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माओवादी आतंकवाद

माओवादी आतंकवाद

by अविनाश कोल्हे
in फरवरी-२०१५, सामाजिक
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नक्सलवादी आंदोलन कानून व्यवस्था की समस्या न होकर एक राजनीतिक समस्या है। इसके पीछे राबिन हूड जैसे एक दो व्यक्ति न होकर एक संपूर्ण एवं गंभीर राजनीतिक दर्शन है। जब तक आर्थिक एवं सामाजिक विकास का न्याय संगत प्रारूप विकसित नहीं होगा, तब तक यह समस्या नहीं सुलझेगी। इसलिए उचित कदम उठाना जरूरी है।
२०१४ के जाते-जाते दो आघात पहुंचाने वाली घटनाएं अखबारों में पढने मिलीं। पहली यह कि शहरी युवक नक्सलवादियों के जाल में फंस रहे हैं। हाल ही में अत्मसमर्पण किए गोपी उर्फ निरंगसाय मडावी ने यह कबूल किया है कि मुंबई, पुणे जैसे महानगरों के युवक भी अब नक्सलवाद की ओर आकर्षित हो रहे हैं। निश्चित ही यह चिंता का विषय है।
२८ दिसंबर २०१४ के ‘महाराष्ट्र टाइम्स’ में छपी खबर के अनुसार महाराष्ट्र में नक्सलवादी उपद्रवों में वृद्धि हुई है। आज की तारीख में गोंदिया जिले के सालेकसा, देवरी, अर्जुनी मोरेगांव एवं सड़क अर्जुनी तहसीलों सहित पूरा गड़चिरोली जिला नक्सलग्रस्त क्षेत्र घोषित है। समय-समय पर नक्सली घटनाओं एवं उसकी तीव्रता का आकलन करने के बाद ही नक्सलग्रस्त क्षेत्र घोषित किया जाता है। इसकी एक शासकीय प्रक्रिया है। नक्सलग्रस्त क्षेत्रों में होने वाले पुलिस एवं नक्सली संघर्ष का परिणाम स्थानीय निवासियों पर भी होता है। इन विपरीत परिणामों को रोकने के लिए एवं स्थानीय लोगों को राहत दिलाने के लिए सरकार इन क्षेत्रों के लिए विशेष योजना भी बनाती है। पुलिस की पर्याप्त सुरक्षा प्राप्त हो इसके लिए पुलिस बल भी बढ़ाया जाता है। जिसके लिए अतिरिक्त राशि का प्रावधान भी किया जाता है। यह सब करने के पहले नक्सली कार्रवाइयों एवं इसकी गंभीरता का मूल्यांकन भी सरकार द्वारा किया जाता है। इन सरकारी उपायों के बाद भी स्थानीय निवासियों का सरकार की तुलना में नक्सलियों पर अधिक विश्वास होता है।
कांग्रेसनीत गठबंधन सरकार जब सत्ता में थी तब उस सरकार के प्रधान मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने साफ कहा था कि माओवादी भारत के शत्रु क्रमांक एक हैं: आज के माओवादियों को एक समय नक्सलवादी कहा जाता था, आज भी यह शब्द प्रयोग प्रचलित है। इस आतंकवाद के लिए माओवादी शब्द प्रयोग ही अधिक उपयुक्त है। क्योंकि इस नक्सलवाद के पीछे आधुनिक चीन के संस्थापक माओ की प्रेरणा ही है। जबकि नक्सलवादी शब्द का कोई निहितार्थ नहीं है। नक्सलवादी शब्द का प्रयोग बंगाल के एक छोटे से गांव नक्सलबाड़ी से हुआ है। १९६७ में इस गांव के खेतिहर मजदूर एवं आदिवासियों ने वहां के जमीदारों के विरुद्ध विद्रोह किया था। इस लड़ाई के समर्थकों एवं सहयोगियों को नक्सलवादी कहा गया था।
पूर्व प्रधान मंत्री डॉ. सिंह ने माओवादियों द्वारा उत्पन्न चुनौती की गंभीरता को ध्यान में रखकर ही आतंकवाद, चीन या पाकिस्तान की समस्याओं को एक ओर रखकर माओवादियों को देश का शत्रु क्रमांक एक कहा था। डॉ. सिंह का यह कथन ठीक भी था। क्योंकि माओवादी आंदोलन एक गंभीर समस्या है।
