आम अनुभव यही था कि जगदीप धनखड़ कभी-कभी अपने अक्खड़पन में सरकार की मंशा की उपेक्षा भी कर देते थे। ऐसा लगता है कि न्यायमूर्ति वर्मा भ्रष्टाचार मामले में जगदीप धनखड़ ने लोकसभा के विपरीत स्वविवेक से आनन-फानन में निर्णय लिया और इसकी घोषणा कर दी।
उपराष्ट्रपति पद से जगदीप धनखड़ का अचानक त्यागपत्र निस्संदेह सामान्य तौर पर अचंभित करने वाला है। दिन में वे सदन का सामान्य तौर पर संचालन कर रहे थे, शाम 4:30 बजे कार्यमंत्रणा समिति की बैठक में विपक्ष के साथ बैठे थे और रात 9:20 में उनका इस्तीफा आ गया। चूंकि उन्होंने अपने त्यागपत्र में स्वास्थ्य कारण दिया है तो रिकॉर्ड में वही रह गया। लोग प्रश्न उठा रहे हैं कि स्वास्थ्य कारण था तो उन्होंने पहले त्याग पत्र क्यों नहीं दिया? इस समय विपक्ष विशेषकर कांग्रेस पार्टी जिस तरह उनके प्रति सहानुभूति दिखाते हुए बयान दे रही है उस पर किसी टिप्पणी की आवश्यकता नहीं।
यही विपक्ष है, जिसने धनखड़ के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाने की घोषणा की और इसकी तैयारी भी शुरू हो गई थी। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सीधे-सीधे सभापति की निष्पक्षता पर सदन के अंदर प्रश्न उठाने लगे थे। अनेक बार सरकार से ज्यादा तनातनी और मोर्चाबंदी विपक्ष की सभापति के रूप में जगदीप धनखड़ के साथ हुई है। इसलिए इस्तीफा के बाद कांग्रेस का यह कहना कि उन्होंने जहां तक संभव हो सका विपक्ष को जगह देने की कोशिश की हास्यास्पद ही माना जाएगा।
धनखड़ ने जिस तरह अचानक इस्तीफा दिया उस पर विपक्ष के नाते प्रश्न उठाना, सरकार को संदेह के घेरे में लाना अस्वाभाविक नहीं है। वैसे भी वर्तमान विपक्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार के साथ संवैधानिक संस्थाओं को भी लगातार संदेह के घेरे में लाने की जिस घोर अस्वीकार्य रणनीति पर चल रहा है उसमें उसके द्वारा ऐसे हर अवसर का राजनीतिक उपयोग करना ही है।
वस्तुत: उपराष्ट्रपति के रूप में धनखड़ के प्रति कांग्रेस और ज्यादातर विपक्ष का सम्मान या लगाव बिल्कुल नहीं हो सकता। यह जगदीप धनखड़ ही थे जिन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष और राज्य सभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को कहा कि आप राष्ट्र को डीस्टेबलाइज करने में लगे हैं और मैं इस डीस्टेबलाइजिंग प्रोग्राम का भाग नहीं हो सकता। आसन से इससे निंदाजनक टिप्पणी किसी नेता के विरुद्ध कुछ हो ही नहीं सकती। व्यक्तिगत बातचीत में विपक्ष के नेता खुलकर जगदीप धनखड़ के प्रति असम्मानजनक शब्दों का प्रयोग करते थे। सदन के अंदर और बाहर उनकी नकल तक की गई। इसलिए धनखड़ के प्रति समर्थन दिखा रहे विपक्ष के इस स्टैंड को गंभीरता से नहीं लिया जा सकता।
हां, भारत के इतिहास में किसी उपराष्ट्रपति ने अचानक तत्काल प्रभाव से लागू करने का आग्रह वाला त्यागपत्र कभी दिया नहीं था तो इस पर गंभीर चर्चा होगी। इससे जुड़े हुए दो मुख्य प्रश्न है। पहला, आखिर ऐसी क्या स्थिति उत्पन्न हो गई जिस कारण दिन में सदन संचालन करने के बाद रात में उन्हें इस्तीफा देना पड़ा? दूसरे, उनके इस्तीफे के बाद आखिर उपराष्ट्रपति का दायित्व कौन संभालेगा?
