राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना सन् 1925 के विजयदशमी के दिन नागपुर में हुई थी। संघ के संस्थापक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार जी से लेकर वर्तमान पू. सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी तक संघ के छह पू. सरसंघचालक हुए हैं। वर्तमान वर्ष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है। आज संघ से और संघ की कार्यप्रणाली और नीतियों से भारत की जनता लगभग पूर्णतया परिचित हो चुकी है। संघ के शताब्दी वर्ष के साथ ही यह वर्ष संघ के वर्तमान पू. सरसंघचालक मोहन भागवत जी के जन्म का 75वां वर्ष अर्थात प्लेटिनम जुबली वर्ष भी है। इसी उपलक्ष्य में भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी जी ने डॉ. मोहन भागवत जी के संबंध में एक लेख भी प्रकाशित करवाया है। स्वाभाविक है कि उसके बाद आमजन के मन में संघ के साथ ही संघ के सभी पू. सरसंघचालकों के विषय में जानने की इच्छा एवं जागरूकता बढ़ती जा रही है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना डॉ. हेडगेवार जी ने नागपुर में पांच युवकों को एकत्रित कर की थी। बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि उस समय संघ का नाम भी तय नहीं किया गया था। संघ का नाम दो वर्ष बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ रखा गया और उसकी प्रार्थना भी बहुत समय बाद तय की गई। डॉ. हेडगेवार जी पशु चिकित्सक थे। पहले वे भी कांग्रेस के कार्यकर्ता थे। वे आजादी के लिए सन 1921 में जेल भी गए थे और जब जेल से बाहर निकले तो मोतीलाल नेहरू आदि वरिष्ठ नेतागण उनको लेने के लिए द्वार पर खड़े थे।
गांधी जी के खलीफा आंदोलन, जिसका नाम उन्होंने खिलाफत कर दिया था की बारीकियों को देखकर डॉ. हेडगेवार जी समझ गए थे कि एक दिन भारत स्वतंत्र तो अवश्य होगा, लेकिन यदि हिंदू समाज जागृत होकर एकत्रित नहीं हुआ, तो फिर हिंदुओं की वही स्थिति हो जाएगी जो 700 वर्ष पहले हुई थी। अब हिंदू पुनः वैसी स्थिति को न झेले, इसके लिए आवश्यक है कि पहले हिंदुओं को एकत्रित कर संगठित किया जाए, जिससे कि हिंदू समाज किसी भी प्रकार की चुनौतियों का सामना करने के लिए सक्षम रहे।
डॉ. हेडगेवार जी का मूल मंत्र यही था कि जब हिंदू संगठित हो जाएंगे, फिर हम अपने हिंदू राष्ट्र को प्राप्त कर सकेंगे। कहते हैं कि संघ के लिए डॉ. हेडगेवार जी ने अपना खून पसीना बहाया था और उनके शरीर में रक्त की जगह केवल पानी ही बचा था। वह अच्छी तरह जानते थे कि 100% हिंदू कभी संगठित नहीं हो पाएंगे, लेकिन अगर 2 प्रतिशत हिंदू भी संगठित हो गए, तो वह बाकी हिंदू समाज का मार्गदर्शन कर सकेगा।
सन 1940 में डॉ. हेडगेवार जी का देहावसान हुआ, तो उन्होंने अपनी अंतिम अवस्था के दौरान अपने स्थान की जिम्मेदारी पूज्य गुरुजी अर्थात श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर जी को सौंपने की इच्छा प्रगट कर दी थी। इस प्रकार गुरुजी द्वितीय पू. सरसंघचालक बने। यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि संघ के संविधान और कार्यप्रणाली के अनुसार संघ में पू. सरसंघचालक ही सर्वोच्च पद है, लेकिन संघ के सारे अधिकार एवं कर्तव्य सरकार्यवाह अर्थात महामंत्री के पास ही होते हैं। उनका ही कार्यसमिति के द्वारा विधिवत चुनाव होता है और वही संगठन तथा अन्य सभी गतिविधियों पर सक्रिय रूप से कार्य संचालित करते हैं, जबकि पू. सरसंघचालक संघ के प्रमुख के नाते मार्गदर्शन करते हैं।
