“दहिसर के ज्येष्ठ स्वयंसेवक, सहकार एवं शिक्षा क्षेत्र के अग्रणी और भाजपा के कार्यकर्ता राम ब्रिज यादव जी का कल दुःखद निधन हुआ है। अत्यंत प्रतिकूल वातावरण में दीर्घकाल तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, सहकार, शिक्षा, सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में दीर्घकाल तक निरपेक्ष भावना से कार्य करके जिन्होंने समाज में अपना स्थान निर्माण किया था, ऐसे रामब्रिज यादव जी असामान्य व्यक्तित्व थे। दिसंबर,2013 में रामब्रिज यादव जी के अमृत महोत्सवी वर्ष निमित्त हिंदी विवेक मासिक पत्रिका ने उनके कार्य का लेखा जोखा प्रस्तुत करने वाला विशेषांक का प्रकाशित किया गया था। विशेषांक में रामब्रिज यादव जी के कर्तृत्व संपन्न एवं बहुआयामी व्यक्तित्व के संदर्भ में समाज के विशेष मान्यवारों ने अपने विचार आलेखों के माध्यम से प्रस्तुत किए थे। रामब्रिज यादव जी को हिंदी विवेक मासिक पत्रिका के माध्यम से विनम्र श्रद्धांजलि व्यक्त करते हैं। विभिन्न क्षेत्र के मान्यवारों ने उनके संदर्भ में अपने विचार आलेखों के माध्यम से प्रस्तुत किए हुए थे, मान्यवारों के वह विचार आने वाले सप्ताह में हिंदी विवेक मासिक पत्रिका के सोशल मीडिया एवं वेब साइट के माध्यम से वह आलेख आप सभी तक पहुंचाने का प्रयास कर रहे हैं। हिंदी विवेक मासिक पत्रिका की ओर से हम बहुआयामी व्यक्तित्व स्वर्गीय राम ब्रिज यादव जी को विनम्र श्रद्धांजलि व्यक्त करते हैं।”-भवदीय,
अमोल पेडणेकर ( मुख्य कार्यकारी अधिकारी ), हिंदी विवेक मासिक पत्रिका. |
महाराष्ट्र के शिक्षा क्षेत्र का बारीकी से अध्ययन करें तो यह दिखाई देता है कि शिक्षा से वंचित रहे लोगों ने ही स्वयं शिक्षा संस्थाएं खड़ी कर अन्यों के लिए शिक्षा के अवसर खोल दिए। इसी तरह जिन्होंने अत्यंत प्रतिकूल स्थिति से लड़ते हुए अपनी शिक्षा पूरी की, उन्होंने अन्यों को ऐसी प्रतिकूल स्थिति से लड़ना न पड़े इसके लिए शिक्षा संस्थाएं स्थापित कीं। शिक्षा की गंगा उनके द्वार तक पहुंचाई। ऐसे लोगों ने यह काम करते समय किसी पुरस्कार या मान-सम्मान की कोई अपेक्षा नहीं रखी। फिर भी उनके नाम शिक्षा के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखे गए। समाज उनके प्रति कृतश रहा है। दहिसर के श्री रामब्रिज यादव उनमें से ही एक हैं। उन्हें सब लोग ‘बाबूजी’ के नाम से ही जानते हैं और सम्बोधित करते हैं।
श्री रामब्रिज यादव का जन्म ८ दिसम्बर १९३८ को उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले के चिलुआ नामक एक छोटे से देहात में एक किसान परिवार में हुआ। प्रतिकूलता का सामना करते हुए उन्होंने अपने गांव में प्राथमिक शिक्षा पूरी की। और इसी समय सौभाग्य से मुंबई महानगर ने उन्हें आवाज दी। ११ वर्ष की उम्र में अगली शिक्षा के लिए वे मुंबई आ गए। विलेपार्ले के जवाहर विद्यालय व बृजमोहन हिंदी विद्यालय में माध्यमिक शिक्षा प्राप्त की। लेकिन दुर्भाग्य से मैट्रिक (एसएससी) नहीं