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आंतरिक सुरक्षा और भारत की विदेश नीति

आंतरिक सुरक्षा और भारत की विदेश नीति

by सरोज त्रिपाठी
in फरवरी-२०१५, सामाजिक
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एक समर्थ राष्ट्र की तरह भारत अंतरराष्ट्रीय संबंधों में किसी के अंध समर्थन या विरोध का झूला झूलने के बजाय अपने दीर्घकालिक हितों का अनुसरण करते हुए बेबाक विदेश नीति पर चल रहा है।
राष्ट्रीय सुरक्षा दुनिया के प्रत्येक देश की विदेश नीति का मूल आधार होती है। हर देश अपने दीर्घकालिक हितों के मद्देनजर ही अपनी विदेश नीति निर्धारित करता है। भारत का उसके दो पड़ोसी देशों पाकिस्तान और चीन से सीमा विवाद है। पाकिस्तान से चार बार और चीन से एक बार भारत का युद्ध भी हो चुका है। खुद आतंकवाद से बुरी तरह प्रभावित होने के बावजूद पाकिस्तान दुनिया का सब से बड़ा आतंकवाद पोषक और आतंकवाद निर्यातक देश बन चुका है। पाकिस्तान के पड़ोसी देश अफगानिस्तान में किस्म-किस्म के कथित इस्लामी जेहादियों के अड्डे हैं। ऐसे में स्वाभाविक है कि भारत की विदेश नीति पर चीन और पाकिस्तान से उसके कटु संबंधों तथा आतंकवाद के प्रेत की छाया हमेशा महसूस की जा सकती है।
१९४७ में आजादी के बाद भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति अख्तियार की। द्वितीय विश्व युद्ध के बांद नव-स्वतंत्र राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक ऐसी भूमिका की तलाश में थे जो कि उनके आत्मसम्मान और क्षमता के अनुरूप हो। आत्मसम्मान की एक अंतरराष्ट्रीय भूमिका के लिए सामूहिक पहल न सिर्फ वांछित थी, बल्कि समय की मांग भी थी। स्वतंत्रता और सामूहिकता की इसी मानसिकता ने गुटनिरपेक्षता की वैचारिक और राजनीतिक नींव रखी थी। गुटनिरपेक्ष आंदोलन की अगुवाई भारत के पंडित जवाहरलाल नेहरू, मिस्र के कर्नल नासिर, इंडोनेशिया के डॉ. सुकर्ण और युगोस्लाविया के मार्शल टिटो ने की थी।
एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका के नव स्वतंत्र राष्ट्रों द्वारा विदेश नीति के रूप में गुटनिरपेक्षता को चुनने का तात्कालिक और आधारभूत कारण यह था कि उस समय समूचे विश्व का विचारधारा के आधार पर दो गुटों-सोवियत संघ और अमेरिका में ध्रुवीकरण हो गया था। नव स्वतंत्र राष्ट्र यह मानते थे कि अमेरिका और सोवियत संघ के बीच जारी शीत युद्ध न तो उनके हित में है और न विश्व समुदाय के। इसके साथ-साथ इन नवोदित राष्ट्रों का स्वतंत्र देशों के रूप में अपना अस्तित्व बनाए रखने और अपना आर्थिक विकास करने के लिए भी सोवियत रूस और अमेरिका में ध्रुवीकरण घातक था।
नव स्वतंत्र राष्ट्रों द्वारा निर्गुट आंदोलन चुनने के पीछे आर्थिक कारण भी महत्वपूर्ण था। प्राय: सभी निर्गुट देश आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए थे। उनके रहन-सहन का स्तर निम्न था। ऐसे में यह स्वाभाविक था कि उनकी विदेश नीति का प्रमुख उद्देश्य तीव्र आर्थिक विकास को प्रोत्साहन देना था। परंतु इसके लिए उनके पास पूंजी तथा प्रौद्योगिकी कौशल दोनों ही नहीं था। अत: उन्होंने अपनी वैदेशिक अर्थनीतियों को एक ऐसा मोड़ दिया जिससे कि उन्हें पूंजी तथा प्रौद्योगिकी कौशल यदि संभव हो तो बिना शर्त के मिल जाए क्योंकि उन्हें इनकी सख्त जरूरत की। इसीलिए उन्होंने इसे बेहतर माना कि किसी भी गुट में शामिल न हुआ जाए।
