बंगलों से झोपड़ी तक

फैशन अपने भीतर की वह अनुभूति है जो मनुष्य को जीवन की शक्ति देती है, आत्मविश्वास देती है- फिर चाहे वह छोटा हो या बड़ा, युवा हो या बुजुर्ग, राजा हो या रंक। फैशन एक परिवर्तन है, जो किसी चीज का मोहताज नहीं है। जो भी अपने पास है उसके जरिए स्वयं को अभिव्यक्त करने का माध्यम है वह!

पूरे जीवन को हम छोड़ दें तो भी हम पाएंगे कि 24 घंटों  में हर क्षण न हम खुश रह पाते हैं, न हर क्षण हम शारीरिक या मानसिक रूप से स्वस्थ रहते हैं? ऐसे में फैशन जीवन को खुशी देने का एक बहुत बड़ा माध्यम होता है। सुनने में या पढ़ने में चाहे यह शब्द या विचार बहुत सही न लगे पर होता ऐसा ही है। क्योंकि फैशन का अर्थ सिर्फ सजना या आधुनिक कपड़े पहनना अथवा कुछ भी करने की मानसिकता नहीं है। न ही स्वतंत्रता को स्वच्छंदता में बदलकर उन्मुक्त जीवनशैली का कोई रूप है? फैशन तो अपने भीतर की वह अनुभूति है जो मनुष्य को जीवन की शक्ति देती है, आत्मविश्वास देती है- फिर चाहे वह छोटा हो या बड़ा, युवा हो या बुजुर्ग, राजा हो या रंक।

फैशन तो एक कला है। बिना शब्दों में अपने को व्यक्त करने की कला। जो मनुष्य को भीतर तक खुशियों से भर देती है। और यह खुशी यह नहीं देखती कि सामने वाला राजसिहांसन पर बैठा है या किसी झोपड़ी में। क्योंकि भाव या भावना किसी वर्ग में बंटी नहीं होती? ना ही ऊंच-नीच या जाति-धर्म में। इस पर सब का समान अधिकार होता है। हां, उसको अपनाने के तरीके समय एवं व्यक्ति के साथ बदलते रहते हैं।

मैं एक बार एक ऐसे स्कूल में गई जो किसी कन्सट्रक्शन प्रोजेक्ट के मजदूर बच्चों का था। चूंकि उनमें से कुछ बच्चों को मैं पढ़ाती थी तो उन्होंने मुुझे अपने स्कूल में गणतंत्र दिवस पर बुलाया था। मैं समय से कुछ पहले ही स्कूल पहुंच गई। मैंने देखा लगभग चालिस-पैंतालिस बच्चे, जिनमें लड़के-लड़कियां सभी थे, अपने-अपने छोटे भाई बहन की उंगली थामे एक छोटे से मैदान में इकट्ठे थे। कुछ बच्चे अकेले भी थे। वे खेल रहे थे। गुनगुना रहे थे या एक दूसरे को धक्का देते मेरी ओर इशारा कर रहे थे।

मुझे हंसी आ गई।

पर उस समूह में जो बात मुझे सबसे ज्यादा अच्छी लगी, वह थी आज से बीस वर्ष पहले के मजदूरों के बच्चों से ये बच्चे कहीं अच्छे ढंग से थे। इनके कपड़ो पर आज का रंग था। इनके बालों की कंघी और शैली, आज के समय के अनुसार थी। जूतें-चप्पल भी इन्होंने ठीक पहने थे। अर्थ यह है आज के फैशन की छाया में वे सारे लिपटे हए थे।

अच्छा लगा।

मुझे देखते ही, आंटी नमस्ते/ टीचर जी नमस्ते कहते वे शरमाते-सकुचाते मेरे पास आ गए। मैंने उनको प्यार किया। उनके साथ जुड़ते बच्चों के नाम पूछे। फिर मैंने उन लड़कियों को अपने पास बुलाया जो अपने कपड़े और बालों को ही ठीक करने में व्यस्त थीं। “फ्रॉक आपकी बहुत सुंदर है।” एक लड़की की कढ़ी हुई झालरदार फ्रॉक छूते मैंने कहा। उसने शरमा कर फ्रॉक का एक कोना मुंह में डाल लिया। मैंने पूछा-