हो सके। इस कसक को लिए ही १९५२ में वे दहिसर स्थलांतरित हुए। पिता की व्यवसाय में सहायता करने लगे। लेकिन अपने स्नेहपूर्ण स्वभाव के कारण शीघ्र ही वे दहिसर के समाज से समरस हो गए। यहीं से उनका भाग्योदय आरंभ हुआ। उन्होंने इलेट्रिक का स्वतंत्र व्यवसाय आरंभ किया। उसमें ठोस सफलता प्राप्त की। लेकिन शिक्षा पूरी न होने का दर्द उनके मन को सलता रहा। इसी कारण शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने का उन्होंने निश्चय किया।
बाबूजी की दूरदृष्टि का मन से कौतुक किया जाना चाहिए।
उन्होंने गुजराती, हिंदी व मराठी इन तीन माध्यमों के लिए एक ही शाला न रखते हुए तीन स्वतंत्र शालाएं स्थापित कीं। एक ही परिसर में ये तीनों शालाएं चल रही हैं।
यादवजी ने दहिसर में समविचारी मित्रों का बड़ा समूह निर्माण किया। सर्वश्री पोपटभाई भरवाड, नेमजीभाई गांगर, शामजीभाई शाह, एड. जे.पी. मिश्रा, राममूरत विश्वकर्मा, करुणाशंकर ओझा, अरुणभाई मुछाला, शरीफभाई दोदिया, अमरकांत झा आदि समाज के प्रति प्रतिबद्ध व सामाजिक कार्य में रुचि रखने वाले अनेक मित्र उन्हें मिले। स्व. राममूरत विश्वकर्मा के कारण ही मेरा बाबूजी से परिचय हुआ।
श्री पोपटभाई भरवाड ने ही यादवजी को शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने की प्रेरणा दी। उन्होंने केवल शाब्दिक प्रेरणा न देकर बाबूजी को इस कार्य के लिए डेढ़ लाख रु. दान देकर आर्थिक समर्थन भी दिया। भरवाडजी के साथ ही अन्य दो मित्रों ने भी बड़ी रकमों का दान दिया। इस भरपूर समर्थन से प्रेरित होकर बाबूजी ने विशेष मार्गदर्शन करने के लिए आदरणीय श्री राम नाईक से सम्पर्क किया। रामभाऊजी ने उन्हें पंजीयत संस्था स्थापित कर शिक्षा का कार्य आरंभ करने की मूल्यवान सलाह दी। इसी सलाह के आधार पर बाबूजी ने ‘स्वामी विवेकानंद एज्यूकेशन सेंटर’ नाम से १९७९ में संस्था स्थापित की व १९८० में उसका पंजीयन करवाया। स्वाभाविक रूप से सभी सहयोगियों ने संस्था के अध्यक्ष के रूप में उनका चयन किया। इसके बाद रामभाऊ नाईक ने संस्था को में सरकारी जमीन प्राप्त करा दी। संस्था का कार्य आरंभ करने के लिए पोपटभाई भरवाड ने अपनी मालकियत के ४ गाले दिए। इस तरह १९८४ में दहिसर में गुजराती व हिंदी माध्यम की स्कूलें आरंभ हुई। स्कूल के विकास के लिए बाबूजी के हर मित्र ने २५ हजार रु. का दान दिया।
१९९१ में बाबूजी ने स्थानीय जनता की आवश्यकता को ध्यान में रखकर मराठी माध्यम की स्कूल भी शुरू की। शाला को परिपूर्णत्व प्राप्त हुआ। लेकिन रामभाऊ नाईक की सलाह को शिरोधार्य मानकर बाबूजी ने अंग्रेजी माध्यम की स्कूल शुरू करने का विचार तक नहीं किया। आज भी उनकी भूमिका और विचार में कोई अंतर नहीं आया है। आज तीनों माध्यमों की स्कूलों में करीब ३००० छात्र केजी से दसवीं तक शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। स्कूल का भी बहुत नाम हुआ है।