श्रीगुरुजी के समय भारत का विभाजन हुआ। हिंदुओं की नृशंस हत्याएं हुई। गांधी जी की हत्या का झूठा आरोप संघ पर लगा। संघ पर प्रतिबंध भी लगा, हालांकि बाद में वह कोर्ट द्वारा गलत सिद्ध हुआ। ऐसे समय में संघ के सामने कई परिस्थितियां उत्पन्न हो चुकी थी। एक ओर भारत का संविधान भी लिखा जा रहा था। अब यह तय था कि भारत में जो कुछ भी होगा, वह संविधान के अनुसार ही होगा।
उस समय श्रीगुरुजी को यह बात अवश्य अखरी कि यदि संविधान सभा में संघ के भी स्वयंसेवक होते, तो वह संविधान को बनाते समय भारतीय संस्कृति व हिंदू धर्म को अवश्य प्रधानता देते तथा संघ पर गांधीजी की हत्या के गलत आरोप का खंडन संविधान सभा में करते, इसलिए उन्होंने परिस्थितियों के अनुसार एक राजनीतिक दल बनाने का विचार किया। इसी समय नेहरू की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति से व्यथित होकर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी चिंतित थे। अंततः श्रीगुरुजी के परामर्श से डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, बलराज माधोक एवं पंडित दीनदयाल उपाध्याय के नेतृत्व में 21 अक्टूबर 1971 को भारतीय जनसंघ की स्थापना की गई।
श्रीगुरुजी ने यह भी चिंतन किया कि संघ शाखा तो लगाता है, स्वयंसेवकों का निर्माण भी करता है, हिंदुओं को संगठित कर रहा है, लेकिन भारत में वामपंथी जैसे देशद्रोही दल हैं, जो कि मजदूरों, किसानों एवं छात्रों के बीच घुसकर इनके अंदर देश विरोधी विचारों को भर रहे हैं, इसलिए संघ को भी इन क्षेत्रों में सक्रिय होना होगा। इसलिए उन्होंने दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के नेतृत्व में भारतीय किसान संघ व भारतीय मजदूर संघ की स्थापना की तथा इसी के साथ छात्रों के लिए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद व विश्व हिंदू परिषद आदि की स्थापना भी की। वनवासी क्षेत्र में ईसाई मिशनरियां अपनी चाल चल रही हैं। वे सेवा के नाम पर हिंदुओं का धर्म परिवर्तन कर रहे हैं, तो उनका मुकाबला भी हमें सेवा के माध्यम से करना होगा। इसके लिए श्रीगुरुजी ने वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना की।
शिक्षा के क्षेत्र में विद्या भारती की स्थापना कर सरस्वती शिशु मंदिरों का निर्माण किया। पत्रकारिता के क्षेत्र में साप्ताहिक पांचजन्य, मासिक राष्ट्रधर्म व जाह्नवी आदि पत्रिकाएं भी प्रारंभ की। प्रारंभ में ये सभी पत्रिकाएं लखनऊ से ही प्रकाशित होती थी। बाद में पांचजन्य दिल्ली से प्रकाशित होने लगा। यह भी विशेष उल्लेखनीय है कि अटल बिहारी वाजपेई जी ने पांचजन्य पत्रिका का संपादन किया था। अर्थात अब संघ रेल का इंजन ही नहीं बल्कि उसके साथ विभिन्न क्षेत्रों के डिब्बे भी जुड़ते गए।
सन 1973 में श्रीगुरु जी के देहावसान के बाद मधुकर दत्तात्रेय देवरस उपाख्य बालासाहेब देवरस जी संघ के तृतीय पू.सरसंघचालक बने। मृदुभाषी व शांत स्वभाव के देवरस जी ने अपने कार्यकाल में संघ को अन्य विभिन्न क्षेत्रों जैसे बौद्धिक जनों, साहित्यकारों, इतिहासकारों, चिंतकों, संस्कृति कर्मियों व समाज के अन्य वर्गों तक पहुंचाने का प्रयास किया। इन वर्गों को जोड़ने के लिए भारतीय विकास परिषद व भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति आदि का प्रभाव भी बढ़ने लगा। कुछ समय के बाद नानाजी देशमुख के मार्गदर्शन में सेवा भारती व लोक भारती जैसे सांस्कृतिक प्रकल्प तथा दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना कर अनुसंधान जगत में भी संघ का कार्य बढ़ने लगा। अब संघ में प्रोफेसर, डॉक्टर, उद्योगपति, इंजीनियर व कला प्रेमी आदि भी जुड़ने लगे। इससे संघ को सार्वजनिक क्षेत्र व बौद्धिक जगत में भी महत्व मिलने लगा।
