| राजनीति में वही टिका रहता है, जो आने वाली पीढ़ी की आशाएं-आकांक्षाएं क्या हैं, इसे अच्छी तरह समझता है। उनकी आकांक्षाएं पूरी होंगी, इस प्रकार का पार्टी का कार्यक्रम तैयार करता है। उन्हें विश्वास दिलाता है कि आपके सामने मौजूद समस्याओं को मेरी पार्टी हल करेगी। |
एक लोककथा से लेख की शुरुआत करते हैं। एक शिकारी था। उसने एक दिन एक पक्षी को पकड़ लिया। वह पक्षी बहुत सुंदर था। पक्षी ने सोचा कि अब उसका जीवन खत्म हो जाएगा, लेकिन पक्षी बुद्धिमान था, उसने हिम्मत नहीं हारी। उसने शिकारी से कहा, “शिकारी दादा, आप बड़े जानवरों का शिकार करके भरपूर मांस खाते हैं। मैं तो इतना छोटा-सा हूं, मेरे शरीर से आपको कितना मांस मिलेगा?
पक्षी आगे बोला, “अगर आपने मुझे प्राणदान दिया, तो मैं आपको तीन मौलिक बातें बताऊंगा।” शिकारी उस पक्षी की बातों में आ गया। उसने पक्षी को अपने हाथ की कलाई पर रखा और कहा, “मैं तुम्हें छोड़ता हूं, लेकिन मुझे तीन मौलिक बातें बताओ।” इस पर पक्षी बोला, “पहली बात मैं कलाई पर बैठकर बताऊंगा, दूसरी बात घर की छत पर बैठकर बताऊंगा और तीसरी बात पेड़ की ऊंची चोटी पर बैठकर बताऊंगा।”
कलाई पर बैठे-बैठे उसने शिकारी को बताया, “किसी की भी फालतू बातों पर गलती से भी विश्वास नहीं करना चाहिए। खासकर जो बंदी बना हो, उसकी बातों पर तो बिल्कुल भी विश्वास नहीं करना चाहिए, यह पहली समझदारी की बात है।” ऐसा कहकर वह पक्षी घर की छत पर चला गया।
छत से वह बोला, “जो आपके हाथ में था, वह छूट गया, इस पर अफसोस नहीं करना चाहिए। भूतकाल को याद करके रोते बैठना नहीं चाहिए।” इसके बाद वह पेड़ की ऊंची चोटी पर गया और वहां से उसने शिकारी से कहा, “तुमने मुझे छोड़कर एक गलती की है। मेरे पेट में अमूल्य वजन का रत्न है। वह तुम्हें अगर मिल गया होता तो तुम बहुत अमीर हो गए होते।”
यह सुनने के बाद शिकारी बहुत बेचैन हो गया। दुख करने लगा। तब वह पक्षी बोला, “अरे, मैंने बताई हुई समझदारी की दो बातों का कुछ उपयोग हुआ दिखाई नहीं देता। बंदी की अवास्तविक बातों पर विश्वास नहीं करना चाहिए, पक्षी के पेट में कभी वजनदार रत्न रह सकता है क्या, इतना तुम्हें समझ में नहीं आता? उसका कुछ उपयोग नहीं हुआ और दूसरी समझदारी मैंने तुम्हें बताई कि भूतकाल की याद करके रोते बैठना नहीं चाहिए।”
इस पर वह शिकारी बोला, “ठीक है, अब तीसरी समझदारी बताओ।” पक्षी बोला, “मूर्ख लोगों को उपदेश नहीं देना चाहिए। मरुस्थल में अगर बीज बोया जाए तो उसका कोई उपयोग नहीं होता। वह कभी उगने वाला नहीं होता। उसी प्रकार मूर्ख को उपदेश देने से कोई उपयोग नहीं होता, वह व्यर्थ जाता है।”
इस लोककथा को याद करने का कारण, आज के उद्धव ठाकरे की स्थिति है। विधानसभा चुनाव में उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिली। नगरपरिषद चुनाव में नगण्य सफलता प्राप्त हुई। महानगरपालिका चुनाव में असफलता की हैट्रिक होगी क्या, ऐसी चर्चा चल रही है। उनकी इस स्थिति के लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं। राजनीतिक दल परिस्थिति की संतान के रूप में खड़े होते हैं। बालासाहेब ठाकरे ने शिवसेना खड़ी की। महाराष्ट्र राज्य बना, लेकिन मराठी व्यक्ति को न्याय नहीं मिल रहा है, ऐसी सामान्य भावना थी। उस भावना को बालासाहेब ने समर्थन दिया और देखते-देखते शिवसेना बढ़ती गई। 1985-86 में देश में हिंदुत्व की हवा बहने लगी। बालासाहेब ने मराठी को हिंदुत्व का जोड़ दिया, इससे शिवसेना का विस्तार हुआ। मराठी भाषियों के अलावा अन्य भाषी भी शिवसेना में शामिल होने लगे। बाद में भाजपा भी हिंदुत्ववादी हो गई और शिवसेना-भाजपा की जोड़ी बनी और वह आगे 25 वर्ष तक टिकी।

