| संविधान की रक्षा के लिए आपातकाल के विरोध में उठाए हुए आवाज के बाद इंदिरा गांधी सरकार ने उनकी गिरफ्तारी की। गिरफ्तार होते समय जब उन्हें पुलिस लेने आई, उन्होंने कहा, “मैं भागूँगा नहीं, मैं संविधान की मर्यादा में लड़ूँगा।” |
भारत के राजनीतिक इतिहास में यदि कुछ नेता ऐसे हैं जिन्होंने सत्ता से अधिक संवैधानिक मूल्यों, लोकतांत्रिक मर्यादाओं और राष्ट्रीय चरित्र को प्राथमिकता दी, उनमें अटल बिहारी वाजपेयी सर्वोपरि दिखाई देते हैं। वे केवल प्रधानमंत्री नहीं थे, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की उस परंपरा के प्रतीक थे जिसमें राजनीतिक संघर्ष से अधिक संवैधानिक व्यवस्था की पवित्रता को महत्व दिया जाता है। सत्ता उनके पास आई, गई, फिर लौटकर आई, परंतु संविधान के प्रति उनके मन में निष्ठा, श्रद्धा और आदर का भाव था, वह कभी नहीं डगमगाया। अटल जी के जीवन में घटित अनेक प्रसंगों को हम आज भी याद करते हैं तो संविधान के प्रति उनकी आस्था स्पष्ट होती हैं।
संविधान का सम्मान उनके राजनीतिक संस्कारों की आधारशिला थी। अटल जी का राजनीतिक जीवन स्वतंत्रता, संघर्ष की पृष्ठभूमि से निकलकर लोकतांत्रिक चेतना में विकसित हुआ। वे विचारों से लोकतांत्रिक थे और यही लोकतांत्रिक विचार उन्हें संविधान को सर्वोच्च मानने की ओर ले गया। संविधान अटल जी के लिए राष्ट्र की आत्मा, विविधताओं का सुरक्षा कवच और राजनीति की नैतिक सीमाओं का संरक्षक के रूप में मायने रखता था। अटल जी कहा करते थे- “सत्ता आएगी जाएगी, राष्ट्र रहना चाहिए, लोकतंत्र रहना चाहिए।” यह शब्द उनके पूरे जीवन-दर्शन को परत-दर-परत उजागर करते हैं।
अटल बिहारी वाजपेयी 1957 में पहली बार लोकसभा पहुँचे। देश में एकदलीय कांग्रेस शासन का प्रभुत्व था, लेकिन युवा सांसद वाजपेयी विपक्ष के लिए एक अनुकरणीय मानक स्थापित कर रहे थे। उनकी संसदीय भूमिका की विशेषताओं को हम जब आज महसूस करते हैं तो उन्होंने निरंतर संविधान की मर्यादाओं में रहकर सरकार से कठोर प्रश्न पूछें है। वे व्यवस्था की कमियों पर हमला करते थे, लेकिन व्यक्ति पर नहीं। उनका तर्क हमेशा संवैधानिक सिद्धांत पर आधारित होता था। न्यायपालिका और प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा पर जोर देकर अटल बिहारी वाजपेयी बार-बार कहते थे कि लोकतंत्र दो पैर पर चलता है, वह है सरकार और आलोचना। यदि आलोचना कमजोर होगी तो सरकार निरंकुश हो सकती है। उन्होंने अपने संपूर्ण राजनीतिक जीवन में संसद की प्रक्रियाओं का आदर्श पालन किया है। वे बहस सुनते थे, हर तथ्य-तर्क को लक्ष रखते थे और वक्तव्य देते समय संविधान का उल्लेख अनिवार्य करते थे। विपक्षी विचारों के सांसदों में उन्हें शत्रु नहीं, प्रतिद्वंद्वी देखते थे। यही उनकी लोकतांत्रिक संस्कृति का मूल था।