दुर्भाग्य से भारत बड़ी तल्खी से यह अनुभव करने को विवश हुआ कि गुटनिरपेक्षता की नीति उसे किसी भी तरह की सुरक्षा प्रदान करने में विफल साबित हुई। १९६२ मे भारत-चीन युद्ध के अवसर पर कोई भी निर्गुट देश भारत की सहायता के लिए आगे नहीं आया। भारत के सामने यह बात बिल्कुल साफ हो गई नि गुटनिरपेक्षता किसी भी प्रकार से सुरक्षा का साधन नहीं हो सकती। इसके बावजूद शीत युद्ध के दौर में भारत अघोषित तौर पर सोवियत रूस ब्लॉक में ही खडा रहा। शायद इसका सब से बड़ा कारण अमेरिकी नेतृत्व में पश्चिमी देशों की पाक परस्त नीति थी। जबकि कश्मीर मसले पर, गोवा मुक्ति संग्राम तथा बांग्लादेश मुक्ति संग्राम जैसे मुद्दों पर रूस भारत के साथ खड़ा रहा।
२०वीं सदी के अंत मे १९८९ में बर्लिन दीवार गिराने, पूर्वी यूरोपीय देशों में सोवियत रूस समर्थक शासन व्यवस्था के पतन, वारसा संधि के समापन और १९९१ मे सोवियत संघ के १५ स्वतंत्र राष्ट्रों में बिखराव के साथ ही शीत युद्ध स्वत: खत्म हो गया। इसके बाद विश्व राजनीति में अमेरिकी वर्चस्व स्थापित हो गया और एक ध्रुवीय विश्व व्यवस्था की शुरूआत हुई। सोवियत संघ के बिखराव ने तात्कालीक तौर पर गुटनिरपेक्ष आंदोलन की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लगा दिया। पर अब फिर से यह महसूस किया जाने लगा है कि इस एक ध्रुवीय विश्व में अमेरिकी दादागिरी का यदि कोई जवाब है, तो वह निर्गुट आंदोलन ही हो सकता है। इसी अहसास का प्रमाण है कि निर्गुट सदस्य देशों की संख्या बढ़ कर ११६ हो चुकी है। अब निर्गुट सम्मेलनों में इस बात पर जोर दिया जाने लगा है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ में गुटनिरपेक्ष देशों द्वारा प्रभावी भूमिका निभाई जानी चाहिए।
शीत युद्ध की समाप्ति के बाद लगभग सभी बड़ी ताकतों में भारत को अपने पाले में रखने की होड़ सी मची हुई है। सभी बड़ी आर्थिक ताकतें भारत को एक लाभदाई बाजार के रूप में देख रहे हैं। १९९१ से शुरू हुए भूमंडलीकरण के इस दौर में भारत की विदेश नीति में चार प्रमुख बदलाव रेखांकित किए जा सकते हैं। पहला बदलाव वह था, जब तत्कालीन प्रधान मंत्री पी. वी. नरसिंहराव ने जनवरी १९९२ में इस्राईल के साथ पूर्ण कूटनीतिक रिश्तें स्थापित किए थे। दूसरा बदलाव अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधान मंत्री के काल में आया। वाजपेयी ने अमेरिका को न सिर्फ रणनीतिक बल्कि ‘स्वाभाविक सहयोगी’ के तौर चित्रित किया। इसी के बाद भारत और अमेरिका में नए मेल-मिलाप और अमेरिकी राष्ट्रपतियों की भारत यात्राओं का सिलसिला शुरू हुआ। भारतीय विदेश नीति में तीसरा महत्वपूर्ण बदलाव उस समय दिखा जबकि मनमोहन सिंह ने अमेरिका से परमाणु करार के मसले पर अपनी सरकार को दांव पर लगा दिया था। और अब सन २०१५ में भारतीय गणतंत्र दिवस की परेड की ओबामा द्वारा शोभा बढ़ाना शीत युद्धोत्तर भारत के नीतिगत ढांचे में चौथा सब से बड़ा बदलाव कहा जा सकता है।