हालांकि नई पीढ़ी को यही पता होगा कि सन 1973 में बिहार में छात्र आंदोलन जयप्रकाश नारायण जी के नेतृत्व में आगे बढ़ा था, परंतु उसके पीछे सच्चाई यह है कि बिहार में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने उस आंदोलन को बल दिया था। उसका ही परिणाम हुआ कि रामधारी सिंह दिनकर ने इंदिरा गांधी को चुनौती देते भी कहा था कि सिंहासन खाली करो! जनता आती है। उधर न्यायालय में हार के बाद इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल तो लगाया ही, साथ में संघ पर भी प्रतिबंध लगा दिया। संघ पर यह दूसरा प्रतिबंध था। आपातकाल के बाद जनसंघ सहित पांच विपक्षी दलों ने जनता पार्टी का गठन किया।
जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद संघ का कार्य भी तेजी से विस्तार पाने लगा, लेकिन जनता पार्टी में दोहरी सदस्यता के कारण भारतीय जनसंघ के नेताओं ने अटल बिहारी वाजपेई जी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी नामक नयी राजनीतिक पार्टी का गठन किया। हालांकि प्रारंभ में भाजपा ने गांधीवादी समाजवाद की अवधारणा का आवरण ओढ़ा, परंतु उसे भारत की जनता ने स्वीकार नहीं किया। सच्चाई यह थी कि जब गांधी जी के नाम पर कांग्रेस पहले से ही सामने खड़ी है, तो फिर कोई कितना भी गांधीवादी आवरण ओढ़े! इसे भारत की जनता स्वीकार नहीं कर सकती थी।
स्वाभाविक था कि इसका असर संघ की प्रतिष्ठा पर भी पड़ने लगा, लेकिन उस समय संघ का नेतृत्व बालासाहेब देवरस जी के हाथों में था। उन्होंने इस पर गहन विचार विमर्श कर देश में हिंदुत्व की लहर को जागृत करने के लिए एक राष्ट्रीय एकात्मता यज्ञ प्रारंभ किया। सन 1983 के अक्टूबर माह में जब गंगोत्री और यमुनोत्री का मंदिर बंद होने वाले होते हैं, उससे पूर्व ही तत्कालीन सरकार्यवाह रज्जू भैया ने यमुनोत्री एवं गंगोत्री के पवित्र जल को एकत्रित किया तथा मार्च 1984 में इस जल में भारत के विभिन्न पवित्र स्थलों के जल को एकत्रित करते हुए रामेश्वर तक ले जाया गया। जिसका नाम राष्ट्रीय एकात्मकता यज्ञ रखा गया था।
यह कार्यक्रम इतना भव्य था कि एक बार इंदिरा गांधी भी इस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए आने वाली थी, परंतु मुस्लिम तुष्टिकरण के कारण उन्होंने अंतिम समय में अपना निर्णय बदल दिया, लेकिन कुछ समय के बाद इंदिरा जी की हत्या के कारण भारतीय जनता पार्टी इस हिंदुत्व का लाभ नहीं उठा सकी और उसे केवल दो सीट लेकर ही संतोष करना पड़ा, परंतु बाद में भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में रामरथ यात्रा निकाली गई, जिससे देश में हिंदुत्व की एक नई लहर उत्पन्न हुई और उसका परिणाम यह हुआ भाजपा का ग्राफ सिवाय 2009 के निरंतर बढ़ता ही गया और 30 साल के बाद 2014 में भाजपा दो सीट से 272 सीट लेकर पूर्ण बहुमत के साथ सरकार में आ गई।
बालासाहेब देवरस जी एक बात को कहा करते थे कि मैं अपनी आंखों से हिंदू राष्ट्र बनते हुए देखना चाहता हूं। ईश्वर ने उनकी यह इच्छा एक तरह से पूरी अवश्य की क्योंकि जब संघ का एक स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपेई जी 1996 में भले ही 13 दिन के लिए सही, लेकिन उनके सामने ही भारत के प्रधानमंत्री बने, तो किसी ने किसी रूप में उनका यह सपना साकार होता हुआ अवश्य दिखाई दिया होगा।
