देशभक्ति के संस्कार बचपन में ही डालने चाहिए। संसद में ‘वंदे मातरम्’ गायन की मेरे कारण ही शुरुआत हुई, इसका मुझे गर्व भी महसूस होता है, पर इसकी मूल प्रेरणा स्कूली छात्र ही थे।
‘वंदे मातरम्’ इन दो शब्दों के केवल उच्चारण से ही एक अलग ही स्फूर्ति आती है। ‘वंदे मातरम्’ कहते हुए फाँसी पर चढ़ने वाले क्रांतिकारियों का, स्वतंत्रता आंदोलन के लोगों का स्मरण होता है। हमारे देश के वैभवशाली, भौगोलिक, सांस्कृतिक इतिहास का स्मरण कराने वाले बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा लिखे गए इस गीत को 7 नवंबर 2025 को 150 वर्ष पूरे हो रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने इस अवसर पर देशभर में ‘वंदे मातरम्’ का सार्धशती जयंती वर्ष मनाने का मन बनाया है, इस पर सभी भारतीयों की तरह मुझे भी बहुत खुशी हुई। ‘वंदे मातरम्’ से जुड़ी अनेक स्मृतियाँ उमड़कर आईं।
केंद्र सरकार और महाराष्ट्र शासन, इन दोनों ने ही ‘वंदे मातरम्’ गीत की सार्धशती जयंती के अवसर पर वर्षभर के लिए देशभक्ति की लहर सतत बहती रहे, इसके लिए एक से बढ़कर एक उत्कृष्ट कार्यक्रमों का आयोजन घोषित किया। सभी कार्यक्रम अच्छे हैं, पर मुझे सबसे अधिक खुशी तब हुई जब स्कूली छात्रों के लिए आयोजित विविध कार्यक्रमों का स्वरूप समझ में आया। देशभक्ति के संस्कार बचपन में ही डालने चाहिए। संसद में ‘वंदे मातरम्’ गायन की मेरे कारण ही शुरुआत हुई, इसका मुझे गर्व भी महसूस होता है, पर इसकी मूल प्रेरणा स्कूली छात्र ही थे।
मेरी स्कूली शिक्षा जिस वर्ष पूरी हुई, उसी वर्ष 1950 में हमारा संविधान तैयार हुआ, ‘जन गण मन’ को राष्ट्रगान का दर्जा मिला, जबकि ‘वंदे मातरम्’ को राष्ट्रगीत का आधिकारिक दर्जा मिला। आज़ाद भारत में जन्मे बच्चों-बच्चियों पर देशभक्ति के संस्कार डालने के लिए स्कूलों में, सार्वजनिक कार्यक्रमों में ये गीत गाए जाने लगे। राष्ट्रपति जैसे महत्वपूर्ण व्यक्तित्व जहाँ इन कार्यक्रमों में होते, वहाँ इनका गायन तो राजकीय शिष्टाचार बन गया। स्वयंस्फूर्त रूप से देशवासियों ने दिया यह प्रतिसाद बिल्कुल योग्य था, परंतु स्वतंत्रता संग्राम का कालखंड बीत जाने के बाद अनेक लोगों को इस दैदीप्यमान इतिहास की और अपने ‘राष्ट्रगीत’ और ‘राष्ट्रगान’ की याद ही नहीं रही। मुझे सबसे पहले अत्यंत दुख के साथ इसकी जानकारी स्वतंत्रता के 44 वर्ष बाद – 3 दिसंबर 1991 को हुई।
‘राष्ट्रगीत’ और ‘राष्ट्रगान’ के बारे में भीषण उदासीनता
कर्नाटक के काँग्रेस के सांसद के. एच. मुनियप्पा और बिहार के जनता पार्टी के सांसद मुमताज अंसारी, इन दोनों ने इस संदर्भ में लोकसभा में एक सवाल उठाया था: “(क) क्या देश की कुछ शिक्षण संस्थाओं में ‘राष्ट्रगीत’ और ‘राष्ट्रगान’ का गायन-वादन बंद कर दिया गया है?, (ख) यदि उत्तर ‘हाँ’ है, तो इसके कारण क्या हैं?”