सर्वभक्षी समय के आगे कुछ भी नहीं टिकता। आयु के अनुसार बालासाहेब स्वर्गवासी हो गए। सामाजिक, राजनीतिक परिस्थिति भी तेजी से बदलती गई। एक समय प्रबल रही कांग्रेस की जगह (राजनीतिक स्थान) भाजपा ने घेरना शुरू कर दिया। बालासाहेब ठाकरे के कुशल राजनीति, परिस्थिति का सटीक अनुमान, वैचारिक निष्ठा, विरासत उद्धव के पास विरासत में नहीं आईऔर वैसे भी वह कभी विरासत में आती नहीं है या तो वह जन्मजात होनी चाहिए या प्रयत्न करके हासिल करनी पड़ती है। उद्धव ठाकरे इन दोनों बातों में असफल हुए हैं।
मुख्यमंत्री पद के लोभ में उन्होंने भाजपा से संबंध तोड़े। राष्ट्रवादी कांग्रेस और कांग्रेस से मित्रता की। मुख्यमंत्री पद मिला, लेकिन उसे टिका नहीं सके। पार्टी टूट गई। एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री बने, शिवसेना पार्टी का नाम और धनुष-बाण चिह्न भी उन्हें मिल गया। यानी बालासाहेब की विरासत एकनाथ शिंदे को मिली। उद्धव ठाकरे संबंध से ही वारिस रह गए।
पिछले दो वर्षों से वे रोज रो रहे हैं कि मेरी पार्टी छीन ली गई, मेरे पिता छीन लिए गए, मेरा चिह्न छीन लिया गया, मैं उन्हें माफ नहीं करूंगा। हमारी कथा का पक्षी शिकारी से कहता है कि जो हाथ में था और जो चला गया उसके लिए शोक करते बैठना नहीं चाहिए। उद्धव जी का शोक अभी भी जारी है।

राजनीति में वही टिका रहता है, जो आने वाली पीढ़ी की आशाएं-आकांक्षाएं क्या हैं, इसे अच्छी तरह समझता है। उनकी आकांक्षाएं पूरी होंगी, इस प्रकार का पार्टी का कार्यक्रम तैयार करता है। उन्हें विश्वास दिलाता है कि आपके सामने मौजूद समस्याओं को मेरी पार्टी हल करेगी। जो राजनेता इनमें से कुछ भी नहीं करता, उसके पास जो चला गया उसका शोक करते रहने के अलावा कुछ नहीं बचता। बालासाहेब ठाकरे ने शिवसेना भावनात्मक आह्वान पर खड़ी की। वह भावनात्मक आह्वान स्वीकार करने की उस समय की पीढ़ी की मानसिकता थी। राजनीतिक, सामाजिक परिस्थिति उसके लिए अनुकूल थी, आज इनमें से कुछ भी नहीं बचा है। मराठी व्यक्ति, मराठी व्यक्ति की इस तुनतुनाहट की डोर टूट चुकी है। आज का मराठी युवक बदलती आर्थिक परिस्थिति और प्रौद्योगिकी द्वारा जो नए-नए अवसर उपलब्ध कराए गए हैं, उन्हें आत्मसात करने में लगा हुआ है। उसे मराठी अस्मिता, मराठी अस्मिता सुनाने से कुछ फायदा नहीं है।
भाजपा से संबंध तोड़ते समय उन्हें जो गुरुदेव मिले, वे गुरुदेव उनके द्वारा ही निर्मित पिंजरे में फंसे गुरुदेव थे। उनका पिंजरा धर्मनिरपेक्षतावाद का पिंजरा है। इस पिंजरे का एक भाग जातिवादी राजनीति का है। दूसरा भाग मुस्लिम तुष्टीकरण का है और तीसरा भाग हिंदू आस्थाओं से खिलवाड़ करने का है। हमारी कथा का पक्षी कहता है कि बंदी की बातों पर ज्यादा विश्वास नहीं करना चाहिए या तो वह धोखा देगा या दिशाभूल करेगा। लोकसभा चुनाव में मुसलमानों के वोट मिले, विधानसभा चुनाव में मुसलमानों ने पीठफेर ली, नगरपरिषद के चुनावों में मुसलमान फिरकें भी नहीं और महानगरपालिका के चुनाव में मुसलमान ढुंढकर भी नहीं देखेंगे। स्वनिर्मित धर्मनिरपेक्ष बंदीगृह में रहने वालों का साथ हो तो ऐसा ही होता है। ढाई वर्ष के लिए कुर्सी मिली और यहां से आगे जीवनभर का निर्वासन आया हुआ है। बंदियों की सलाह मानने के ये परिणाम होते हैं।
स्वर्गीय बालासाहेब ठाकरे ने योग्य सहयोगी खड़े किए, उनकी सलाह मानी। कई निर्णय सामूहिक रूप से लिए। वे महाराष्ट्र की राजनीति के एक मूल्यवान स्तंभ बन गए। बालासाहेब के सभी सहयोगी अब कहां हैं? उनकी सलाहों का कोई उपयोग हुआ क्या?, या वे भी हमारी कथा के पक्षी की तरह कहते हैं कि मरुस्थल में बीज बोने से कोई उपयोग नहीं है, उसमें कभी अंकुर नहीं निकलेगा।
बालासाहेब ठाकरे की विरासत महाराष्ट्र में जीवित रहनी चाहिए। दृढ़ हिंदुत्ववादी शक्ति के रूप में उसका अस्तित्व बना रहना चाहिए। चुनाव आते और जाते हैं, जीत-हार होती रहती है, लेकिन भविष्य में हिंदू समाज को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए, मूल्यों की रक्षा के लिए, संघर्ष करना पड़ेगा। उसकी तैयारी मेरे पिता छीन लिए गए, मेरी पार्टी छीन ली गई, इन विलापों से नहीं होगी। उसके लिए फौलादी मन और निडर हृदय का नेतृत्व ही चाहिए।