1975 का आपातकाल का कालखंड तो अटल जी के हृदय में संविधान के संदर्भ में जो भक्ति थी, वह स्पष्ट करने वाला था। आपातकाल में संविधान की रक्षा के लिए अटल जी द्वारा किए हुए संघर्ष ने यह बात स्पष्ट कर दी है। भारत का संविधान 1975 में सबसे बड़े संकट से गुज़र रहा था। इंदिरा गांधी द्वारा लगाया गया आपातकाल राष्ट्र के लोकतंत्र के सामने बहुत बड़ा कठिन समय था। यह वह समय था जब नागरिक स्वतंत्रता रद्द हुई थीं, प्रेस पर सेंसरशिप थी, विपक्षी नेताओं को जेलों में डाल दिया गया था, संविधान में मनमाने संशोधन किए जा रहे थे। यह वह दौर था जब संविधान की वास्तविक परीक्षा थी और अटल बिहारी वाजपेयी ने इस परीक्षा में स्वयं को लोकतंत्र का सच्चा प्रहरी साबित किया।

संविधान की रक्षा के लिए आपातकाल के विरोध में उठाए हुए आवाज के बाद इंदिरा गांधी सरकार ने उनकी गिरफ्तारी की। गिरफ्तार होते समय जब उन्हें पुलिस लेने आई, उन्होंने कहा, “मैं भागूँगा नहीं, मैं संविधान की मर्यादा में लड़ूँगा।” यह वाक्य केवल भावनात्मक नहीं था, यह राजनीतिक संस्कृति का नया मानक था। जेल में रहकर लोकतंत्र की पुनर्स्थापना के लिए रणनीति तैयार करने के लिए उन्होंने बहुत बड़ा योगदान दिया है। आठ महीने से अधिक समय तक वे नासिक और बाद में अंबाला जेल में रहे। जेल में रहने के बावजूद उन्होंने कार्यकर्ताओं को शांति और लोकतांत्रिक संयम का संदेश भेजा। किसी प्रकार की हिंसा या असंवैधानिक आंदोलन से मना किया। लोकतंत्र के लिए संघर्ष करते समय उन्होंने नैतिक संघर्ष के रूप में सरकार का विरोध करना स्वीकार किया।
आपातकाल के बाद संविधान की प्रतिष्ठा पुनः स्थापित करने का संकल्प लिया। 1977 में जब जनता पार्टी सत्ता में आई, अटल जी विदेश मंत्री बने, परंतु उनका सबसे बड़ा योगदान वह राजनीतिक वातावरण था जिसमें जनता ने संविधान को सर्वोच्च माना और तानाशाही प्रवृत्तियों को अस्वीकार किया। अटल जी कहते थे, “लोकतंत्र बंद कमरों में नहीं, खुले वातावरण में फलता है।” उनकी यह सोच आगे चलकर उनके प्रधानमंत्री काल में कई संवैधानिक मर्यादाओं को स्थापित करने की प्रेरणा बनी। 1999 में जब उनकी सरकार ‘एक मत’ से गिर गई थी, अटल जी के मन में संविधान के संदर्भ में जो भाव थे उन्हें राष्ट्र के सम्मुख प्रस्तुत होते हुए पूरे भारतवर्ष ने महसूस किया था। संविधान-सम्मत व्यवहार का अनोखा उदाहरण इस प्रसंग से प्रस्तुत हुआ था। भारतीय लोकतंत्र का यह अनोखा प्रसंग है कि एक प्रधानमंत्री महज एक वोट से विश्वास मत हार जाता है, लेकिन उससे भी अनोखा है कि वह प्रधानमंत्री बिना किसी शोर-शराबे के, संविधान की प्रक्रिया का सम्मान करते हुए तत्काल अपनी कुर्सी छोड़ देता है।

