| तारिक रहमान की वापसी को फरवरी 2026 में संभावित आम चुनावों से पहले बीएनपी के पुनर्गठन और पुनर्सक्रियन के रूप में देखा जा रहा था। 2024 में शेख हसीना के सत्ता से हटने के बाद बनी अंतरिम सरकार पर लोकतांत्रिक वैधता, प्रशासनिक क्षमता और कानून-व्यवस्था बनाए रखने में विफलता के आरोप लगातार लगते रहे हैं। |
बांग्लादेश की राजनीति एक बार फिर निर्णायक मोड़ पर खड़ी है। सत्रह वर्षों के निर्वासन के बाद तारिक रहमान की स्वदेश वापसी और लगभग उसी समय उनकी माँ, बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री तथा बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) की संस्थापक नेता बेगम खालिदा जिया का निधन—इन दोनों घटनाओं ने देश को एक असाधारण राजनीतिक क्षण में ला खड़ा किया है। यह केवल सत्ता परिवर्तन या एक बड़े राजनीतिक व्यक्तित्व के अवसान की कहानी नहीं, बल्कि बांग्लादेश की वैधता, स्थिरता और भविष्य की दिशा से जुड़ा सवाल है।
25 दिसंबर 2025 को लंदन से ढाका लौटते ही तारिक रहमान का नंगे पांव जमीन छूना गहरे प्रतीकवाद से भरा था। इसके बाद लाखों समर्थकों को संबोधित करते हुए उनका कथन—“I have a plan” (मेरे पास एक प्लान है)—तेजी से राजनीतिक विमर्श का केंद्र बन गया। मार्टिन लूथर किंग जूनियर के “I have a dream” की अनुगूंज लिए इस वाक्य ने उम्मीदें भी जगाईं और आशंकाएँ भी। लेकिन खालिदा जिया के निधन के बाद यह कथन अब केवल नारा नहीं, बल्कि एक राजनीतिक उत्तरदायित्व और विरासत का संकेत बन गया है।

तारिक रहमान की वापसी को फरवरी 2026 में संभावित आम चुनावों से पहले बीएनपी के पुनर्गठन और पुनर्सक्रियन के रूप में देखा जा रहा था। 2024 में शेख हसीना के सत्ता से हटने के बाद बनी अंतरिम सरकार पर लोकतांत्रिक वैधता, प्रशासनिक क्षमता और कानून-व्यवस्था बनाए रखने में विफलता के आरोप लगातार लगते रहे हैं। अवामी लीग फिलहाल सत्ता में वापसी की स्थिति में नहीं दिखती, जिससे देश में राजनीतिक शून्य और गहराता गया है। खालिदा जिया के निधन ने इस शून्य को और अधिक संवेदनशील बना दिया है।
बेगम खालिदा जिया बांग्लादेश की राजनीति का एक केंद्रीय स्तंभ थीं। तीन बार प्रधानमंत्री रहीं खालिदा जिया और शेख हसीना के बीच दशकों चली राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता ने देश की राजनीति को स्पष्ट रूप से द्विध्रुवीय स्वरूप दिया। बीमारी, कारावास और लंबे समय तक सक्रिय राजनीति से दूर रहने के बावजूद वे बीएनपी और उसके समर्थकों के लिए नैतिक शक्ति बनी रहीं। उनके निधन के साथ ही बीएनपी औपचारिक रूप से ‘मातृ नेतृत्व’ के युग से बाहर निकल चुकी है और तारिक रहमान अब पार्टी के निर्विवाद नेतृत्वकर्ता के रूप में सामने हैं।
यह राजनीतिक संक्रमण ऐसे समय में हो रहा है, जब बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों, विशेषकर हिंदुओं के खिलाफ हिंसा की घटनाएं चिंता बढ़ा रही हैं। मानवाधिकार संगठनों के अनुसार जून से दिसंबर 2025 के बीच ईशनिंदा से जुड़े 70 से अधिक मामले सामने आए, जिनमें अधिकांश पीड़ित हिंदू समुदाय से थे। दिसंबर 2025 में मयमंसिंह के भालुका क्षेत्र में दीपू चंद्र दास की लिंचिंग और राजबारी जिले में अमृत मंडल की हत्या ने कानून-व्यवस्था की गंभीर विफलता को उजागर किया। मंदिरों पर हमले और संपत्ति की लूट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अल्पसंख्यक सुरक्षा अब केवल मानवाधिकार का नहीं, बल्कि राज्य की विश्वसनीयता का प्रश्न बन चुकी है।

इस संदर्भ में 1971 का मुक्ति संग्राम और भारत की भूमिका को अलग करके नहीं देखा जा सकता। भारत के सैन्य, कूटनीतिक और मानवीय सहयोग से बांग्लादेश अस्तित्व में आया था। इसलिए वहां हिंदुओं पर हो रही हिंसा भारत के लिए केवल एक पड़ोसी देश का आंतरिक मामला नहीं, बल्कि साझा इतिहास और नैतिक जिम्मेदारी से जुड़ा विषय है। खालिदा जिया के निधन के बाद यह प्रश्न और भी महत्वपूर्ण हो गया है कि बीएनपी इस विरासत को किस दिशा में आगे ले जाएगी।
तारिक रहमान ने अपने पहले भाषण में मुस्लिम, हिंदू, बौद्ध और ईसाई—सभी समुदायों को साथ लेकर “सुरक्षित और समावेशी बांग्लादेश” की बात कही। इसे बीएनपी की छवि को नरम और व्यावहारिक बनाने का प्रयास माना जा रहा है। विश्लेषक इसे पार्टी की ‘सॉफ्ट रीब्रांडिंग’ कहते हैं, जिसका उद्देश्य अतीत में लगे कट्टरपंथ और भारत-विरोधी राजनीति के आरोपों से दूरी बनाना है। खालिदा जिया के निधन के बाद अब इन शब्दों की राजनीतिक जिम्मेदारी पूरी तरह तारिक रहमान के कंधों पर आ गई है।
भारत के लिए चुनौती यह है कि यदि बांग्लादेश में राजनीतिक अस्थिरता और कट्टरपंथ को संरक्षण मिला, तो उसका प्रभाव सीमा पार तक जाएगा। शेख हसीना के शासनकाल में भारत–बांग्लादेश सुरक्षा सहयोग ने इन जोखिमों को काफी हद तक नियंत्रित किया था। फिलहाल नई दिल्ली “सतर्कता, संवाद और प्रतीक्षा” की नीति पर आगे बढ़ रही है।
खालिदा जिया का निधन बांग्लादेशी राजनीति के एक युग का अंत है, जबकि तारिक रहमान की वापसी नए युग की शुरुआत का संकेत देती है। अब यह उनके “प्लान” पर निर्भर करेगा कि वे अपनी माँ की राष्ट्रवादी लेकिन संवैधानिक राजनीतिक विरासत को समावेशी लोकतंत्र और स्थिरता में बदल पाते हैं या नहीं। आने वाला समय तय करेगा कि यह परिवर्तन बांग्लादेश को मजबूती देगा या उसे नई अनिश्चितता की ओर ले जाएगा।
- डॉ. संतोष झा