“कुछ रिपोर्ट्स आई हैं जिनमें कहा गया है कि स्कूलों में रोज सामूहिक रूप से राष्ट्रगीत गाने की परंपरा बंद कर दी गई है। इसी तरह कुछ स्कूलों में कुछ विशेष अवसरों पर ही गाने को मर्यादित किया गया है। संभवतः इसका मुख्य कारण उदासीनता है,” यह चिंताजनक उत्तर मंत्रियों ने उस समय दिया था।
इसके बाद आगे पूछा गया था कि, “(ग) क्या सभी स्कूलों में ‘राष्ट्रगीत’ और ‘राष्ट्रगान’ गाना अनिवार्य करने का सरकार का विचार है या नहीं? और (घ) यदि नहीं, तो इसके पीछे कारण क्या हैं?”
इस पर माननीय मंत्रियों द्वारा दिया गया उत्तर इस प्रकार था – “राष्ट्रगान के संबंध में सरकार की नीति यही है कि सभी स्कूलों में रोज राष्ट्रगान सामूहिक रूप से गाया जाए। राष्ट्रगान के सामूहिक गायन के संदर्भ में भारत सरकार ने समय-समय पर आदेश जारी किए हैं। हाल ही में अक्टूबर 1991 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय (शिक्षा विभाग) ने स्कूलों में राष्ट्रगान के लिए आवश्यक निर्देश देने के लिए सभी मुख्यमंत्रियों और उपराज्यपालों को लिखा है, परंतु राष्ट्रगीत अर्थात ‘वंदे मातरम्’ के गायन के लिए कोई निर्देश नहीं दिए गए हैं।”
ये जवाब देशभर में ‘जनगणमन’ और ‘वंदे मातरम्’ के संदर्भ में फैली उदासीनता की ज्वलंत अनुभूति थे। एक ओर उदासीनता दूर करने की आवश्यकता थी, तो दूसरी ओर संविधान में उल्लेखित ‘वंदे मातरम्’ को भी ‘जनगणमन’ जैसा ही सम्मान है, इसकी याद काँग्रेस सरकार को दिलाने का समय आ गया था।
लोकसभा में आधे घंटे की चर्चा
इसलिए मैंने इस विषय को लोकसभा में “अर्धघंटा चर्चा” के माध्यम से उठाया।
सांसदों द्वारा पूछे गए प्रश्न और मंत्री के उत्तर गंभीर थे, अत: सभी को मिलकर इस विषय पर चर्चा करनी चाहिए। ‘जन गण मन’ और ‘वंदे मातरम्’ के प्रति उदासीनता को समाप्त कर केवल विद्यार्थियों में ही नहीं अपितु पूरे देशवासियों में आस्था जागृत करनी चाहिए,” यह राय मैंने लोकसभा में व्यक्त की।
मैंने आगे सुझाव दिया कि —
“विद्यालयों को केवल लिखित निर्देश देने से कुछ नहीं होगा।
यदि सरकारी सहायता से चलने वाले स्कूलों में ये गीत नहीं गाए जाते,
तो ऐसी स्कूलों की सहायता रोक दी जाए
और उनकी मान्यता रद्द कर दी जाए।
क्योंकि यह हमारी राष्ट्रीय पहचान से जुड़ा विषय है।”
हम जनता का प्रतिनिधित्व करनेवाले सर्वोच्च व्यासपीठ लोकसभा के प्रतिनिधि अर्थात सांसद हैं।
यदि हम स्वयं “वंदे मातरम्” गाते हुए दिखाई देंगे,
तो यह पूरे देश को प्रेरणा देगा।
उस समय जब यह प्रश्न लोकसभा में आया तब आज की तरह इतने विभिन्न मीडिया साधन प्रचलित नहीं थे — केवल दूरदर्शन ही एक प्रमुख माध्यम था,
और उसी समय लोकसभा की कार्यवाही का सीधा प्रसारण शुरू हुआ था।
इसलिए मैंने सुझाव दिया —
“यदि देश के सभी सांसद संसद भवन में इन गीतों को गाते हुए दिखाई दें,
तो इसका जनता पर अत्यंत सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।”
मैंने यह माँग रखी। मा. लालकृष्ण आडवाणी जी के साथ-साथ अनेक सांसदों ने इस माँग का समर्थन करने वाले भाषण सभा में दिए।
काँग्रेस मंत्रियों का सतर्क प्रतिसाद
तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने भी उत्तर देते हुए कहा कि भारत में ‘वंदे मातरम्’ गीत और इससे मिली प्रेरणा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक अविस्मरणीय और रोमांचक हिस्सा है, ‘वंदे मातरम्’ का सामूहिक गायन उचित ही है। लेकिन एक ओर समर्थन देने के बाद, निर्णय लेने की जिम्मेदारी लिए बिना अर्जुन सिंह ने कहा, “माननीय अध्यक्ष महोदय!… माननीय सदस्यों ने जो सुझाव दिया है, उस पर तो आदरणीय अध्यक्ष महोदय ही निर्णय ले सकते हैं। इस संबंध में वे जो भी निर्णय लेंगे, उसका हम सभी पालन करेंगे।”
23 दिसंबर 1992 को संसद में पहली बार ‘वंदे मातरम्’
राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत के बारे में देश के मंत्रियों की ऐसी कुछ-कुछ सतर्क भूमिका वास्तव में मुझे खटकी। इसके कारण मंत्रियों के इस उत्तर के बाद मैंने सदन के कामकाज से संबंधित नियम बनाने वाली सामान्य प्रयोजन समिति (General Purposes Committee) के सामने यह माँग रखी। लोकसभा अध्यक्ष शिवराज पाटिल इस समिति के अध्यक्ष थे और सदस्यों में लालकृष्ण आडवाणी, कम्युनिस्ट नेता सोमनाथ चटर्जी और इंद्रजीत गुप्ता सहित सभी राजनीतिक पार्टियों के सांसद सदस्य थे। सभी ने मेरी मांग का जोरदार समर्थन किया
और सर्वसम्मति से यह निर्णय लिया गया कि —
“संसद का प्रत्येक सत्र ‘वंदे मातरम्’ से प्रारंभ और ‘जन गण मन’ से समापन किया जाएगा।”
निर्णय के बाद की चुनौतियाँ
समिति की बैठक में जब यह निर्णय हुआ,
तो उसका विवरण सभी सदस्यों को भेजा गया।
लेकिन बैठक में अनुपस्थित रहे सदस्य,
मुस्लिम लीग के ई. अहमद,
ने इस निर्णय का विरोध किया।
उन्होंने कहा —
“यह निर्णय मान्य नहीं है,
क्योंकि मैं उस बैठक में उपस्थित नहीं था।”
बाद में कई बैठकों में इस विषय पर चर्चा हुई,
मगर वे कुछ नहीं बोले,
और जब अंतिम निर्णय का समय आया,
तो उन्होंने विरोध जताने का प्रयास किया।
निर्णय बहुमत से पारित किया जा सकता था,
पर ऐसे राष्ट्रीय विषयों पर मतभेद शोभा नहीं देते।
अध्यक्ष शिवराज पाटिल ने बहुत समझदारी से कहा —
“देशभक्ति जैसे विषय में यदि आप ही विरोध करेंगे,
तो आपकी ही छवि खराब होगी।”
तब अध्यक्ष ने एक समझौता सूत्र सुझाया —
“संसद का आरंभ ‘जन गण मन’ से हो
और समापन ‘वंदे मातरम्’ से।”
इस प्रस्ताव को सभी सदस्यों ने सहमति दी।
इस प्रकार समिति ने सर्वसम्मति से निर्णय लिया कि
“प्रत्येक संसद सत्र की शुरुआत ‘जन गण मन’ से
और समाप्ति ‘वंदे मातरम्’ से की जाएगी।”
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संसद में पहली बार गूंजा ‘वंदे मातरम्’
विषय की शुरुआत से लेकर निर्णय तक पहुँचने में एक वर्ष लग गया।
लेकिन कहावत है — “देर आए, दुरुस्त आए!”
आख़िरकार, स्वतंत्र भारत के इतिहास में 45 वर्षों बाद
पहली बार 24 नवंबर 1992 को संसद में
‘जन गण मन’ गूँजा,
और 23 दिसंबर 1992 को
‘वंदे मातरम्’ की गूँज पूरे सदन में फैल गई।
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जीवन का सबसे संतोषजनक क्षण
भारतीय संसद के इतिहास में वह एक स्वर्णिम क्षण था।
मुझे सौभाग्य मिला कि मैं उस ऐतिहासिक क्षण का साक्षी और सहभागी बना।
मेरे जीवन की यह सबसे बड़ी उपलब्धि रही।
अब, जब “वंदे मातरम्” की सार्धशती जयंती मनाई जा रही है,
तो आइए, सभी देशवासी एक स्वर में “वंदे मातरम्” का उद्घोष करें,
और एक नया इतिहास रचें।
– राम नाईक
‘पद्म भूषण’ से सम्मानित
पूर्व राज्यपाल, उत्तर प्रदेश



Very touching and heart warming gesture 🙏🙏