| आज मुंबईकर यह सोचने लगा है कि अगर भाजपा को महानगरपालिका की सत्ता मिलती है, तो क्या बदलाव संभव है? केंद्र सरकार, राज्य सरकार और महानगरपालिका, तीनों की एकसाथ सत्ता होने से मुंबई के कई बड़े प्रोजेक्ट्स को तेज़ी मिल सकती है। निधि की कोई बड़ी बाधा नहीं रहेगी। मेट्रो, कोस्टल रोड, मल्टी-मॉडल ट्रांसपोर्ट जैसे प्रोजेक्ट समय पर पूरे हो सकते हैं। |
किस आधार पर वोट देंगे मुंबई के मतदाता?
मुंबई मनपा चुनाव के पूर्व भाजपा ने अपने उमीदवारों की पहली सूची जारी कर दी है और इसके साथ ही अन्य पार्टियों ने भी अपने प्रत्याशियों की सूची जारी करने का क्रम शुरू कर दिया है। इसके साथ ही मनपा चुनाव की सरगर्मियां बढ़ गई हैं और सभी पार्टियों ने अपनी तैयारियां तेज कर दी हैं। इस बार मुख्य मुकाबला भाजपा-शिंदे महायुती और उद्धव-राज ठाकरे (उबाठा-मनसे) गठबंधन के बीच है। हालांकि कई सीटों पर चौतरफा मुकाबला भी देखने को मिल सकता है।
मुंबई महानगरपालिका चुनाव जैसे-जैसे नज़दीक आ रहे हैं, एक बात साफ़ तौर पर मुंबई के माहौल में महसूस हो रही है कि मुंबईकरों का धैर्य अब जवाब देने लगा है। भावनात्मक नारे, आक्रामक भाषण, पुरानी यादें और अस्मिता के नाम पर बार-बार की जाने वाली राजनीति से आज मुंबईकर थक चुका है। अब वह सीधा सवाल पूछ रहा है, “मेरे शहर का विकास क्यों नहीं हुआ है?”
मुंबई महानगरपालिका पर लगभग ढाई दशक तक शिवसेना का शासन रहा। यह समय मुंबई के विकास हेतु एक अच्छा अवसर था, लेकिन जब आज पीछे मुड़कर देखा जाता है, तो गंभीर सवाल सामने आता है, इस लंबे समय में मुंबई एक बेहतर शहर क्यों नहीं बन सकी? मुंबई शहर सभी आयामों में बदहाल शहर क्यों बना? ट्रैफिक, लोकल ट्रेनें, ड्रेनेज, झोपड़पट्टी पुनर्विकास, अतिक्रमण ये सभी समस्याएं शिवसेना के शासनकाल में ही पैदा हुईं या और अधिक गंभीर हुईं। इसके बावजूद आज उबाठा शिवसेना इन्हीं मुद्दों पर आंदोलन करती दिखाई देती है। यही विरोधाभास उबाठा शिवसेना की राजनीति की सीमाओं को उजागर करता है।
आज उद्धव ठाकरे गुट स्वयं को “अन्याय का शिकार” बताता है, लेकिन मुंबईकर पूछता है, “अन्याय हुआ, लेकिन जिम्मेदारी किसकी है?” मुंबई महानगरपालिका को विकास की संस्था बनाने के बजाय सत्ता बनाए रखने का माध्यम बना दिया गया। प्रशासन पर नियंत्रण रखने के बजाय उससे समझौते किए गए। नतीजा यह है कि आज मुंबईकरों के मन में उबाठा शिवसेना के खिलाफ आक्रोश है और इसका कोई ठोस जवाब उबाठा शिवसेना के पास नहीं है। केवल भावनात्मक अपील बची है।
मनसे को लेकर भी मुंबईकरों के मन में स्पष्ट धारणा बन चुकी है। अगर पूछा जाए कि मनसे क्या है, तो सामान्यजवाब मिलेगा, आक्रामक भाषा, लेकिन विकास की कोई स्पष्ट दृष्टि नहीं।
मनसे की पहचान तेज़ भाषणों, सड़क पर होने वाले आंदोलनों और मराठी अस्मिता की बार-बार की गई बातों तक सीमित रही है। लेकिन आज मुंबईकर सवाल करता है कि –
क्या केवल आक्रामकता और अस्मिता से मुंबई जैसा इतना बड़ा शहर चल सकता है? मनसे ने कई मुद्दों पर आंदोलन किए, लेकिन उन समस्याओं के लिए ठोस नीतिगत, प्रशासनिक और तकनीकी समाधान देने में पार्टी असफल रही है। पार्टी के पास कोई स्पष्ट शहरी विकास योजना नहीं है, न आर्थिक नियोजन, न ही प्रशासन चलाने का अनुभव। मनसे की राजनीति आज भी “प्रतिक्रिया आधारित” है, “दिशा आधारित” नहीं। लगभग १.२५ करोड़ की जनसंख्या वाले मुंबई शहर को आंदोलनों की नहीं, बल्कि सक्षम प्रबंधन की आवश्यकता है और यह अपेक्षा मुंबईकर मनसे से नहीं रखता।