इस चुनौती को समझने के लिए माओवाद की सैद्धांतिक पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है। उसके बाद ही इस चुनौती का सामना किया जा सकता है। इस समस्या का सही निदान निकाला जा सकता है। अन्यथा माओवादी आंदोलन को केवल कानून व्यवस्था की समस्या मानना समस्या का सरलीकरण होगा और समस्या का आमूल निदान नहीं हो पाएगा। दाउद इब्राहिम या अरुण गवली द्वारा अपनाई गई हिंसक कार्रवाई व माओवादियों की हिंसक कार्रवाई में सतही तौर पर भले ही समानता दिखाई दे रही है तो भी इनके मूल अंतर को समझने के लिए माओवाद की वैचारिक पृष्ठभूमि को गंभीरता से समझना जरूरी है। दाउद इब्राहिम आदि के द्वारा की जाने वाली हिसंक घटनाएं उनके व्यावसायिक हित संरक्षण का एक हिस्सा है जबकि माओवादियों की हिंसा आर्थिक व सामाजिक न्याय की लड़ाई का एक हिस्सा है।
माओवादी जिस तत्वज्ञान पर खड़े हैं उसको संक्षेप में समझना होगा। कार्ल मार्क्स (१८१८-१८८३) ने मानव के ज्ञात इतिहास को ध्यान में रखकर आर्थिक व सामाजिक स्थिति का अध्ययन कर अपना विचार प्रस्तुत किया कि मनुष्य का इतिहास ‘जिनके पास है’(पूंजीपति) और ‘जिनके पास नहीं है’ (सर्वहारा) वर्ग के युद्ध का इतिहास है। आधुनिक काल में इस लड़ाई को गरीबों को संगठित होकर तथा हिंसा के मार्ग को अपनाकर ही जीतना होगा। देखते-देखते यह मार्क्सवादी फिलासफी पूरी दुनिया में फैल गई। दुनिया के लगभग प्रत्येक देश में मार्क्सवाद का अनुकरण करने वाली शक्ति संगठित हुई। भारत में १९२५ में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई।
जैसे-जैसे स्वतंत्रता का समय निकट आते जा रहा था वैसे-वैसे कम्युनिस्ट पार्टी की यह विचारधारा सामने आ रही थी कि यह स्वतंत्रता छलावा है। केवल गोरे साहब जा रहे हैं, उनके स्थान पर काले साहब आ रहे हैं, इस स्वतंत्रता में गरीबों के लिए कोई स्थान नहीं है। इतना ही नहीं तो १९४८ में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की हैदराबाद स्टेट के तेलंगाना क्षेत्र में सशस्त्र क्रांति को सरकार ने दबा दिया। उसके बाद १९५० के अधिवेशन में कम्युनिस्ट पार्टी ने विचार मंथन के बाद भारत में हिंसा का रास्ता छोड़ने का निर्णय लिया। यद्यपि यह निर्णय पार्टी के कई नेताओं को मान्य नहीं था। इसके बावजूद भारत में १९५२ में संपन्न हुए पहले आम चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी दूसरे नम्बर के दल के रूप में संसद में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल रही।
आगे १९६२ में साम्यवादी चीन ने भारत पर आक्रमण किया। इस युद्ध के अनेक परिणाम सामने आए। उसमें एक महत्वपूर्ण परिणाम यह था कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में चीन के आक्रमण को लेकर उत्पन्न विवाद अपने चरम पर पहुंच गया। पार्टी दो भागों में बंट गई। भाई डांगे के नेतृत्व में एक गुट चाहता था कि चीन के आक्रमण का स्पष्ट शब्दों में विरोध किया जाना चाहिए, वहीं भाई रणदिवे के नेतृत्व में दूसरा गुट यह विचार रखता था कि चीन जैसा साम्यवादी देश दूसरे देश पर आक्रमण नहीं कर सकता। इस विवाद के परिणामस्वरूप पार्टी में दो फाड़ पड़ गए। भाई रणदिवे, ज्योति बसु, प्रमोद दास गुप्ता, बसव पुनिया, नम्बुदरिपाद आदि नेताओं ने पार्टी के बाहर आकर एक नई पार्टी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी की स्थापना की।
