राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 27 सितंबर 1925 को नागपुर, महाराष्ट्र में हुई थी और इसके संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार मराठी भाषी थे। शुरुआत में संगठन से जुड़े कई स्वयंसेवक भी मराठी भाषी थे, लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हिंदी को अपनी कामकाज और संपर्क भाषा के रूप में अपनाया। यह निर्णय संगठन के राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार और एकता को बढ़ावा देने के लिए लिया गया था क्योंकि हिंदी उस समय देशव्यापी संचार के लिए एक सामान्य भाषा के रूप में उभर रही थी।
संगठनात्मक रणनीतियां
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हिंदी को बढ़ावा देने के लिए कई रणनीतियां अपनाईं।
कार्य भाषा के रूप में हिंदी
संगठन के सभी आंतरिक संचार, प्रशिक्षण सत्र और दस्तावेज हिंदी में तैयार किए गए। यह स्वयंसेवकों और प्रचारकों के बीच हिंदी के उपयोग को प्रोत्साहित करता था, भले ही वे किसी भी क्षेत्रीय भाषा के बोलने वाले हों।
प्रचारकों का योगदान:
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक, जो पूर्णकालिक स्वयंसेवक हैं, अपनी प्राथमिक और कार्य भाषा के रूप में हिंदी का उपयोग करते हैं। वे सुदूर और जंगली क्षेत्रों जैसे अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम में हिंदी को पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
सामुदायिक स्तर पर प्रेरणा:
स्वयंसेवक और कार्यकर्ता अपने संपर्क में आने वाले लोगों को हिंदी में हस्ताक्षर करने और संवाद करने के लिए प्रेरित करते हैं, जिससे हिंदी का उपयोग बढ़ता है। यह विशेष रूप से उन क्षेत्रों में प्रभावी रहा है जहां हिंदी पारंपरिक रूप से कम बोली जाती थी।
सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव:
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की “हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान” की सैद्धांतिकी ने हिंदी को एक सांस्कृतिक और राष्ट्रीय पहचान के रूप में बढ़ावा देने में मदद की। संगठन ने हिंदी को केवल एक संचार माध्यम के रूप में नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति और एकता का प्रतीक माना। इसके अलावा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने विभिन्न सामाजिक सेवा परियोजनाओं और शैक्षिक पहलों के माध्यम से हिंदी को बढ़ावा दिया, जैसे कि मातृभाषा में शिक्षा और संस्कृत को मुख्यधारा में लाने के प्रयास।
विवाद और आलोचनाएं:
हालांकि, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हिंदी को बढ़ावा देने के प्रयास विवादास्पद रहे हैं, विशेष रूप से दक्षिण भारत में। तमिलनाडु जैसे राज्यों में, कुछ राजनीतिक दलों और समूहों ने आरोप लगाया है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदी को थोप रहा है, खासकर राष्ट्रीय शिक्षा नीति के संदर्भ में। इसके जवाब में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने स्पष्ट किया है कि संघ सभी भारतीय भाषाओं को समान महत्व देते है और हिंदी की सर्वोच्चता का समर्थन नहीं करते। 1957 में एमएस गोलवलकर ने कहा था कि “मैं सभी हमारी भाषाओं को राष्ट्रीय भाषाएं मानता हूं। वे समान रूप से हमारी राष्ट्रीय विरासत हैं। हिंदी उनमें से एक है जिसे देशव्यापी उपयोग के कारण राजभाषा के रूप में अपनाया गया है।”
मातृभाषा प्रस्ताव:
वर्ष 2015 में संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा पर अपना प्रस्ताव पारित किया था।
जिसमें कहां गया है कि
“अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा देश-विदेश की विविध भाषाओं का ज्ञान प्राप्त करने की पक्षधर है लेकिन उसका यह मानना है कि स्वाभाविक शिक्षण व सांस्कृतिक पोषण के लिए शिक्षा, विशेष रुप से प्राथमिक शिक्षा, मातृभाषा अथवा संविधान स्वीकृत प्रादेशिक भाषा के माध्यम से ही होनी चाहिए।
