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बिरसा मुंडा का उलगुलान – भारतीय समाज का स्वाभिमान

बिरसा मुंडा का उलगुलान – भारतीय समाज का स्वाभिमान

by हिंदी विवेक
in ट्रेंडींग
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बिरसा मुंडा महान क्रांतिकारी थे, जनजातीय समाज को साथ लेकर उलगुलान किया था उन्होने। उलगुलान अर्थात हल्ला बोल, क्रांति का ही एक देशज नाम। वे एक महान संस्कृतिनिष्ठ समाज सुधारक भी थे, वे संगीतज्ञ भी थे जिन्होंने सूखे कद्दू से एक वाद्ययंत्र का भी अविष्कार किया था जो अब भी बड़ा लोकप्रिय है। इसी वाद्ययंत्र को बजाकर वे आत्मिक सुख प्राप्त करते थे व दलित, पीड़ित समाज को संगठित करने का कार्य भी करते थे। ठीक वैसे ही जैसे भगवान श्रीकृष्ण अपनी बंशी से स्वांतः सुख व समाज सुख दोनों ही साध लेते थे। सूखे कद्दू से बना यह वाद्ययंत्र अब भी भारतीय संगीत जगत मे वनक्षेत्रों से लेकर बॉलीवुड तक बड़ी प्रमुखता से बनाया व बजाया जाता है। वस्तुतः बिरसा मुंडा की मूल कार्यशैली जनजातीय समाज को ईसाइयों के धर्मांतरण से बचाने, अत्याचारों से समाज को बचाने, समाज मे व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करने व शोषक वर्ग से समाज को बचाने की रही। भारतीय समाज का एक महत्वपूर्ण व अविभाज्य अंग रहा है जनजातीय समाज। मूलतः प्रकृति पूजक यह समाज सदा से भौतिकता, आधुनिकता व धनसंचय से दूर ही रहा है।

Birsa Munda: The young tribal leader who inspired a movement for freedom - India Today

अबुआ दिशोम रे अबुआ राज अर्थात अपनी धरती अपना राज का नारा दिया था वीर बिरसा मुंडा ने। वीर शिरोमणि बिरसा की जयंती के अवसर बिरसा के राष्ट्र हेतु प्राणोत्सर्ग करने की कहानी पढ़ने के साथ साथ यह भी स्मरण करने का अवसर है कि अब स्वतंत्र भारत मे अर्थात अबुआ दिशोम मे जनजातीय व वनवासी बंधुओं के साथ, उनकी संस्कृति के साथ क्या क्या षड्यंत्र हो रहे हैं? वस्तुतः जनजातीय समाज के समक्ष अब भी बड़ी चुनौतियाँ वैचारिक व सांस्कृतिक स्तर पर लगातार रखी जा रही है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है समूचे भारत मे फैलाया जा रहा आर्य व अनार्य का विघटनकारी वितंडा। कथित तौर पर आर्य कहे जाने वाले लोग भी भारत मे उतने ही प्राचीन हैं जितने कि अनार्य का दर्जा दे दिए गए जनजातीय समाज के लोग। वस्तुतः वनवासी समाज को अनार्य कहना ही एक अपशब्द की भांति है, क्योंकि आर्य का अर्थ होता है सभ्य व अनार्य का अर्थ होता है असभ्य। सच्चाई यह है कि भारत का यह वनवासी समाज पुरातन काल से ही सभ्यता, संस्कृति, कला, निर्माण, राजनीति, शासन व्यवस्था, उत्पादकता और सबसे बड़ी बात राष्ट्र व समाज को उपादेयता के विषय मे किसी भी शेष समाज के संग कदम से कदम मिलाकर चलता रहा है व अब भी चल रहा है।

अपने विभेदकारी लक्ष्य की पूर्ति हेतु पश्चिमी विद्वानों ने भारतीय जातियों मे विभेद उत्पन्न करना उत्पन्न किया व द्रविड़ों को भारत का मूलनिवासी व आर्यों को बाहरी आक्रमणकारी कहना प्रारंभ किया। ईसाइयों ने अपने धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करने हेतु इस प्रकार के षड़यंत्र रचना सतत चालू रखा। विदेशियों ने ही भारत के इतिहास लेखन में इस बात को दुराशय पूर्वक बोया कि आर्य विदेश से आई हुई एक जाति थी जिसने भारत के मूलनिवासी द्रविड़ समाज की सभ्यता को आक्रमण करके पहले नष्ट भ्रष्ट किया व उन्हें अपना गुलाम बनाया। जबकि यथार्थ है कि आर्य किसी जाति का नहीं बल्कि एक उपाधि का नाम था जो कि किसी विशिष्ट व्यक्ति को उसकी विशिष्ट योग्यताओं, अध्ययन या सिद्धि हेतु प्रदान की जाती थी। आर्य शब्द का सामान्य अर्थ होता है विशेष। पहले अंग्रेजों ने व स्वातंत्र्योत्तर काल मे अंग्रेजों द्वारा लादी गई शिक्षा पद्धति ने भारत मे लगभग छः दशकों तक इस अशुद्ध व दुराशयपूर्ण इतिहास का पठन -पाठन चालू रखा। भारत मे इसी दूषित शिक्षा पद्धति ने आर्यन इंवेजन थ्योरी की स्थापना की व सामाजिक विभेद के बीज लगातार बोए।

