्रिटिश गुलामी से आज़ाद कराने का था?
राष्ट्रवादी, शिक्षक, समाज सुधारक, वकील और प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने सार्वजनिक गणेशोत्सव को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लोकजागरण और राष्ट्र-निर्माण का एक सशक्त मंच बनाया, जो जातिगत, भाषाई और प्रांतीय संकीर्णता से मुक्त था। उनका प्रयास समूचे भारत में जनचेतना फैलाना था। इसी कारण तिलक ने हिंदी की एकीकृत करने वाली शक्ति को पहचाना और उसे राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाने का आह्वान भी किया था।
भाषाओं-बोलियों के मामले में भारत बहुत समृद्ध है। दक्षिण में चाहे तमिल, मलायम, कन्नड़, तेलुगू से लेकर उत्तर में कश्मीरी, पंजाबी, मारवाड़ी, कुमाऊंनी, गढ़वाली हो या फिर पूर्व में बंगाली, ओड़िया, असमिया, मैथली, भोजपुरी, मैतई और पश्चिम में गुजराती, मराठी और कोंकणी इत्यादि हो— यह सभी विपुल ज्ञान और साहित्य से संपन्न हैं। कंधार से लेकर कन्याकुमारी और कच्छ से लेकर कामरूप तक— अधिकांश स्थानों पर हिंदी किसी न किसी रूप में विद्यमान है और संपर्क भाषा का काम करती है। इसका बहुत बड़ा श्रेय हिंदी फिल्मों को जाता है, जिसका केंद्र महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई है। हिंदी सहित सभी भाषाएं समाज को जोड़ती है। परंतु कुछ स्वार्थी, संकीर्ण और औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त राजनीतिज्ञ— भाषा का उपयोग समाज को बांटने और घृणा फैलाने के लिए करते है।
-बलबीर पुंज