आज का माओवाद और उसकी लोकप्रियता को समझने के लिए पार्टी की इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की जानकारी होना आवश्यक है। भाई डांगे आदि की पार्टी भाकपा और दूसरा दल माकपा कहलाने लगा। माकपा आज भी केरल, त्रिपुरा तथा पश्चिमी बंगाल में प्रभावशाली स्थिति में है। इस पार्टी ने बंगाल में लगातार तीस वर्षों तक सत्ता में रहकर वैश्विक रेकार्ड बनाया। पहली बार माकपा संयुक्त मोर्चा सरकार के घटक दल के रूप में १९६७ में सत्ता में आई, तब ज्योति बसु के पास गृहमंत्री का महत्वपूर्ण पद था। मार्क्सवादी दर्शन के अनुसार राजनीतिक सत्ता एक साधन मात्र है। इस सत्ता का उपयोग कर गरीब-मजदूर की समस्याओं का निराकरण होगा यह कार्यकर्ताओं की व दल की स्वाभाविक अपेक्षा थी। इसलिए पार्टी के नौजवान कार्यकर्ताओं को लगा कि अब सत्ता का उपयोग कर खेतिहर मजदूर और दीन-दुखियों का कष्ट दूर किया जाएगा।
१९६४ में स्थापित मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में प्रारंभ से ही इस मुद्दे पर वैचारिक स्तर पर वाद-विवाद होता रहा। माकपा के किसान मोर्चा के नेता श्री चारू मजुमदार ने छोटे किसान व खेतिहर मजदूरों के प्रश्न को लेकर अपनी मतभिन्नता व्यक्त की। उन्होंने १९६५ से १९६७ के बीच पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के नाम आठ लम्बे पत्र लिखकर अपने विचार रखे। इन पत्रों में उन्होंने लगातार चीन में माओ द्वारा की गई जनक्रांति का जिक्र किया। मजुमदार के अनुसार जो माओ कहता है वही ठीक है। भारत में क्रांति के लिए अनुकूल वातावरण है तथा कम्युनिस्ट पार्टी को सशस्त्र क्रांति का रास्ता स्वीकार करना चाहिए। चारू मजुमदार और उनके जैसे अनेक युवा चुनावी राजनीति को तिलांजलि देकर क्रांति के मार्ग को अपनाने के पक्ष में थे। संक्षेप में १९६५ से ही पार्टी में ‘चुनावी राजनीति या क्रांति‘ यह विवाद प्रारंभ हो चुका था। जो नक्सली आंदोलन के रूप में सामने आया।
१९६७ के आम चुनावों में उत्तर भारत के अनेक राज्यों में सत्ता गैर कांग्रेसी मोर्चे के हाथों में आई। पश्चिमी बंगाल में जो पूर्वी भारत का महत्वपूर्ण प्रदेश था, सत्ता संयुक्त मोर्चा के हाथ आई, मोर्चे में बांगला कांग्रेस और दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां शामिल थीं। मोर्चे में माकपा एक महत्वपूर्ण राजनीतिक दल था। पश्चिम बंगाल में माकपा के सत्ता में होने के कारण वहां आर्थिक व राजनीतिक बदलाव आए। इसी परिपेक्ष्य में २५ मई १९६७ को दार्जिलिंग जिले के खेतिहर मजदूर व आदिवासियों ने वहां के जमींदार की हत्या कर दी। इस हत्या के पीछे जिन वामपंथी युवाओं का हाथ था, उनको लग रहा था कि बंगाल में उनकी अपनी सरकार होने के कारण उनको कुछ नहीं होगा। परंतु ज्योति बसु के गृहमंत्री होते हुए भी पुलिस ने अपराधियों को गिरफ्तार किया। इस कार्रवाई के कारण माकपा के युवा कार्यकर्ताओं में आक्रोश उत्पन हुआ। ऐसे आक्रोशित कार्यकर्ताओं ने इस विचार के युवाओं को साथ लेकर १९६९ में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी लेनिनवादी की स्थापना की। इसी को आगे नक्सलवादी नाम से जाना जाने लगा। इस पार्टी को संसदीय शासन पद्धति की चुनावी राजनीति स्वीकार नहीं थी। उनके विचार से चुनावी राजनीति एक छल है, अंतत: सत्ता पूंजीपतियों एवं धनपतियों के हाथ में ही रहती है।