उस समय वाजपेयी जी के द्वारा प्रदर्शित महान लोकतांत्रिक मर्यादा इस प्रकार की थी, ‘संख्या-बल ही सरकार का आधार है’, इसे मानकर शांतिपूर्वक इस्तीफा देना। उन्होंने कोई दबाव नहीं बनाया, न कोई खरीद-फरोख्त के आरोप लगाए, न किसी तरह की संवैधानिक लकीर पार की। उनके इस्तीफे का भाषण लोकतंत्र की ‘सर्वोत्तम मिसाल’ माना जाता है। उन्होंने कहा, “सत्ता पाने के लिए संविधान तोड़ा नहीं जा सकता और सत्ता बचाने के लिए लोकतंत्र से खिलवाड़ नहीं किया जा सकता।” यह घटना विश्व राजनीति में दुर्लभ घटना मानी गई। जहाँ नेता हर कीमत पर सरकार बचाने में लगे रहते हैं, वहीं अटल जी ने सत्ता से अधिक लोकतांत्रिक गरिमा को महत्व दिया। यह संविधान के प्रति असाधारण सम्मान का उदाहरण है।
अटल जी के प्रधानमंत्री काल में संविधान के प्रति आदर की मिसालें भी है। 1998–2004 में देश गठबंधन युग में था। अटल जी ने गठबंधन को संवैधानिक और नैतिक आधार पर संचालित किया। हर निर्णय पर सहमति, छोटे दलों का सम्मान, अभी भी मनमानी नहीं, मंत्रिपरिषद की सामूहिक जिम्मेदारी पर बल। उन्होंने कहा था, “सहमति लोकतंत्र की आत्मा है।” चुनाव आयोग, CAG, CVC जैसी संस्थाओं की स्वतंत्रता को मजबूती प्रदान की थी। उनके शासन में संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता पर कोई प्रश्न नहीं उठा। उन्होंने न किसी संस्थान को कमजोर किया, न किसी को राजनीतिक प्रभाव के लिए इस्तेमाल किया। अटल जी कभी भी संसद को नजरअंदाज करके निर्णय नहीं लेते थे। संसद के प्रति अभूतपूर्व सम्मान यह उनके कार्य और विचारों की विशेषता थी। हर बड़े कदम पर संसदीय चर्चा, विपक्ष के विचार शामिल करना, विधेयकों पर विस्तृत बहस को प्रोत्साहन देते थे। अटल जी सदन में विपक्ष को सबसे अधिक बोलने का अवसर देते थे क्योंकि वे मानते थे, “विपक्ष भी राष्ट्रहित का भागीदार है।” 1998 में किए गए पोखरण-2 परीक्षण भारत के लिए ऐतिहासिक थे, परंतु यह भी संवैधानिक मर्यादा का उदाहरण था कि प्रधानमंत्री ने संसद में विस्तृत विवरण दिया, विपक्ष की हर शंका का उत्तर दिया, अंतरराष्ट्रीय दबाव के बावजूद संसद का सम्मान किया।
अटल जी के भाषणों में संविधान के जीवंत तत्व निरंतर प्रवाहित होते रहते थे। वे इसे मात्र एक पुस्तक नहीं बल्कि राष्ट्रीय चेतना का मार्गदर्शक कहते थे। संविधान के संदर्भ में वह कहते थे, “संविधान हमें अधिकार से अधिक कर्तव्य सिखाता है।” वे हर मंच से कहते थे कि नागरिक अधिकार तभी सुरक्षित हैं जब नागरिक कर्तव्यों का पालन करते हों। “संविधान की आत्मा भारतीय संस्कृति की विविधता में निहित है।” उनकी दृष्टि में संविधान भारतीय सभ्यता का आधुनिक रूप था। “लोकतंत्र बहुमत का शासन है, परंतु सर्वसम्मति का लक्ष्य होना चाहिए।” “संवैधानिक राष्ट्रवाद ही भारत का स्थायी पथ है।” उनकी राजनीति राष्ट्रवाद से प्रेरित थी, परंतु वह राष्ट्रवाद लोकतंत्र, स्वतंत्रता और समानता से परिपूर्ण संविधान की सीमा में था। अटल जी का निजी जीवन भी संवैधानिक मूल्यों का प्रमाण था। वे कभी व्यक्तिगत कटुता पर नहीं उतरे। राजनीतिक विरोधियों के लिए सम्मान बनाए रखा। संविधान के प्रति उनकी निष्ठा का सार यह था कि वे स्वयं को पद से नहीं, कर्तव्य से परिभाषित करते थे।
