प्रकृति ने हमें जो सौंदर्य दिया है उसकी अभिवृद्धि करना ही फैशन है। वह समाज के हर स्तर से गुजरती है। व्यक्ति की संस्कृति, उसकी परंपरा और उसके विचारों का प्रतिबिंब उसमें होता है। अकेले फैशन शब्द में ही सारी दुनिया का कला-कौशल समाया है।
व्यक्ति का सुंदर रूप देखकर मन प्रसन्न होता है। लिहाजा, जो नेत्रों को सुहाए वही सौंदर्य है। शकुंतला के सौंदर्य से प्रभावित दुष्यंत ने उसे देखते ही ‘लब्ध नेत्र निर्वाणाम्’ कहा था। शकुंतला ने अपने बाह्य-सौंदर्य को अलंकारों, प्रसाधनों एवं रंगों से निखारा होगा। इसी बाह्य रूप ने दुष्यंत पर जादू कर दिया। शकुंतला के सौंदर्य, वेशभूषा, सजधज को देखकर दुष्यंत ने उन दिनों जो कहा, वह आज भी सौंदर्य से जगमगाती किसी फैशनेबल स्त्री की ओर देखकर कहा जाता है। इसमें सराहना अधिक, फब्तियों का हिस्सा कम है।
अब भले ही ‘चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो, जो भी हो तुम लाजवाब हो’ जैसे सौंदर्य और फैशन के दिन लद चुके हों, परंतु सौंदर्य की मोहित करने की ताकत बरकरार है। सौंदर्य के प्रति आकर्षित होना मानव की सहज प्रवृत्ति है। वह प्रकृति की देन है। सभी जीवों में मनुष्य को ही विवेक-बुद्धि प्राप्त है और वह सुंदर-कुरूप, सुगंध-दुर्गंध, भला-बुरा के बीच भेद कर सकता है। यह सहज है कि जो रम्य है उसे ही व्यक्ति चुनता है। मानव पूरी सृष्टि में कोई सब से सुंदर जीव नहीं है। लेकिन, एक खास बात उसे अन्य जीवों से अलग करती है और वह है उसे प्राप्त सृजन की क्षमता।
मानव केवल प्रजनन तक सीमित नहीं है। उसे उपलब्ध सामग्री का उपयोग कर अपनी मनभावन कलाकृतियां निर्मित करने की क्षमता प्राप्त है। वह स्वतंत्र दृष्टि रखता है, उसका उपयोग कर प्रतिसृष्टि निर्माण करने का कौशल भी उसके पास है। इसलिए मनुष्य और उसका अस्तित्व सृजन से ही जुड़ा है। ‘मैं जहां हूं, वहां कुछ न कुछ नया करूंगा’ यह जब व्यक्ति कहता है तब वह अपने बीच के सुंदर रूप को ही प्रस्तुत करता है। यही कारण है कि तिनका-तिनका जोड़कर निर्मित उसकी झोपड़ी भी ताजमहल का सौंदर्य पाती है।
हर व्यक्ति में एक सृजक छिपा होता है, ठीक वैसे ही जैसे एक बीज में एक वृक्ष छिपा होता है। उसमें जीवन और दुनिया के प्रति कौतूहल होता है। यही कौतूहल सृजन का जन्मदाता है। इसी कौतूहल का प्रतिरूप है मनुष्य की सुंदर दिखने की प्राकृतिक उमंग। मनुष्य जब से अस्तित्व में आया तब से ही शायद सजने-संवरने की उसकी कोशिशें जारी रही होंगी। शायद किसी सजीधजी स्त्री को किसी ने सुंदर कहा होगा। यह भी हो सकता है कि पानी भरते समय नदी में उसने अपनी छवि देखी होगी, जो उसे सुंदर लगी होगी। फिर इससे भी अधिक सुंदर दिखने की होड़ में सौंदर्य की साधना और वेशभूषा का सफर आरंभ हुआ होगा।