बाबूजी की दूरदृष्टि का मन से कौतुक किया जाना चाहिए। उन्होंने गुजराती, हिंदी व मराठी इन तीन माध्यमों के लिए एक ही शाला न रखते हुए तीन स्वतंत्र शालाएं स्थापित कीं। एक ही परिसर में ये तीनों शालाएं चल रही हैं। उनका कहना है कि इससे संस्था को तीन मुख्याध्यापक ‘नेता’ के रूप में मिले हैं। मुख्याध्यापकों को संस्था के ‘कर्मचारी’ न कहते हुए ‘नेता’ कहने वाला यह संस्था चालक बिरला ही है। इन मुख्याध्यापकों ने उत्तम नेतृत्व देकर आदर्श परम्पराएं स्थापित की हैं। इसकी एक परम्परा यह है कि तीनों स्कूलों का एसएससी का परीक्षा फल प्रति वर्ष १००% होता है। बाबूजी को इस पर गर्व है। वे कहते हैं, “हम मध्यम व गरीब वर्ग के छात्रों के लिए स्कूल चलाते हैं, लेकिन विशेषज्ञ व कर्तव्य तत्पर शिक्षकों और प्रभावी नेतृत्व देने वाले मुख्याध्यापकों के कारण हम ऊंचे दर्जे की शिक्षा देकर बेहतर परीक्षा फल की परम्परा कायम कर सके। हमने अभिभावकों का विश्वास प्राप्त किया है और इसी कारण हमारी स्कूलें ठीक ढंग से कार्य कर रही है। वी हैव नो प्राब्लेम।”
बाबूजी गरीब छात्रों की ओर अधिक ध्यान देते हैं। उन्हें हर तरह की सहायता और शैक्षणिक मार्गदर्शन उपलब्ध करा देते हैं। उनकी सभी समस्याओं को हल करते हैं। मच्छीमार समाज के छात्रों को इसका विशेष लाभ प्राप्त होता है। बाबूजी के मार्गदर्शन के अनुसार स्कूल के अनेक शिक्षक कुछ छात्रों के घर जाकर उनका विशेष ध्यान रखते हैं। मुंबई महानगर में यह हो रहा है इस पर आश्चर्ययुक्त गर्व होता है।
बाबूजी की एक और विशेषता यह है कि वे स्वच्छता के बड़े अभिलाषी है। इसी कारण संस्था के सम्पूर्ण शैक्षणिक परिसर में स्वच्छता दिखाई देती है। इसके लिए सभी अतिथियों और अधिकारियों ने संस्था की प्रशंसा की है।
स्कूलों की स्थापना के बाद पहले १२ वर्ष उन्हें कोई अनुदान नहीं मिला था। फिर भी बाबूजी ने हर अध्यापक व कर्मचारी को नियमों के अनुसार पूरा वेतन दिया। किसी के प्रति आर्थिक अन्याय नहीं किया। पिछले कई वर्षों से संस्था को वेतनेतर अनुदान नहीं मिलता, लेकिन बाबूजी ने अध्यापकों या कर्मचारियों की किसी भी सुविधा में काटछांट नहीं की है। फलस्वरूप संस्था के सभी अध्यापक और कर्मचारी संतुष्ट हैं।
बाबूजी ने अपने दातृत्व का समाज में आदर्श निर्माण किया है यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है। उनके दातृत्व के मैं यहां तीन उदाहरण देता हूं। बाबूजी प्रति वर्ष गरीब व होनहार लड़के-लड़कियों को २ हजार दर्जन कॉपियां निःशुल्क देकर उनकी शिक्षा में सहयोग करते हैं। इसी तरह वे दहिसर परिसर की गरीब महिलाओं की हर तरह से आर्थिक मदद करते हैं। प्रति वर्ष अनेक गरीब महिलाओं को सैर अथया तीर्थयात्रा पर अपने खर्च से ले जाते हैं। उनके जीवन में आनंद निर्माण करते हैं। तीसरी बात यह कि उन्होंने अपनी माताजी के नाम पर स्कूल में तीन कमरे बनवा दिए हैं और भाईंदर के शंकर नारायण महाविद्यालय के निर्माण के समय उस संस्था की ५० हजार रु. का दान भी दिया है। उनकी दातृत्व भावना को प्रणाम!