भाषा केवल संवाद की ही नहीं अपितु संस्कृति एवं संस्कारों की भी संवाहिका है। भारत एक बहुभाषी देश है। सभी भारतीय भाषाएँ समान रूप से हमारी राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक अस्मिता की अभिव्यक्ति करती हैं। यद्यपि बहुभाषी होना एक गुण है किंतु मातृभाषा में शिक्षण वैज्ञानिक दृष्टि से व्यक्तित्व विकास के लिए आवश्यक है। मातृभाषा में शिक्षित विद्यार्थी दूसरी भाषाओं को भी सहज रूप से ग्रहण कर सकता है। प्रारंभिक शिक्षण किसी विदेशी भाषा में करने पर जहाँ व्यक्ति अपने परिवेश, परंपरा, संस्कृति व जीवन मूल्यों से कटता है वहीं पूर्वजों से प्राप्त होने वाले ज्ञान, शास्त्र, साहित्य आदि से अनभिज्ञ रहकर अपनी पहचान खो देता है।
महामना मदनमोहन मालवीय, महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ ठाकुर, श्री माँ, डॉ. भीमराव आम्बेडकर, डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जैसे मूर्धन्य चिंतकों से लेकर चंद्रशेखर वेंकट रामन, प्रफुल्ल चंद्र राय, जगदीश चंद्र बसु जैसे वैज्ञानिकों, कई प्रमुख शिक्षाविदों तथा मनोवैज्ञानिकों ने मातृभाषा में शिक्षण को ही नैसर्गिक एवं वैज्ञानिक बताया है। समय-समय पर गठित शिक्षा आयोगों यथा राधाकृष्णन आयोग, कोठारी आयोग आदि ने भी मातृभाषा में ही शिक्षा देने की अनुशंसा की है। मातृभाषा के महत्व को समझते हुए संयुक्त राष्ट्र ने भी समस्त विश्व में 21 फरवरी को मातृभाषा-दिवस के रूप में मनाने का निर्णय किया है।
प्रतिनिधि सभा स्वयंसेवकों सहित समस्त देशवासियों का आवाहन करती है कि भारत के समुचित विकास, राष्ट्रीय एकात्मता एवं गौरव को बढ़ाने हेतु शिक्षण, दैनंदिन कार्य तथा लोक-व्यवहार में मातृभाषा को प्रतिष्ठित करने हेतु प्रभावी भूमिका निभाएँ। इस विषय में परिवार की भूमिका महत्वपूर्ण है। अभिभावक अपने बच्चों को प्राथमिक शिक्षा अपनी ही भाषा में देने के प्रति दृढ़ निश्चयी बनें।
अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा यह भी आवाहन करती है कि केन्द्र सरकार एवं राज्य-सरकारें अपनी वर्तमान भाषा संबंधी नीति का पुनरावलोकन कर प्राथमिक शिक्षा को मातृभाषा अथवा संविधान स्वीकृत प्रादेशिक भाषा में देने की व्यवस्था सुनिश्चित करें तथा शिक्षा के साथ-साथ प्रशासन व न्याय-निष्पादन भारतीय भाषाओं में करने की समुचित पहल करें। ”
इस प्रस्ताव की प्रतिध्वनि नूतन राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में सुनाई पड़ती है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पांचवें पू. सरसंघचालक श्री सुदर्शन जी के विचार:
उनका संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी, बंगला, कन्नड़, असमिया, पंजाबी आदि भाषाओं पर उनका समान अधिकार था। मूल रूप से कन्नड़ भाषी होने के बाद भी वे राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी के प्रबल समर्थक थे। हिन्दी भी शुद्ध लिखी और बोली जाए इसका वे लगातार आग्रह करते थे। शिक्षा मातृभाषा में होनी चाहिए, इसके लिए तो उन्होंने एक अभियान ही चला दिया था। इसी तरह स्वदेशी के प्रयोग पर भी सदैव जोर देते थे।
शोध से पता चलता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हिंदी के विकास में योगदान दिया है, विशेष रूप से इसे अपनी कार्य भाषा के रूप में अपनाकर और दूरदराज के क्षेत्रों में इसके प्रसार में। हालांकि, यह विवादास्पद रहा है, खासकर हिंदी थोपने के आरोपों के संदर्भ में। फिर भी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण सभी भारतीय भाषाओं को समान महत्व देना रहा है, जो इसकी रणनीति की जटिलता को दर्शाता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की 1958 की भाषा नीति :
हिंदी को राष्ट्रीय भाषा और क्षेत्रीय भाषाओं को राज्य स्तर पर उपयोग के लिए बढ़ावा देती है, साथ ही संस्कृत के अनिवार्य अध्ययन पर जोर देती है।
यह नीति राष्ट्रीय एकता को बढ़ाने और भाषाई विविधता को संरक्षित करने का प्रयास करती है, लेकिन हिंदी थोपने और संस्कृत को अनिवार्य बनाने पर विवाद है।
वर्तमान में हिंदी आधिकारिक भाषा है, लेकिन अंग्रेजी का उपयोग भी जारी है, और संस्कृत वैकल्पिक है।
नीति का संक्षिप्त विवरण:
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की 1958 की भाषा नीति का मुख्य उद्देश्य हिंदी को सामान्य राष्ट्रीय संचार के लिए बढ़ावा देना है, जबकि राज्य स्तर पर क्षेत्रीय भाषाओं का उपयोग करना और संस्कृत को अनिवार्य रूप से पढ़ाना है। यह नीति यह भी सुनिश्चित करती है कि किसी भी भाषा के आधार पर भेदभाव न हो।