आरंभ में गुफा में रहने वाली स्त्री भी शिकार से प्राप्त चमड़ा ओढ़ती थी। केवल कौतूहल के कारण मनुष्य अपने शरीर पर रंगबिरंगे पत्थर, हत्थीदंत, पंछियों के पंख आदि धारण करता होगा। इस तरह आरंभिक काल में मनुष्य की आवश्यकता, कौतूहल और कुछ नया करने की स्वाभाविक उमंग से ही फैशन का जन्म हुआ होगा। कहते हैं कि, आदि मानव ने हजारों वर्ष पूर्व चर्म-वस्त्रों, फूलों, हत्थीदंतों से बने आभूषणों, वानस्पतिक रंगों से अपने शरीर को सजाया, और यहीं से फैशन का जन्म हुआ। जब आदि मानव ने चर्म-वस्त्र पहना अपना रूप पानी में देखा होगा तो अपनी छवि पर ही खुश होकर वह अवश्य झूमा होगा। फैशन के बीज उसी समय बोये गए होंगे।
पुराण और इतिहास काल में लोगों के परिधानों-वेशभूषाओं आदि का जो वर्णन मिलता है, उससे प्रश्न उठता है कि आखिर उनके फैशन डिजाइनर थे कौन? प्राचीन ग्रंथ तो इसे नहीं बताते; लेकिन यह अवश्य है कि पुरातन व ऐतिहासिक काल से चली फैशन की घुड़दौड़ आज तक कोई रोक नहीं सका है। उन दिनों, फूलों से बने रंग आदमी के मेकअप का सामान था। वह अपनी प्रियवर के लिए फूल-पत्तों की आकर्षक चीजें बनाता था। पशुओं की हड्डियों के गहने बनाता था।
रामायण का उदाहरण लें। सीता को भी स्वर्ण-मृग के चमड़े का आकर्षण महसूस हुआ। यदि सीता स्वर्ण-मृग की खाल से वस्त्र बनाने का आग्रह नहीं धरती और राम भी उसकी बात मानकर उसके पीछे नहीं भागते तो रामायण ही नहीं होता! इसमें से रामायण का मुद्दा छोड़ दें और महज फैशन की दृष्टि से उस पर गौर करें तो दिखाई देगा कि उस काल में भी वेशभूषा, साजसज्जा और मनपसंद वस्तु पाने के लिए लोग कितनी जेहमत उठाते थे। आज भी फैशन के बदलते ट्रेंड को हथियाने के लिए लोग कैसे लालायित रहते हैं।
लोग सौंदर्य और फैशन के अनादि अनंत काल से दीवाने हैं। भोजन, पानी, हवा मनुष्य की प्राकृतिक जरूरतें हैं, लेकिन सौंदर्य-साधना और अपने सौंदर्य को प्रस्तुत करना मनुष्य की प्राकृतिक उमंग है। सौंदर्य की मूलभूत प्रवृत्ति के हम सभी उपासक हैं। प्रकृति से हमें जो रूप मिला उसे अधिक सुंदर तरीके से प्रस्तुत करने का प्रयास अनादि काल से निरंतर चल रहा है। हमारे आसपास क्षण-क्षण बदलती और सदा मोहक रूप धारण करने वाली प्रकृति से ही हमें सौंदर्य की स्वाभाविक प्रेरणा मिली होगी। पतझड़ के बाद वृक्षों पर आते कोमल पत्ते, रंगबिरंगी फूल, सुगंध व चैतन्य को बिखेरता वसंत, बाद में आने वाली वर्षा, उसमें शांत और शीतल हरियाली, आकाश में प्रातः और शाम में बदलने वाली रंगछटाएं, विभिन्न पंछियों, फूलों, फलों का रंगोत्सव आंखों को स्तंभित और मन को आल्हादित, मोहित करने वाला प्रकृति का खेल है। यह सबकुछ मनुष्य की सौंदर्य-साधना और फैशन में आने वाले निरंतर परिवर्तनों की प्राकृतिक प्रेरणा रहा है।
प्रकृति से आदमी फैशन करना सीखा होगा। उसने वस्त्र निर्मिति की विविधता का शास्त्र प्रकृति से ही आत्मसात किया होगा। अलंकारों की मनमोहनी कला प्रकृति के वृक्ष-लताओं से ही प्राप्त की होगी। और, अब यह सौंदर्य वृत्ति ही मानवी जीवन का अभिन्न अंग बन चुकी है। सौंदर्य, प्रसाधन, रूप, श्रृंगार, अलंकार, वेशभूषा ये सभी समानार्थी शब्द हैं। प्रकृति ने हमें जो सौंदर्य दिया है उसकी अभिवृद्धि करना ही फैशन है। मानव जैसे-जैसे विकसित होता गया वैसे-वैसे उसने विभिन्न साधनों के उपयोग करने वाले शास्त्रों की खोज की और उन्हें विकसित किया। अतः देश, संस्कृति, व्यक्ति, प्रवृत्ति के अनुसार सौंदर्य के साधनों और प्रकारों में परिवर्तन होता गया। उसे ही हम फैशन के मोहक नाम से पहचानते हैं। हर व्यक्ति अनुभव, पसंद, मन की कल्पनाओं व उसकी व्यक्तिगत शैली के अनुसार बदलता है और अपनी पहचान कायम करने का प्रयास करता है। इसे ही फैशन कहते हैं। इसी तरह के परिवर्तनों से फैशन का कोई प्रकार चल निकलता है।