हमें आपको यह अचानक लगता हो लेकिन इसका आधार निश्चित रूप से काफी पहले से बन रहा होगा। धनखड़ जी द्वारा विपक्ष पर हमला करना, उन्हें लगातार सीख देना, आसन से उनके विरुद्ध ऑर्डर पास करना आदि देखकर भले भाजपा के सामान्य समर्थक उनके प्रशंसक हो गए थे। पर यही स्थिति शीर्ष नेतृत्व की नहीं हो सकती थी। इस मामले में आपको लोकसभा एवं राज्यसभा के बीच गुणात्मक अंतर दिखाई देगा।
लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को भी राहुल गांधी के नेतृत्व में आक्रामक विपक्ष का हर मिनट सामना करना पड़ता है लेकिन वहां से कभी राज्यसभा के आसन की तरह का प्रत्याक्रमण का व्यवहार नहीं दिखा। आसन से बार-बार हस्तक्षेप और उनके लंबे वक्तव्य को भाजपा का शीर्ष नेतृत्व ही नहीं गंभीर और परिपक्व नेता पसंद नहीं करते थे। विपक्ष के अनर्गल व्यवहार पर थोड़ी बहुत टिप्पणी तो स्वीकार हो सकती है लेकिन बिल्कुल आसन का आमने-सामने हो जाना यह सरकार के लिए भी अच्छा नहीं था। अगर उनके पूरे कार्यकाल को देखेंगे तो सभापति से विपक्ष के टकराव का ऐसा इतिहास इसके पूर्व किसी कार्यकाल में नहीं मिलेगा।
अनेक भाजपा सांसदों की शिकायत थी कि उनके आवश्यकता से अधिक बोलने के कारण हम लोगों के बोलने का समय घट जाता है। न्यायपालिका के विरुद्ध उनके आक्रामक रुख निश्चित रूप से सरकार के लिए समस्या पैदा करने वाली थी। आखिर उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रपति की शक्तियों के बारे में फैसला दे दिया और वहां से कोई विपरीत वक्तव्य नहीं आया और न सरकार ने ही इसका सीधा विरोध किया। यह उपराष्ट्रपति के रूप में जगदीप धनखड़ के लिए एक सीख थी कि न्यायपालिका के प्रति हमारा व्यवहार कैसा होना चाहिए। शीर्ष नेतृत्व का निश्चित रुप से उपराष्ट्रपति से अपने एप्रोच में थोड़ा बदलाव का आग्रह रहता होगा।
उपराष्ट्रपति की संविधान के अनुसार स्वतंत्र स्वायत्त भूमिका है। वह सरकार या पार्टी का भाग नहीं हो सकते। व्यवहारिक तथ्य यही है कि वह राज्यसभा के सभापति भी होते हैं इसलिए प्रत्येक उपराष्ट्रपति को सरकार के साथ समन्वय बनाकर काम करना पड़ा है। राज्यसभा का सभापति होने के कारण विधेयकों का पारित होना या अन्य विधायी कार्यों का सुचारू रूप से संपन्न होना आवश्यक है। इस नाते प्रधानमंत्री, संसदीय कार्य मंत्री और अन्य जिम्मेदार व्यक्ति हमेशा उपराष्ट्रपति के साथ तालमेल बनाए रखते हैं।