बाला साहेब देवरस जी के बाद संघ की कमान सन 1994 में प्रोफेसर राजेंद्र सिंह उपाख्य रज्जू भैया के हाथों में आ गई। रज्जू भैया इलाहाबाद विश्वविद्यालय में भौतिक विज्ञान के प्रोफेसर थे। वे शाखा के साथ ही वैचारिक रूप से भी एक प्रखर संगठनकर्ता थे। हालांकि उस दौर में केंद्र में भाजपा की सरकार थी, परंतु 25 पार्टियों के डगमगाते समर्थन के कारण भाजपा केवल अच्छी सरकार चला पाई, परंतु वह अपने राष्ट्रवादी एजेंडे को कहीं भी प्रभावशाली ढंग से उठा नहीं पाई। रज्जू भैया ने संघ का कार्य भारत के साथ ही विदेश में भी फैलाया और संघ को एक बौद्धिक जगत का व्यापक संगठन बनाया, परंतु गिरते स्वास्थ्य के कारण वह बहुत सक्रिय नहीं हो सके और उन्होंने भी अपना दायित्व 11 मार्च, 2000 को श्री के. सी. सुदर्शन जी को सौंप दिया।
श्री कुप्पाहल्ली सीतारमैय्या सुदर्शन जी ओजस्वी वक्ता थे। उन्होंने जबलपुर से इंजीनियरिंग की डिग्री ली थी। उनके बौद्धिकों, भाषणों और व्याख्यानों से श्रोतागण मंत्रमुग्ध हो जाते थे, लेकिन उस दौर में एक तो भाजपा सत्ता से बाहर आ गई और साथ ही भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी जी का पाकिस्तान जाकर जिन्ना के मजार पर माथा टेकना तथा भाजपा का सेकुलर होने के चक्कर में अधिक उदारता का दिखावा करना आदि से लोगों के मन में संघ के प्रति जो एक विश्वास जुड़ा था, उसमें कहीं न कहीं संदेह उत्पन्न होने लगा। इसी बीच कांग्रेस की सरकार द्वारा रामसेतु तोड़ने का प्रस्ताव करना व कोर्ट में भगवान श्रीराम के अस्तित्व को नकारना तथा हिंदू एंटी-वायलेंस एक्ट को सदन में रखना आदि हिंदू विरोधी कार्यों को देखकर हिंदू जनमानस चिंतित होने लगा। इधर भाजपा सेकुलर होने का दिखावा कर रही थी। एक बार तो भाजपा की नीतियों से त्रस्त होकर उन्होंने भाजपा के सम्मुख एक हिंदुत्ववादी नयी राजनीतिक पार्टी का गठन तक करने का कठोर विचार कर लिया था, परंतु उन्होंने भी खराब स्वास्थ्य के कारण संघ का नेतृत्व 21 मार्च 2009 को डॉ. मोहन भागवत जी को सौंप दिया।
इस दौरान भाजपा एक बार पुनः पतन की ओर उन्मुख हो रही थी। जो पार्टी सन 1984 से लोकसभा में लगातार अपनी संख्या बढ़ा रही थी, सन 2009 के लोकसभा चुनावों में भाजपा में पहली बार गिरावट देखने को मिली। यह समय भाजपा का संक्रमण काल था, लेकिन भाजपा के चिंतकों ने इस दौर में एक साहसिक निर्णय लेते हुए राजनाथ सिंह के स्थान पर नितिन गडकरी को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया और एक बार पुनः भाजपा को हिंदुत्व के संकल्प के साथ खड़े करने का विचार दिया। इसी बीच गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी अपने हिंदुत्व और विकास कार्यों के कारण पूरे राष्ट्र में लोकप्रिय होते जा रहे थे। इसी दौरान जब पाकिस्तान ने हमारे चार सैनिकों का सर काट दिया और उसके बदले में हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री केवल इसकी कड़ी निंदा कर चुप हो गए, तो भारत के जन-जन में असंतोष और क्रोध व्याप्त होने लगा। भारत की जनता एक ऐसे नायक को प्रधानमंत्री के पद पर बैठाना चाहती थी, जो कि सेना में नया जोश भरकर पाकिस्तान को सबक सिखा सके तथा भ्रष्टाचार में लिप्त भारत को विकास की राह पर ले जाए।
लोगों ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी में उस युग पुरुष की छवि को देखा और 2014 के चुनाव में मोदी जी पूर्ण बहुमत के साथ भारत के प्रधानमंत्री बने। इसी दौरान भारतीयों ने कश्मीर के उस काले धब्बे अनुच्छेद 370 को भी हटते हुए देखा तथा 500 वर्ष से भगवान राम की जन्म स्थल पर उस बाबरी ढांचे की जगह पर एक मव्य मंदिर को बनते हुए भी देखा। इससे देश के हिंदू ही नहीं बल्कि विश्व के मुसलमान भी मोदी जी के इस करामाती नेतृत्व के प्रशंसक होने लगे और जिसके कारण हिंदू और हिंदुत्व का मान एक बार फिर से पूरे विश्व में बढ़ता जाने लगा है।