फैशन समाज के हर स्तर से गुजरती है। यही नहीं, व्यक्ति की संस्कृति, उसकी परंपरा और उसके अपने विचारों का प्रतिबिंब हर फैशन में दिखाई देता है। कभी-कभी एक ही फैशन बदल-बदलकर फिर फिर अस्तित्व में आती है। फैशन ने पूरा भू-मंडल पादाक्रांत किया है। अकेले फैशन शब्द में सारी दुनिया का कला-कौशल समाया लगता है। मानव की प्रकृतिगत खोजी प्रवृत्ति, उसके द्वारा आत्मसात कला-कौशल के अनुसार विकास, समृद्धि, उन्नति के सैकड़ों मार्ग अक्षरशः ‘लाल दरी’ बिछाकर उसका स्वागत कर रहे हैं। मॉडलिंग और फैशन डिजाइनर फैशन की दुनिया के प्रत्ययवाची शब्द बन चुके हैं। कपड़े, केश विन्यास, गॉगल, वाहन, बाइक, जैकेट्स, सौंदर्य प्रसाधनों इन सब से व्यक्ति की एक छवि उभरती है। यही परिधान, केश विन्यास आकर्षक साबित होने पर फैशन में शुमार हो जाता है। बीच में, भारतीय क्रिकेटर धोनी का केश विन्यास सारे भारतीयों को मोहित करने वाला सिद्ध हुआ। दिलीप कुमार जैसी बालों की स्टाइल के लिए आईने के सामने घंटों खड़े रहने वाले महान लोग आपको याद आते ही होंगे। साधना कट, मुमताज कट बाल एक जमाने में महिलाओं के लिए प्रत्ययवाची शब्द थे। मैंने प्यार किया की ड्रेस अथवा देवदास फिल्म की साड़ी, विभिन्न नायिकाओं की वेशभूषा महिलाओं के मन में पैठ जमाए थी। सौंदर्य शब्द मन को सुकून देने वाला और बहुत व्यापक शब्द है। इसलिए सौंदर्य कहने पर व्यक्ति के मन में भिन्न-भिन्न बातें उभरती हैं। किसी को आलिया भट, किसी को हेमामालिनी तो किसी को मर्लिन मन्रो, एलिजाबेथ टेलर सुहाती है, तो किसी को अमिताभ बच्चन, राजकपूर, देवानंद, ॠषि कपूर अच्छे लगते हैं। किसी प्रकृति प्रेमी को हरे-भरे पर्वत भांते हैं, किसी संगीत प्रेमी को कोई सुरीली महफिल याद आती है, किसी पेटू को भिन्न-भिन्न व्यंजनों से सजी थाली याद आती है, किसी मेधावी को स्वामी विवेकानंद, ज्ञानेश्वर याद आते हैं तो क्षात्र तेज के साधक को छत्रपति शिवाजी महाराज, राणा प्रताप, भगतसिंह का स्मरण हो आता है। इनमें से हरेक के व्यक्तित्व का सौंदर्य अलग है, हरेक की सौंदर्य की दृष्टि अलग है, सो सौंदर्य की उनकी परिभाषा भी अलग है।
मानव वंश के आरंभ में केवल कौतूहल के रूप में स्वीकार किए गए सौंदर्य प्रसाधन धीरे-धीरे जीवन का अभिन्न अंग बनते गए। फिर वह सुंदर/असुंदर का भेद करने लगा। अपनी कल्पनाशीलता को और आकर्षक बनाने का उसने प्रयास किया। प्रसाधनों की उपलब्धता व उपयोग में दिक्कतें दूर कर उन्हें सहज और आसान बना दिया। लेकिन अब उसमें व्यावसायिकता आ गई है। हर देश में वहां की जलवायु के अनुसार भिन्न-भिन्न फैशन होती है। अरब प्रदेशों में धूप व रेतीले तूफानों से बचने के लिए आदमकद पेहराव खासियत बन गई। ठण्डे इलाकों में ठण्ड से बचने के लिए झबरें वस्त्र होते हैं। पश्चिमी देशों में कम से कम वस्त्र पहने जाते हैं। वे वहां भीषण सर्दी के बाद आने वाली जानलेवा गर्मी से बचने के लिए हैं। लेकिन, फैशन के रूप में भारत में भी इस तरह का पेहराव अपनाया जाने लगा है। यह तो कोरा पागलपन ही है। लेकिन, फैशन में सबकुछ माफ होता है। क्योंकि, पागलपन ही फैशन है।