उबाठा शिवसेना और मनसे— दोनों की एक समान कमजोरी है। वे मुंबई को अपनी विरासत के रूप में देखते हैं, मुंबई की समस्या को दूर करने के अवसर के रूप में नहीं देखते हैं। सत्ता के मोह में मुंबई की समस्याओं के लिए कभी परप्रांतियों को दोषी ठहराया जाता है, कभी केंद्र सरकार को, कभी राज्य सरकार और प्रशासन को। उद्योगों और आर्थिक विकास को भी मराठी–परप्रांतीय के चश्मे से देखा जाता है, जिससे समाज में संदेह और विभाजन पैदा होता है। लेकिन सच बात तो यह है कि मुंबई जैसी इतनी बड़ी महानगरपालिका का संचालन इस तरह के दोषारोपण से नहीं हो सकता। शहर सकारात्मक निर्णयों से चलते हैं, भावनात्मक एवं विरासत वाली राजनीति से नहीं। मुंबईकर अब उबाठा–मनसे की इस भटकाने वाली राजनीति को पहचानने लगा है और इसका जवाब वह मतदान के ज़रिए देने को तैयार है।

भाजपा : सत्ता का अवसर और प्रशासनिक अपेक्षाएँ
आज मुंबईकर यह सोचने लगा है कि अगर भाजपा को महानगरपालिका की सत्ता मिलती है, तो क्या बदलाव संभव है? केंद्र सरकार, राज्य सरकार और महानगरपालिका, तीनों की एकसाथ सत्ता होने से मुंबई के कई बड़े प्रोजेक्ट्स को तेज़ी मिल सकती है। निधि की कोई बड़ी बाधा नहीं रहेगी। मेट्रो, कोस्टल रोड, मल्टी-मॉडल ट्रांसपोर्ट जैसे प्रोजेक्ट समय पर पूरे हो सकते हैं। भाजपा की अब तक की पहचान केवल घोषणाओं तक सीमित नहीं रही है, बल्कि घोषणाओं को लागू करने की क्षमता के रूप में भी देखी जाती है। प्रशासन पर नियंत्रण, निर्णय लेने की क्षमता और जवाबदेही तय करने वाला नेतृत्व भाजपा के पास है।
यदि भाजपा और शिंदे शिवसेना को मुंबई महानगरपालिका की सत्ता मिलती है, तो इसका लाभ मुंबईकरों को मिल सकता है। राजनीतिक स्थिरता और बेहतर प्रशासन के रूप में भाजपा पर्याय हो सकता है। इस बात पर मुंबईकर अपनी सोच बना रहे हैं।
लेकिन भाजपा के सामने भी चुनौतियाँ कम नहीं हैं। मुंबई महानगरपालिका जीतना आसान नहीं है। मुंबईकर जागरूक मतदाता है। वह पूछता है –
“मेरे वार्ड में क्या परिवर्तन होगा? मेरा स्थानीय नेता कौन होगा? फेरीवालों, झोपड़पट्टियों की पानी की समस्या पर भाजपा की स्पष्ट योजना क्या है? भाजपा को अगर जीतना है, तो दिल्ली के नारे नहीं, मुंबई के सवालों के जवाब देने होंगे। भाजपा का पार्टी के तौर पर एक बड़ा एजेंडा तो होगा ही, लेकिन हर वार्ड के लिए अलग, स्थानीय समस्याओं पर आधारित एजेंडा भी पेश करना होगा। यही मुंबईकरों की अपेक्षा है। भाजपा इन चुनौतियों का किस तरह सामना करती है, इसी पर यह तय होगा कि वह महानगरपालिका की सत्ता तक पहुँच पाएगी या नहीं।
इस चुनाव की घोषणा के बाद विभिन्न प्रकार के भावनात्मक मुद्दे उठने लगे हैं। चुनाव पूरे होने तक भावनात्मक मुद्दों का बवंडर उठेगा। हिंदू–मुस्लिम, मराठी–परप्रांतीय, अस्मिता जैसे बहुत सारे विषय राजनीतिक नेताओं के जुबान पर आ जाएंगे। लेकिन मुंबईकर आज पूछता है “क्या इन विवादों से मेरा मुंबई का जीवन आसान होगा? ”, “क्या मेरा घर सुरक्षित रहेगा?” मुंबई की जनता के मन में उठने वाले इन सवालों का जवाब “नहीं” है। भावनात्मक राजनीति मुंबईकर के भविष्य की समस्याओं का समाधान नहीं दे सकती।
यह चुनाव उबाठा शिवसेना के पिछले कामकाज की परीक्षा है, राज ठाकरे के भाषण कौशल से आगे उनकी प्रशासनिक क्षमता की कसौटी है और भाजपा के लिए यह परीक्षा है कि वह मुंबईकरों की अपेक्षाओं को पूरा करने की बात उन्हें कैसे समझा सकती है। जो पार्टी मुंबईकरों के इन सवालों का संतोषजनक उत्तर देगी, वही मुंबई महानगरपालिका की सत्ता में आएगी।
क्योंकि आज मुंबईकर भावनाओं से नहीं, बल्कि इस सवाल से मतदान करेगा, “शहर कौन बेहतर चला सकता है?” आज का मुंबईकर भावुक नहीं, बल्कि रोज़मर्रा की समस्याओं से थका हुआ, सवाल पूछने वाला मतदाता है।
“कौन मराठी है?” या “कौन परप्रांतीय है?” से ज़्यादा अहम सवाल अब यह है कि “इस बिगड़ते महानगर का सही प्रबंधन करके मुंबई की जनता के जीवन में खुशी कौन लौटा सकता है?
आधुनिक मुंबई का जागरूक मतदाता इसी सवाल का जवाब इस महानगरपालिका चुनाव में खोजने वाला है और यही इस चुनाव की सबसे बड़ी सच्चाई है।


योग्य विश्लेषण