“इंदिरा गांधी को जानती हो? अच्छा चलो ये बताओ-झांसी की रानी को?” सबने हां में सर हिलाया। “कहां देखा” मैंने एक छोटी सी लड़की से पूछा। उसने एक लड़के की ओर उंगली से ईशारा करके कहा- “उसके घर टीवी पर आती है।”

“अच्छा? और तुम?” मैने अनारकली सूट पहने एक लड़की से पूछा जो कुछ कहना चाह रही थी।

“ जी टीवी पर देखा?” उसने बाल झुकाते हुए अपने लाल लिपस्टिक लगे होंठ हिलाए।

“जानती हो कौन थी ये?”

“ जी रानी थी।”

“बहुत सुंदर थी। तलवार चलाती थी। सुंदर सुंदर गहना पहनती थी।”

“तुम्हें उसके गहने अच्छे लगे?”

“हूं” उसने सर हिलाया। और अपने पैरों में पड़ी पहनी चांदी की नग जड़ी पायल दिखाई और कहा- “हमने उसके जैसी पायल पहनी है।”

“किसने खरीदी ये पायल। तुमने?”

“नहीं! मां ने।”

“और यह लाली?”

“यह, उस घर की एक आंटी ने डिब्बा दिया था उसमें था। उसमें गाल पर लगाने वाला भी है। आंख में लगाने वाला भी।” उसका चेहरा बताते हुए चमक रहा था।

यह चमक क्या है? यह उस बच्ची की आत्मशक्ति है। उसका विश्वास हैं कि वह भी कुछ है। उसका भी मान है। और यही तो फैशन है? यह श्रृंगार उसे समझा रहा था कि महल अथवा घनाढ्य के जैसी तो नहीं है पर कुछ नहीं है ऐसा भी नहीं है। इस भाव ने उसकी उम्र को उसके भाव के साथ ससम्मान बांधे रखा था।

फैशन को, प्राचीन काल से लेकर आज तक जीवन देने का काम हमारे देश की उत्सवधर्मिता ने किया है। प्राचीन काल से ही हमारा देश उत्सवधर्मी और श्रृंगारिक रहा है। चाहे वह राजसिंहासन पर बैठे राजकुल के लोग रहे हों। उनका रनिवास रहा हो या उनकी प्रजा। अथवा जंगल को जीते मनुष्य हों। सबकी पने जीवन की, अपनी प्रकृति और परिवेश के अनुसार साज-सज्जा और जीवनशैली थी। राजकुल की महिलाएं यदि सोने चांदी को तारो की कढ़ाई से सजे वस्त्र और स्वर्णाभूषणों में लगे हीरे-पत्ती पहनती थीं तो प्रजा भी अपने पद और धन के आधार पर जीवनशैली अपनाती थी। घर की साज-सज्जा और तीज त्योहारों को संभालती थी और जंगल को जीते प्रकृति से ही अपने को सजाते और संवारते अपने घर-आंगन को सुंदर बनाती थी। शायद यही कारण है कि सदियों से चली आ रही यह परंपरा आज आधुनिक युग में जी तो नहीं रही पर उसकी जड़े आज भी उस प्राचीन समय से जुड़ी हैं। क्योंकि भाव और भावना तो प्राकृतिक रूप में शाश्वत और सत्य होती हैं।

आज आधुनिक युग में जब लड़कियां पढ़ाई, नौकरी, व्यवसाय सम्भालने के कारण पुरानी उत्सवधर्मिता और उसके रूप और ढंग से बाहर निकल कर पाश्चात्य जीवनशैली को अपनाती बदल रही हैं अथवा पुराने प्रचलन से नए बदलाव और पाश्चात्य को जोड़कर फैशन का एक नया मानक गढ़ रही है तो भी तीज त्योहार आते ही वे अपने देश की उत्सवधर्मिता में डूबने लगती हैं। बाहर निकलने लगती हैं। अपने उस कंफर्ट जोन से जिसे वे अपनी भागमभाग की जीवन शैली की सुविधाओं में न अपना पाती हैं न कर पाती हैं। वे ढूंढने लगती हैं तरह-तरह के लंहगे, चूड़ियां, सजाने लगती हैं हाथ-पैर में मेंहदी, महावर और दौड़ती हैं बैंक की ओर अपने गहनों के  लिए। नहीं हो पाए तो आप के रूपहले बाजार से वे सोने की तरह दिखते गहने ही खरीदकर सजाती हैं अपने आपको। अर्थ एक ही है – उत्सव का सोलह श्रृंगार। उस दिन न उन्हें यह श्रृंगार भारी लगते हैं, ना भारी लंहगे या सूट। एक बात जो मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित करती है वह है आपको इस अत्याधुनिक जीवन शैली में सोने का आकर्षण।