जब तक इस तरह का दीवानापन न हो तब तक फैशन के क्षेत्र मेें कोई मुक्त विहार न कर सकेगा। आदिम समय में धूप, बारिश, ठण्ड, सांप, बिच्छू से सुरक्षा के लिए पेड़ के पत्ते शरीर पर लपेटने वाला आदमी अपनी कल्पनाशीलता के बल पर अब नए-नए और भिन्न-भिन्न वस्त्रों तक पहुंचा है। लाल खड़िया, लाल रंग, वानस्पतिक रंग शरीर में लगाने वाला मानव आज लिपस्टिक, नेल पॉलिश, मेकअप के विभिन्न साधनों तक पहुंच चुका है। इसी धुन और अपनी कल्पना शक्ति का उपयोग कर उसने अपने सौंदर्य में विविधता लाने की कोशिश की है। ये प्रयास भी फैशन के लिए होने वाली जद्दोजहद का हिस्सा है।
समय के साथ पसंद-नापसंद बदलती जाती है। दस साल पहले तक सोने के गहनों से लदी महिलाएं अपने आसपास दिखाई देती थीं, लेकिन अब वैसा नहीं है। उस पीढ़ी की भी दृष्टि बदल गई है। ‘लंका की पार्वती’ की तरह कोई गहना, बिंदिया, चूड़ियां न पहनी औरतें अपने आसपास दिखाई देती हैं। फैशन में सौंदर्य दृष्टि, सौंदर्य के बारे में विचार निरंतर बदलते रहते हैं। इसलिए आज के इन परिवर्तनों के कारण इस क्षेत्र में निरंतर जीवंतता दिखाई देती है। फिर भी, सौंदर्य के बारे में अलग तरीके से विचार करने वाली विचारधारा भी अपने यहां मौजूद है।
सुंदर दिखना मानव की सहज प्रवृत्ति है। उसे पाने के उपाय समय व परिस्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं; फिर भी सुंदर दिखने की मूलभूत और सनातन इच्छा बनी रहती है। फैशन का अर्थ ही है, जो देखने और सुनने में सुंदर लगे। याने जो आंखों को सुहाता है, सुनने में आनंददायी लगता है वही सच्चा सौंदर्य है। भारतीय विद्वानों ने सौंदर्य को सृष्टि की आत्मा कहा है। वे कहते हैं, सौंदर्य शुद्ध, पवित्र और निरपेक्ष होता है- याने उसे किसी बात की अपेक्षा नहीं होती। उदाहरण ही देना हो तो अपने आसपास की प्रकृति को निरपेक्ष सौंदर्य का सच्चा रूप कहा जा सकता है। सौंदर्य अन्य पर निर्भर होता है।
लेकिन, एक ऐसा सौंदर्य है जिसके लिए किसी भी बात की आवश्यकता नहीं है। वह है ईश्वर! ईश्वर सुंदर इसलिए है क्योंकि वह व्यक्ति, वस्तु व स्थिति सर्वत्र उपलब्ध होता है। ईश्वरी सौंदर्य में मन रम गया कि वह सौंदर्य शरीर में समाते जाता है। कांति में एक अलौकिक चमक आ जाती है। इससे उसकी त्वचा और रंग एक अनोखे तेज से दीप्तिमय होते हैं। मन का सौंदर्य दिव्य विचारों में होता है। वैचारिक सौंदर्य बहुत बलवान होता है। व्यक्ति को एक पावन भाव-सौंदर्य का अनुभव होता है। व्यक्ति के चिंतन और व्यवहारों से प्रकट होने वाला सौंदर्य ही सच्चा और कल्याणकारी है। जिसके प्रकटीकरण से दिव्य सौंदर्य की अनुभूति होती है। यह मानने वाला वर्ग हमारे देश में है।