दरअसल भूमंडलीकरण ने कई तरह के हित पैदा कर दिए हैं। इसलिए शायद अब विदेश नीति का लचीला होना जरूरी हो गया है। अमेरिका के साथ कई मामलों मे भारत की बढ़ती साझीदारी को देखा जा सकता है। जैसे कि द्विपक्षीय व्यापार १०० अरब डॉलर पर पहुंच चुका है और इसे करीब ५०० अरब डॉलर तक पहुंचाने का लक्ष्य है। करीब एक लाख भारतीय छात्र अमेरिका मे पढ़ रहे हैं। ३० लाख से ज्यादा भारतीय मूल के लोग अमेरिका में रहते हैं। भारत अमेरिकी हथियारों का एक बड़ा आयातक है। अमेरिका के साथ २००५ में हुए रक्षा समझौते को १० वर्षों के लिए बढ़ाया गया है। भारत का उसके साथ परमाणु करार भी हो चुका है। इलाहाबाद, अजमेर और विशाखापट्टनम को स्मार्ट सिटी बनाने में अमेरिका ने मदद करने का वादा किया है। इन सबके बावजूद दोनों देशों के बीच मुंह बाए खड़े कई दूसरे मुद्दों पर गतिरोध कायम है।
अमेरिका ने एच बी वीजा फीस में भारी बढ़ोत्तरी की है। परमाणु ऊर्जा पर अमेरिकी कंपनियां कुंडली मारे बैठी हैं। भारत-पाक सीमा पर जारी गतिरोध और आतंकवाद के मुद्दे पर पाक पर किसी भी तरह का दबाव बनाने का कोई संकेत अमेरिका नहीं दे रहा है। अमेरिकी दबाव के बावजूद भारत ने ईरान से तेल खरीदना जारी रखा है। अमेरिका और रूस के बीच यूक्रेन के मसले को लेकर चल रहे तनाव और अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देशों के रूस की घेरेबंदी के बावजूद भारत ने दिसंबर २०१४ में रूसी राष्ट्रपति का जोरदार स्वागत किया। दोनों देशों के बीच पेट्रोल-गैस, मिलिट्री ट्रेनिंग एक्सचेंज, परमाणु ऊर्जा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में रिसर्च से जुड़े १६ समझौतों पर दस्तखत हुए। दोनों देशों ने तेल और गैस शोधन में साझेदारी बढ़ाने का फैसला किया है।
भारत और अमेरिका के रिश्तों पर सरसरी तौर पर निगाह डालने पर भी यह बात साफ-साफ जाहिर होती है कि दोनों देशों के वर्ल्ड विजन अलग-अलग हैं। अमेरिका विश्व अर्थ व्यवस्था पर अपना वर्चस्व कायम रखना चाहता है, जबकि भारत अपने बढ़े हुए हिस्से की मांग कर रहा है।
हमारा पड़ोसी चीन भारत के साथ सीमा विवाद को उलझाए रखना चाहता है और भारत इस सामरिक दबाव से खुद को अलग रखने के साथ ही पश्चिमी गुट के दशों से नजदीकी संबंध बढ़ा रहा है। यही वजह है कि पिछले साल भारत के गणतंत्र दिवस परेड के मौके पर जापान के प्रधान मंत्री शिंजो अबे को आमंत्रित किया गया था तो २०१५ में इसके मुख्य अतिथि के तौर पर ओबामा को आमंत्रित किया गया।
नेहरू युग की विदेश नीति में एक बड़ा बदलाव उस समय आया जबकि १९९१ में नरसिंह राव की सरकार ने ‘लुक ईस्ट’ की पॉलिसी शुरू की। प्रधान मंत्री मोदी ने जापान, वियतनाम और आस्ट्रेलिया से संबंधों को और प्रगाढ़ किया है। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने चीन के पड़ोसी देश वियतनाम का दौरा किया और कुछ ऐसे समझौते किए जिससे कि चीन चिढ़ गया। उसने भारत को आगाह किया कि वह वियतनाम के साथ दक्षिण चीन सागर मे गैस दोहन के लिए जो समझौता किया है, उसे लागू करने से पहले चीन से सलाह कर ले कि उस इलाके में भारत अपनी गतिविधियां चला सकता है या नहीं। चीन के इस रवैए की कतई परवाह न करते हुए प्रधान मंत्री मोदी ने चीन के सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी माने जाने वाले जापान का सफल दौरा किया। जापान के प्रधान मंत्री ने मोदी की खूब आवभगत कर चीन को यह संदेश देने की कोशिश की कि भारत एशिया की एक बड़ी ताकत है जो जापान का पहला दोस्त है न कि चीन का। भारत ने जापान को अपना सदाबहार दोस्त बताया। हनोई में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने वियतनाम को भारत का सदाबहार दोस्त बताया। ठीक उसी तरह जैसे चीन पाकिस्तान को अपना सदाबहार दोस्त बताता है। भारत को चीन के इस रवैए से चिढ़ होती है कि उसने पाकिस्तान को अतंरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन कर परमाणु और मिसाइल प्रौद्योगिकी देकर उसे परमाणु ताकत बनने में मदद की।