How Not To Remember Birsa Munda | SabrangIndia

जर्मनी मे जन्में किंतु संस्कृत के ज्ञान के कारण अंग्रेजों द्वारा भारत बुलाये गए मेक्समूलर ने आर्यन इन्वेजन थ्योरी का अविष्कार किया। मेक्समूलर ने लिखा कि आर्य एक सुसंस्कृत, शिक्षित, बड़े विस्तृत धर्म ग्रन्थों वाली, स्वयं की लिपि व भाषा वाली घुमंतू किंतु समृद्ध जाति थी। इस प्रकार मैक्समूलर ने आर्य इंवेजन थ्योरी के सफेद झूठ का पौधा भारत मे बोया जिसे बाद मे अंग्रेजी शिक्षा पद्धति ने एक बड़ा वृक्ष बना दिया। यद्यपि बाद मे 1921 मे हड़प्पा व मोहनजोदाड़ो सभ्यता मिलने के बाद आर्यन थ्योरी को बड़ा धक्का लगा किंतु अंग्रेजों ने अपनी शिक्षा पद्धति, झूठे इतिहास लेखन व षड़यंत्र के बल पर इस थ्योरी को जीवित रखा। सबसे बड़ी खेद की बात यह है कि अंग्रेजों के जाने के पश्चात भारत मे एक बड़ा वर्ग ऐसा जन्मा जो कहने को तो भारतीय संतति ही है किंतु उसकी मानसिकता भारत विरोधी है।

यह वर्ग सेकुलर, नक्सलवादी, माओवादी, बुद्धिजीवी, प्रगतिशील, जनवादी, आदि आदि नामों से आपको यहाँ-वहाँ समाज सेवा के नाम पर समाज व देश को तोड़ते हुये बड़ी सहजता से मिल जाएगा। सिंधु घाटी सभ्यता की श्रेष्ठता को छुपाने व आर्य द्रविड़ के मध्य विभाजन रेखा खींचने की यह कथा बहुत विस्तृत चली व अब भी इस कथित विघ्नसंतोषी वर्ग द्वारा चलाई जा रही है किंतु इन्हे हमारा समाज अब भी चिन्हित नहीं कर पाया है। आज सबसे महती आवश्यकता इस बात की है कि वनवासी समाज मे घुसपैठ कर रहे इस कालनेमी वर्ग को पहचानना और उनके देशविरोधी, समाज विरोधी चरित्र पर ढके हुये छदम आवरण को हटाना। इस विघ्नसंतोषी वर्ग की बातों को अलग कर यदि हम भारत के जनजातीय समाज व अन्य समाजों मे परस्पर एकरूपता की बात करें तो कई अकाट्य तथ्य सामने आते हैं। कथित तौर पर जिन्हें आर्य व द्रविड़ अलग अलग बताया गया उन दोनों का डीएनए परस्पर समान पाया गया है। दोनों ही शिव के उपासक हैं। प्रसिद्ध एन्थ्रोपोलाजिस्ट वारियर एलविन, जो कि अंग्रेजों के एडवाइजर थे, ने जनजातीय समाज पर किए अध्ययन मे बताया था कि ये कथित आर्य और द्रविड़ शैविज्म के ही एक भाग है और गोंडवाना के आराध्य शंभूशेक भगवान शंकर का ही रूप हैं।

ऐसे वीर हजारों जनजातीय बंधुओं के नाम इतिहास में लिखे हैं जिनने अपना सर्वस्व भारत देश की संस्कृति व हिंदुत्व की रक्षा के लिए अर्पण कर दिया। गौपालन व गौ सरंक्षण का संदेश बिरसा मुंडा जी ने भी समान रूप से दिया है और तो और क्रांतिसूर्य बिरसा मुंडा का उलगुलान संपूर्णतः हिंदुत्व आधारित ही है। ईश्वर यानी सिंगबोंगा एक हैैं, गौ की सेवा करो एवं समस्त प्राणियों के प्रति दया भाव रखो, अपने घर में तुलसी का पौधा लगाओ, ईसाइयों के मोह जाल में मत फंसो, परधर्म से अच्छा स्वधर्म है, अपनी संस्कृति, धर्म और पूर्वजों के प्रति अटूट श्रद्धा रखो, गुरुवार को भगवान सिंगबोंगा की आराधना करो व इस दिन हल मत चलाओ यह सब संदेश भगवान बिरसा मुंडा ने दिए हैं।

जिन्हें आर्य कहा गया वे और वे जिन्हे अनार्य कहा गया वे, दोनों ही वन, नदी, पेड़, पहाड़, भूमि, गाय, बैल, सर्प, नाग, सूर्य, अग्नि आदि की पूजा हजारों वर्षों से करते चले आ रहे हैं। ऐसी स्थिति मे हम समस्त भारतीयों का यह कर्तव्य बनता है की आर्य विरुद्ध अनार्य के इस विघटनकारी विमर्श से इस देश को मुक्ति दिलाएँ व एकरस, एकरूप व एकात्म होकर राष्ट्रनिर्माण मे अपना अपना योगदान दें।

डॉ. प्रवीण दाताराम गुगनानी

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