मानवी मन पर दीर्घकाल तक प्रभाव डालने की क्षमता बाह्य-सौंदर्य में नहीं है, वह आंतरिक सौंदर्य में है। इसलिए कि मानवी सौंदर्य केवल विचारों से तय नहीं हो सकता, उसे आचारों की भी अत्यंत आवश्यकता होती है। इसी कारण प्रेम करने वाले को सौंदर्य के कोई मापदंड हम नहीं लगाते। ये लोग तो सदा खास ही होते हैं। सौंदर्य आंतरिक प्रेम में भी छिपा होता है। इस प्रेम के विविध रूप भी हम अपने आसपास देखते हैं। कभी मां की ममता के रूप में, कभी दोस्त की यारी के रूप में, कभी प्रकृति के रूप में। अतः सौंदर्य और उसके माध्यम से उत्पन्न फैशन मन को मोहित अवश्य करती है, परंतु उसमें जिज्ञासा का अभाव होता है। भारतीय फैशन कौतूहल से भले निर्मित हुई हो लेकिन उसमें कल्पना व संवदेना का अंग है। इसलिए भारतीय फैशन अनंत काल से बदलती रही है। किंतु, उसने लक्ष्मण रेखा नहीं लांघी। भारतीय जनमानस फैशन की निर्मिति करते समय बाह्य-सौंदर्य और आंतरिक सौंदर्य दोनों का मिलाप करते दिखाई देता है। स्वामी विवेकानंद, छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप, संत ज्ञानेश्वर, संत मीराबाई सौंदर्य की किस परिभाषा में बैठते हैं? लेकिन, राष्ट्रप्रेम, भक्ति, विद्वत्ता ने उन्हें सौंदर्य के एक अलग ही ऊंचाई पर पहुंचा दिया। इसलिए किसी भी चित्र में उनकी छवि हमें सुंदर ही लगती है। उनके सौंदर्य पर भारत ही नहीं, दुनियाभर के लोग फिदा हैं। इस तरह के सुंदर लोग भारत में बहुतायत में जन्म ले चुके हैं। इससे स्पष्ट है कि, सौंदर्य और सौंदर्य-प्रसाधनों का व्यक्ति के व्यक्तित्व से सीधा रिश्ता नहीं होता। इस तरह की सोच रखने वालों का भी भारत में एक वर्ग है।
जब हमें विश्वास हो जाता है कि विज्ञापनों के जरिए प्रचारित प्रसाधनों से ही सौंदर्य बढ़ता है या कि विभिन्न अलंकारों से ही सौंदर्य निखरता है, तब बाह्य-सौंदर्य की बढ़ती आसक्ति किस तरह का माहौल निर्माण करती है इसके अनेक उदाहरण हम अपने आसपास देखते हैं। असली सौंदर्य को किन्हीं बैसाखियों की जरूरत नहीं होती, इसका बेहतर उदाहरण है ईश्वर, प्रकृति और ऊपर उल्लेखित इतिहास पुरुष! सतही रूप पर मोहित हो जाना व्यक्ति का स्वभाव है। इसलिए दुनिया में सज्जन, विद्वान लोगों की कमी न होने पर भी विविध प्रसाधनों-उपकरणों के विज्ञापनों में अभिनेता-अभिनेत्रियों का बोलबाला होता है। उसका केवल बाह्य-सौंदर्य से सम्बंध होता है। किसी भी विज्ञापन में ऐसा कोई वैज्ञानिक, अध्यापक, डॉक्टर, समाजसेवक नहीं दिखाई देता, जो प्रत्यक्ष में उस क्षेत्र में कार्यरत हो। इसलिए विज्ञापन व मनोरंजन के दायरे से अपना सौंदर्य सिमटा नहीं होता। जानकार कहते हैं कि, “क्षण-क्षण नावीण्य प्राप्त करने वाले रूप को रमणीय रूप मानना चाहिए।” इस तरह सौंदर्य को परिभाषित करें तो निरंतर नावीण्य प्राप्त करने वाली इस दुनिया में सौंदर्य की अभिव्यक्ति मूल संकल्पना के अनुसार ही करनी होगी, ऐसा लगता है। भारतीय परम्परा में फैशन वही है जो देखने, सुनने, अनुभव करने और भविष्य के उत्कर्ष में उपकारी हो। उसका और भी उत्कर्ष हो यह समय की आवश्यकता है।