दक्षिण चीन सागर में चीन और वियतनाम के बीच गहरा विवाद है। फिलीप्पींस, इंडोनेशिया, मलेशिया और जापान जैसे देश अपने समुद्री क्षेत्रों में चीन के दावे से नाखुश हैं। दक्षिण चीन सागर के इलाके पर जिस तरह चीन अपना दबदबा स्थापित करना चाह रहा है, उसे भारत कभी भी बर्दाश्त नहीं कर सकता। अमेरिका भी यह नहीं चाहता कि दक्षिण चीन सागर में चीन का दबदबा कायम हो जाए। इस इलाके में भारत और अमेरिका के सामरिक हित मेल खाते हैं। पर भारत किसी भी चीन विरोधी गठजोड़ में नहीं उलझना चाहता। लेकिन वह चीन से भी यही अपेक्षा करता है कि वह दक्षिण सागर से लेकर पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर के इलाके में भारत की चिंताएं दूर करे।
चीन के राष्ट्रपति भारत के पड़ोसी मालदीव के दौरे पर गए और उसके साथ रक्षा सहयोग का एक समझौता किया। चीन ने मालदीव से यह वादा भी ले लिया कि वह चीन के प्रस्तावित समुद्री रेशम मार्ग में शामिल होगा। शी जब वहां से श्रीलंका गए तब राष्ट्रपति राजपक्षे ने भी चीन के रेशम मार्ग में शामिल होने का वादा कर दिया। मालदीव और श्रीलंका भारत के पड़ोसी हैं और भारत ने इन्हें समय-समय पर मदद भी दी है लेकिन इन दोनों देशों ने भारत की भावनाओं को नजरअंदाज कर चीन का साथ देने का ऐलान किया। गौरतलब है कि भारत रेशम मार्ग को हिंद महासागर में अपना प्रभुत्व स्थापित करने की चीन के मंशा के रूप में देखता है।

अपने शपथग्रहण समारोह में सभी सार्क नेताओं की उपस्थिति के बाद मोदी ने ८ देशों की यात्राएं कीं और अमेरिका, रूस तथा चीन समेत १० देशों के नेताओं की मेजबानी की। उन्होंने संयुक्त राष्ट्रसंघ की आमसभा को संबोधित किया, ब्राजील में आयोजित ब्रिक्स देशों के शिखर सम्मेलन, बर्मा में आयोजित ईस्ट एशिया के नौवें शिखर सम्मेलन, आस्ट्रेलिया में जी-२० शिखर सम्मेलन, नेपाल में सार्क देशों के १८वें सम्मेलन और आसियान के १२वें सम्मेलन में अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज करवाई।

भारत सरकार मानती है कि पड़ोसी देश विदेश नीति के स्वाभाविक अंग होते हैं और इन्हें सर्वाधिक महत्व दिया जाना चाहिए। इसी नीति के तहत भारत ने अपने सभी पड़ोसी देशों खासतौर से दक्षिण एशिया मे सार्क देशों से बेहतर संबंध बनाने के लिए काफी प्रयत्न किया है। पाकिस्तान के अतिरिक्त बाकी सभी सार्क देशों के मामले में भारत सरकार का ट्रैक रेकॉर्ड अच्छा रहा है। भारत ने पाकिस्तान से सचिव स्तर की वार्ता इस आधार पर रद्द कर दी थी कि पाकिस्तान या तो कश्मीरी अलगाववादियों से वार्ता करे या भारत सरकार से। तभी से दोनों देशों में लगभग संवादहीनता की स्थिति कायम है।
एक समर्थ राष्ट्र की तरह भारत अंतरराष्ट्रीय संबंधों में किसी के अंध समर्थन या विरोध का झूला झूलने के बजाय अपने दीर्घकालिक हितों का अनुसरण करते हुए बेबाक विदेश नीति पर चल रहा है।
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