संविधान के प्रति उनका यह आदर भाव आकस्मिक नहीं था, यह विशिष्ट संस्कारों की देन थी। अटल जी के मन में संविधान भारतीय सभ्यता, राष्ट्रीयता और लोकतांत्रिक संस्कृति का आधुनिक स्वरूप था। प्रश्न यह है, उनके मन में यह भाव आया कैसे?अटल जी साहित्यकार पिता के घर में पले-बढ़े। घर में राष्ट्र पर, न्याय पर, धर्म पर बहस होती थी। यही वह वातावरण था जिसने उन्हें सिखाया, “विचार विरोध का स्थान वाणी है, हिंसा नहीं।” पारिवारिक पृष्ठभूमि और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्रवादी संस्कारों से वे बहुत प्रभावित थे, यह वही संस्कार थे जिन्होंने उन्हें आगे चलकर संविधान की मर्यादा का प्रहरी बनाया। युवा अटल ने समझा कि स्वतंत्रता कोई सहज उपलब्ध चीज नहीं है, यह संघर्ष और त्याग से मिली है। संविधान उनके लिए उन स्वतंत्रता सेनानियों के जीवन समर्पण की और राष्ट्रहित से जुड़े सपनों की व्याख्या था। इसलिए संविधान के प्रति आदर उनके लिए भावनात्मक भी था और नैतिक भी। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ काम करते हुए अटल जी ने सीखा, विरोध भी संविधान की मर्यादा में होना चाहिए। मुखर्जी के निधन के बाद जनसंघ में अटल जी की भूमिका बढ़ी, लेकिन उनकी शैली टकराव की नहीं, संवाद की रही। यहीं पर उनका संविधान-आधारित लोकतांत्रिक दृष्टिकोण परिपक्व हुआ।
अटल जी क्यों संविधान के ‘सर्वोत्तम रोल मॉडल’ माने जाते हैं? उन्होंने राजनैतिक संवाद की वह परंपरा विकसित की, जो संविधान को केंद्र बनाती है। उनकी शैली में संसद की प्रतिष्ठा सर्वोच्च थी। कठोर से कठोर परिस्थितियों में भी लोकतांत्रिक संयम रखना, चाहे आपातकाल की प्रताड़ना हो या अपनी सरकार का गिरना, अटल जी ने कभी भी संवैधानिक मर्यादा नहीं लांघी। अटल जी का आचरण आज भी लोकतांत्रिक राजनीति के लिए आदर्श मार्गदर्शन है। इसी कारण अटल बिहारी वाजपेयी को संविधान के सर्वोत्तम रोल मॉडल के रूप में आज भी पहचाना जाता है। अटल बिहारी वाजपेयी का समूचा जीवन भारतीय संविधान को समर्पित था, वे भारतीय राजनीति में दुर्लभ उदाहरण हैं। अटल जी ने सिद्ध किया कि, “राजनीति सत्ता-प्राप्ति का माध्यम नहीं, संविधान का पालन करते हुए राष्ट्र-निर्माण का कर्तव्य है।” भारत के इतिहास में वे इसलिए अमर रहेंगे क्योंकि उन्होंने न केवल संविधान की व्याख्या की बल्कि संविधान को अपने जीवन में उतार कर जिया है।
“इस बारे में आपकी क्या राय है? नीचे कमेंट्स में बताएं।”


बहुत सुन्दर,,सटीक जानकारी,,,और ऐसे महान नेता के प्रति और भी आदर भर देता है,,य़ह लेख उभरते राजनेताओं के लिए सर्वोत्तम मार्गदर्शन है,, लेखक जी को धन्यवाद