आम अनुभव यही था कि जगदीप धनखड़ कभी-कभी अपने अक्खड़पन में सरकार की मंशा की उपेक्षा भी कर देते थे। ऐसा लगता है कि न्यायमूर्ति वर्मा भ्रष्टाचार मामले में जगदीप धनखड़ ने लोकसभा के विपरीत स्वविवेक से आनन-फानन में निर्णय लिया और इसकी घोषणा कर दी। आप लगभग 8 मिनट के उनके भाषण को देखेंगे तो वह कह रहे हैं कि दोनों सदनों में एक साथ महाभियोग प्रस्तुत होने के बाद राज्यसभा अपने अलग नियम से काम करती है। उस पर फैसला देना आसन के विशेषाधिकार में आता है। इस मामले में सरकार और विपक्ष के बीच कई बिंदुओं पर असहमति है। सरकार का कहना है कि चूंकि उच्चतम न्यायालय के तीन सदस्य समिति पहले ही अपना निष्कर्ष दे चुकी है इसलिए अलग से समिति बनाने की आवश्यकता नहीं है जबकि विपक्ष के कुछ नेता समिति बनाने की मांग कर रहे हैं। सरकार के स्तर पर यह विमर्श ही चल रहा था कि हमें क्या रणनीति अपनानी चाहिए और उसमें आसन बगैर संवाद के इस तरह घोषणा कर दे तो समस्या खड़ी होगी। एक बार आसन पर बैठकर यह घोषणा करने के बाद पुनर्विचार का भी आधार नहीं रह गया था।
हालांकि उनके जाने से तात्कालिक रिक्तता पैदा हुई है। सरकार के विरुद्ध एकपक्षीय आक्रामक विपक्ष को सदन में हैंडल कर रहे व्यक्ति के एकाएक जाने से कुछ समस्या अवश्य पैदा होती है। सदन के अंदर उपसभापति हरिवंश की भूमिका काफी परिपक्व रही है और वे इस समय की परिस्थितियों को निश्चित रूप से कुशलतापूर्वक संभालने में सक्षम हैं। हां, आगे उपराष्ट्रपति पद पर सरकार को ऐसे व्यक्ति का चयन करना है जो राजनीति के साथ सदन का भी प्रत्यक्ष अनुभव रखता हो या इसकी पूरी जानकारी वाला हो। साथ ही जिनके विचार व व्यवहार में संतुलन तथा विपक्ष के साथ निपटने की रणनीति में निपुणता की संभावना वाले व्यक्ति को लाना पड़ेगा।
भाजपा एक बड़ी पार्टी है और इसमें योग्य अनुभवी लोग आज भी हैं। इसलिए यह कल्पना निरर्थक है कि भाजपा या सरकार के लिए इससे कोई बड़ा संकट पैदा हो जाएगा। भाजपा और घोर मोदी विरोधी हामिद अंसारी जैसे उपराष्ट्रपति के कार्यकाल में सरकार ने सफलतापूर्वक सदन की अपनी भूमिका निभाई और विधायी कार्य संपन्न कराये। इसलिए कोई बड़ी समस्या सरकार के सामने पैदा होगी ऐसा लगता नहीं है। वैसे भी सदन में फ्लोर मैनेजमेंट के पीछे सभापति के साथ सत्ता पक्ष की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। सभी शासनकाल में हमने संसदीय कार्य मंत्री को सभापति, उपसभापति दोनों से सदन संचालन पर बात करते और सरकार की मंशा बताते देखा-सुना है। इस समय किसी व्यक्ति या इस संदर्भ में व्यक्ति या व्यक्तियों का नामोल्लेख उचित नहीं होगा। जो नाम सोशल मीडिया में या हवा में तैर रहे हैं उनमें ज्यादातर अटकलें हैं। हमें थोड़ी प्रतीक्षा करनी होगी।
हां, इस घटना का स्थायी सबक यही है कि किसी पद पर आसीन व्यक्ति को अपनी सीमाओं व मर्यादा का हर क्षण भान रहना आवश्यक है तथा व्यवहार का एकमात्र मापदंड अति विपरीत और विकट परिस्थितियों में भी वक्तव्य और आचरण में संतुलन बनाए रखना है।