स्वाभाविक है कि इसका श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही जाता है, परंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसके पीछे नीति निर्धारण और सुयोग्य मार्गदर्शन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, इसलिए निस्संदेह इसके असली श्रेय के हकदार वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी भी अवश्य होते हैं। हालांकि संघ की कार्यप्रणाली यह बिल्कुल नहीं है कि किसी भी कार्य का श्रेय किसी व्यक्ति को दिया जाए! श्रेय तो हमेशा संघ को ही दिया जाता है। इसलिए आद्य सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार जी से लेकर डॉ. मोहन भागवत जी तक समस्त पू. सरसंघचालकों को दिया जाने वाला प्रत्येक श्रेय संघ के हरेक स्वयंसेवक को स्वत: ही प्राप्त हो जाता है।
जहां तक पू. सरसंघचालक के दायित्व की बात है, तो जो पाठक संघ की कार्यप्रणाली से परिचित नहीं हैं, उनको यह जानने की भी अवश्य उत्सुकता होगी कि सरसंघचालक की नियुक्ति की प्रक्रिया कैसे होती होगी ? संघ के प्रथम अर्थात आद्य सरसंघचालक डॉक्टर केशवराव बलिराव हेडगेवार जी थे, लेकिन उनको यह जिम्मेदारी संघ के स्वयंसेवकों ने मिलकर के दिया था।
डॉ. हेडगेवार जी ने अपनी अंतिम अवस्था में जाने से पहले यह इच्छा व्यक्त की थी कि उनके स्थान पर श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर जी अर्थात श्रीगुरुजी को सरसंघचालक बनाया जाए। इसी प्रकार श्रीगुरुजी ने अपनी मृत्यु से पहले सरसंघचालक की जिम्मेदारी एक पत्र में लिखकर बालासाहेब देवरस जी को सौंप दी थी, लेकिन तृतीय पू. सरसंघचालक बालासाहेब देवरस जी ने इस परंपरा को बदलते हुए एक नई परंपरा प्रारंभ की और उन्होंने अपने जीते जी संघ की कार्यसमिति की बैठक में नए सरसंघचालक हेतु प्रोफेसर राजेंद्र सिंह उपाख्य रज्जू भैया का नाम प्रस्तावित किया। इसी प्रकार से प्रोफेसर रज्जू भैया ने नए सरसंघचालक हेतु श्री कु. सी. सुदर्शन जी का नाम तथा सुदर्शन जी ने भी डॉ. मोहन भागवत जी का नाम प्रस्तुत किया, जिसे कि कार्यसमिति की सहमति से ही स्वीकार किया गया। इस प्रकार संघ में सरसंघचालक के लिए कोई भी ऐसा नियम नहीं है, जिसके तहत इनकी नियुक्ति या चयन हो सके। दरअसल परंपरा के अनुसार पूर्व सरसंघचालक जिसे अपने बाद उपयुक्त समझते हैं, उनको ही यह जिम्मेदारी सौंपते हैं।
यदि संघ एक वट वृक्ष की तरह है, तो उस वृक्ष के फूल और पत्तियां इसके विभिन्न बोली-भाषाओं व संस्कृतियों का वहन करने वाले विभिन्न राज्यों में समर्पित स्वयंसेवक हैं, वृक्ष की टहनियां संघ के आजीवन वृत्ति प्रचारक हैं, तो उसकी शाखाएं उसके विभिन्न आनुषांगिक क्षेत्र हैं, तना संघ का समर्पण व संकल्प है, तो सरसंघचालक इस वटवृक्ष के प्राणवायु का आधार होते हैं। एक तरह से संघ पूर्णतया पू. सरसंघचालक जी के चिंतन व मार्गदर्शन पर ही निर्भर होता है।
राष्ट्र व्रत के लिए समर्पित संघ के उपरोक्त समस्त पू. सरसंघचालकों को सम्मानित करने के लिए सबसे बड़ा अवसर यही है कि हम संघ के इस शताब्दी वर्ष में संघ द्वारा आयोजित उन समस्त कार्यक्रमों पर विशेष ध्यान दें, जो कि संघ ने अपने शताब्दी वर्ष के लिए निर्धारित किए हैं। ऐसा संकल्प लेकर हम संघ के समस्त दिवंगत पांचों पू. सरसंघचालकों की दिव्यात्माओं को सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते हैं तथा वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी की संकल्पना को नमन करते हुए संघ का भावी इतिहास लिखने के लिए नई कलम बनने का श्रेय प्राप्त कर सकते हैं।
– डॉ. राजेश्वर उनियाल