हमारे जीवन में इसका महत्व प्राचीन काल से ही चला आ रहा है और आज भी यह लगता है कि इसका आकर्षण हमारे देश में कभी न समाप्त होने वाला आकर्षण है। हमारे देश के पर्व, त्योहार, शादियां बिना सोने की अधूरी मानी जाती हैं। जो बन पड़े वह खरीदेंगे, लेकिन खरीदेंगे अवश्य।

यूं अब यह स्वर्ण हमारे देश मे उत्सवधर्मिता का प्रतीक नहीं है। यह हमारी धरोहर जैसी बन कर रह गया है पर आकर्षण  अन्तहीन है। मुझे याद है, आज से कोई अठारह वर्ष पूर्व जब मैं दादी के सामने ढीली-ढाली शर्ट और ट्राउजर पहने, बिना बिंदी चूड़ा के पहुंचती थी तो वह ऊपर से नीचे तक मुझे ध्यान से देखती थी। और शाम को जब हमारे घर काम करने वाली लड़की आती थी तो उसे दिखाती हुए कहती थी कि- देखो बिटिया! उसकी शादी के पांच वर्ष हो गए हैं। छोटा सा बच्चा भी उसके पास है पर वह आज भी तुम्हारे जैसे सादी सी नहीं आती। कितनी सुंदरता से वह कभी साड़ी वाली सलवार कुर्ता पहन कर, हाथों में चूड़ियां या कंगन डाले, सिंदूर लगाए, माथे पर छोटी सी बिंदी लगाए आती है। पांव कभी पायल, बिछुआ से खाली नही रहते। जो भी है उसके पास, सोना चांदी, पहने रहती है। और एक तुम हो? जिसे हमने गहने-कपड़ों से मढ़ दिया है, फिर भी ऐसे जीती हो जैसे कुछ भी नहीं है तुम्हारे पास।

मैं उन्हेंं आज का समय, अपनी जीवन शैली समझाई, पर सब ढांक के तीन पात ही बनकर रह जाते। मैं उन्हें नहीं समझा  पाई अपने फैशन की परिभाषा कि, दादी! फैशन समय, आवश्यकता और परिवेश को देख कर बनता और बदलता है। यह महज पहनना या सजना नहीं होता। यह तो मनुष्य के भीतर की खुशी होता है दादी। यह एक परिवर्तन है जो हमें हर दिन कुछ नया करने की प्रेरणा देता है। हमारे जीवन के उद्देश्य को निर्धारित करता है।

वह लड़की जो काम कर रही है या वह स्त्री जिसके पास अथाह पैसा है, इनके बीच बहुत बड़ी विभाजन रेखा है पर इनका फैशन, इनके जीने का ढंग ही इनकी शक्ति है। और मेरा मेरी शक्ति। हमारी आत्महीनता का यह कवच है। और जीवन की संतुष्टि।

पर नहीं कह पाती।

क्योंकि यह तो परिवर्तन है जो वैदिक काल से चला आ रहा है और भविष्य में भी बदलता रहेगा। कभी हम पुराने से नए को मिलाएंगे तो कभी नए से पुराने को। कभी दोनों को जोड़ेंगे तो कभी दोनों को छोड़कर कुछ नया ढूंढने की कोशिश करेंगे।

पर सत्य यही है कि इसकी जड़े वैदिक काल के ही किसी अंश में समाई हुई हैं जो हमें जागृत रखती हैं।

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