बाबूजी इलेक्ट्रिक का व्यवसाय भी सामाजिक जिम्मेदारी की भावना से करते हैं। वे उत्तन स्थित केशव सृष्टि व रामरतन विद्यालय और छात्रावास को निःशुल्क सेवाएं देते हैं।
बाबूजी आज सेक्रेटरी के रूप में कार्य कर रहे हैं। फलस्वरूप हर सोमवार को वे अपनी संस्था में पूर्ण दिन उपस्थित रहकर काम करते हैं। अन्य दिनों में वे आवश्यकता के अनुसार जाकर कार्य करते हैं। लेकिन वे एक ही संस्था के बजाय अन्य संस्थाओं में भी कार्य करें, यह समाज की स्वाभाविक अपेक्षा है। इसलिए बाबूजी बोरिवली स्थित आचार्य नरेंद्रदेव विद्यालय के ट्रस्टी के रूप में काम देखते हैं। शैलेंद्र सोसायटी (दहिसर) के संस्थापक सदस्य के रूप में कार्यरत हैं। कुर्ला के यादव समाज के श्रीकृष्ण हाईस्कूल के वे अनेक वर्ष अध्यक्ष रहे हैं।
पर्यावरण के महत्व को जानते हुए विद्यालय में वृक्षापण कार्यक्रम संपन्न.
पिछले ५३ वर्षों में अविरत शिक्षा कार्य से बाबूजी के अनुभवसिद्ध विचार बन गए हैं। उन्हें लगता है कि सरकार को निजी शिक्षा संस्थाओं की स्थापना व विकास को प्रोत्साहन देना चाहिए व हर तरह की मदद करनी चाहिए। पैसेवालों के हाथों में शिक्षा क्षेत्र न जाये इसकी सतर्कता भी सरकार को बरतनी चाहिए। इससे मध्यम व गरीब वर्ग के परिवारों के युवक-युवतियों को शिक्षा के बेहतर अवसर प्राप्त होंगे।
पिछले एक-दो दशक से अंग्रेजी माध्यम के बढ़ते प्रभाव के कारण मराठी, हिंदी व गुजराती माध्यमों की स्कूलों पर बड़ा प्रतिकूल प्रभाव हो रहा है। इससे बाबूजी व्यथित है। उन्हें लगता है कि सरकार को इस स्थिति में संरक्षक की भूमिका लेकर संस्थाओं की मदद करनी चाहिए।
बाबूजी ने जिस निस्वार्थ भाव से शिक्षा के क्षेत्र में कार्य किया है, इससे उन्हें मन से लगता है कि शिक्षा क्षेत्र में कार्य करने वाले कार्यकर्ता यदि सेवा, निष्ठा व सामाजिक जिम्मेदारी की भावना रखकर कार्य करेंगे तो उन्हें निश्चित सफलता प्राप्त होगी।
रामब्रिजजी यादव का प्रसन्न व्यक्तित्व, विनम्र स्वभाव, मृदु आवाज, अदब का बर्ताव और निस्वार्थ वृत्ति का अन्यों पर बहुत प्रभाव होता है। वे अपने लिए नहीं जीते, समाज के लिए जीते हैं, विशेष रूप से समाज के वंचित लोगों के लिए जीते हैं और कार्य करते हैं। ७५वें वर्ष में भी उनकी लगन सराहनीय है।
-डॉ. रामदास गुजराथी ( निवृत्त प्राचार्य, गोखले महाविद्यालय )