1958 में, भारत स्वतंत्रता के शुरुआती वर्षों में था और भाषा नीति एक विवादास्पद मुद्दा थी। संविधान ने हिंदी को आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दी, लेकिन गैर-हिंदी बोलने वाले राज्यों, विशेष रूप से दक्षिण में, हिंदी थोपने का विरोध था।
वर्तमान प्रासंगिकता:
आज, हिंदी आधिकारिक भाषा है, लेकिन अंग्रेजी का उपयोग उच्च शिक्षा और केंद्रीय सरकार के संचार में जारी है। त्रिभाषा सूत्र शिक्षा में बहुभाषावाद को बढ़ावा देता है और संस्कृत वैकल्पिक विषय के रूप में पढ़ाई जाती है। यह नीति राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक विरासत को बढ़ावा देती है, लेकिन हिंदी थोपने और संस्कृत को अनिवार्य बनाने पर विवाद बना हुआ है।
यह नीति राष्ट्रीय एकता को बढ़ाने और भारत की सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने का प्रयास करती है, लेकिन इसके कार्यान्वयन में कई चुनौतियां हैं।
1958 में, भारत स्वतंत्रता के शुरुआती दशकों में था और भाषा नीति एक संवेदनशील मुद्दा थी। संविधान ने अनुच्छेद 343 के तहत हिंदी को संघ की आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दी, लेकिन अंग्रेजी को कुछ उद्देश्यों के लिए उपयोग करने की अनुमति भी दी, विशेष रूप से तब तक जब तक राष्ट्रपति आवश्यक समझें। यह संक्रमणकालीन अवधि 1965 में समाप्त होनी थी, लेकिन गैर-हिंदी बोलने वाले राज्यों, विशेष रूप से दक्षिण भारत में, हिंदी थोपने का विरोध हुआ। इसने हिंदी के खिलाफ हिंसक आंदोलनों और विरोध प्रदर्शनों को जन्म दिया, जिसके परिणामस्वरूप 1963 का आधिकारिक भाषा अधिनियम पारित हुआ, जिसने अंग्रेजी के निरंतर उपयोग को सुनिश्चित किया।
इस संदर्भ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नीति 1958 में सरकार की संवैधानिक निर्देशों के पालन न करने की आलोचना करती है और हिंदी को पूरी तरह से अपनाने की वकालत करती है, जिसे उसने मानसिक दासता से मुक्ति के रूप में देखा।
आज भारत में क्षेत्रीय भाषाएँ अपने-अपने राज्यों में आधिकारिक भाषा के रूप में मजबूती से स्थापित हैं। संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है और राज्य सरकारें अपने कामकाज में इनका उपयोग करती हैं। आरएसएस की नीति का यह पहलू वर्तमान व्यवस्था के अनुरूप है। हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी और अंग्रेजी का उपयोग जारी है, जो आरएसएस की अंग्रेजी को पूरी तरह से हटाने की माँग से मेल नहीं खाता।
आरएसएस की क्षेत्रीय भाषा नीति भारत की भाषाई विविधता को स्वीकार करते हुए इसे हिंदी और संस्कृत के साथ जोड़ने का प्रयास करती है। यह नीति क्षेत्रीय भाषाओं को राज्य स्तर पर सशक्त बनाने और राष्ट्रीय एकता को बढ़ाने के बीच संतुलन बनाने की कोशिश करती है। हालाँकि हिंदी को प्राथमिकता और संस्कृत की अनिवार्यता जैसे पहलू गैर-हिंदी भाषी क्षेत्रों में विवाद का कारण बन सकते हैं। संगठन के व्यावहारिक कार्यों में क्षेत्रीय भाषाओं का उपयोग इस नीति की प्रासंगिकता को दर्शाता है, लेकिन इसे राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने के लिए और अधिक समावेशी दृष्टिकोण की आवश्यकता हो सकती है।
अंततः इस बात को सभी को स्वीकार करना होगा कि राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीयता की भावना सदृढ़ करने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी, गृहमंत्री श्री अमित शाह जी, केंद्रीय मंत्री गडकरी सहित अनेक नेताओं की पृष्ठभूमि और मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की रही है। जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं है, फिर भी उन्होंने अपने विचार हमेशा हिंदी में प्रस्तुत किए हैं।
अनेक दक्षिण और पूर्वोत्तर के भारतीय जनता पार्टी के नेता जिनका संबंध संघ से रहा है, उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर अपने विचार सांसद और प्रचार सभाओं में हिंदी को अपनाया हैं।
~ विजय नगरकर
अहिल्यानगर, महाराष्ट्र