उस समय के नक्सलवादी आंदोलन की एक बड़ी विशेषता यह थी कि इस आंदोलन में उच्च शिक्षा प्राप्त, ऊंची जाति तथा उच्च वर्ग के युवा इस आंदोलन के साथ जुड़े थे। इनमें से कुछ तो कोलकाता के प्रतिष्ठित प्रेसीडेंसी कालेज के विद्यार्थी थे। यह थोड़ा अटपटा लगेगा कि कोलकाता के उच्चवर्गीय युवाओं की और नक्सलबाड़ी के अशिक्षित खेतिहर मजदूरों की वर्गीय पृष्ठभूमि में जमीन-आसमान का अंतर था। इसके बावजूद मध्यमवर्गीय चरित्र की सुरक्षित भविष्य की भावना से स्वयं को अलग रखकर शहर के युवा क्रांति के मार्ग में सहभागी बने। इसके पीछे १९६६ में चीन में माओ के नेतृत्व में चीन मे प्रारंभ हुई सांस्कृतिक क्रांति एक बड़ा कारण थी। माओ की सांस्कृतिक क्रांति ने मार्क्सवादी फिलासफी को एक नया रंग दे दिया। इस क्रांति ने श्रम को प्रतिष्ठा दिलाई। माओ के आवाहन पर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के अनेक वरिष्ठ नेता शारिरिक श्रम के कार्य करने लगे। इस बात का उच्च वर्गीय एवं उच्च जातीय नवयुवकों में गजब का आकर्षण था। इसी आकर्षण के चलते कोलकाता की इस युवा पीढ़ी का नक्सलवादी आंदोलन की ओर रूझान बढ़ा।
इस युवा वर्ग के लिए मानो चीन का माओ आदर्श बन गया था। उस कालखंड में कोलकाता के घरों की दीवारों पर ‘चेयरमैन माओ इज अवर चेयरमैन’ की घोषणा सरेआम लिखी जाती थी। इस वर्ग के लिए रूसी राज्यक्रांति की तुलना में चीन में माओ के नेतृत्व में किसानों और खेतिहर मजदूरों द्वारा की गई क्रांति अधिक आकर्षक थी। इस वर्ग के विचार में चीन की आर्थिक व सामाजिक स्थिति तथा भारत की स्थिति में समानता थी। इसीलिए माओ के मार्ग पर चलकर भारत में भी क्रांति लाई जा सकती है, यह विश्वास था। इस समय इन नौजवानों ने कोलकाता को शहरी हिंसा का घर बना लिया था। परंतु कांग्रेस की राज्य सरकार ने उचित कदम उठाकर उस आंदोलन की धज्जियां उड़ा दीं।
यह आंदोलन बाद के वर्षों में धीरे-धीरे आंध्र प्रदेश, बिहार, उड़ीसा आदि राज्यों की ओर हटता गया। आज भी इन राज्यों में वह आंदोलन प्रभावशाली है। छत्तीसगढ़ में तो माओवादी मानो समानांतर सरकार चला रहे हैं। वहां दिन भर निर्वाचित सरकार का कानून चलता है और अंधेरा होते ही माओवादियों की सरकार होती है। हालांकि नक्सलवादी आंदोलन का पहला अध्याय १९७२ में समाप्त हो गया पर दूसरा अध्याय भी प्रारंभ हो गया। अब नक्सलवादी आंदोलन से आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़ व महाराष्ट्र के गड़चिरोली जैसे जिले गंभीर रूप से प्रभावित हैं।
अब तक यह स्पष्ट हो गया होगा कि नक्सलवादी आंदोलन कानून व्यवस्था की समस्या न होकर एक राजनीतिक समस्या है। इसके पीछे राबिन हूड जैसे एक दो व्यक्ति न होकर एक संपूर्ण एवं गंभीर राजनीतिक दर्शन है। जब तक आर्थिक एवं सामाजिक विकास का न्याय संगत प्रारूप विकसित नहीं होगा, तब तक यह समस्या नहीं सुलझेगी। इसके विपरित १९९१ से प्रारंभ हुई वैश्वीकरण के बाद नक्सलवादी आंदोलन की ताकत बढ़ी है। बहुराष्ट्रीय कम्पनीयों एवं केवल आर्थिक लाभ का विचार करने वाले विदेशी निवेश का सामना जहां सरकार स्वयं नहीं कर पा रही है वहां गरीब मजदूर आदिवासी जन यदि नक्सलवादी आंदोलन से अपेक्षा लगा रहे हैं तो इसमें उनका क्या दोष? यदि हम इसे केवल कानून व्यवस्था की समस्या मान रहे हैं तो स्वयं को छल रहे हैं।
यह समस्या अलग किस्म की और अत्यंत गंभीर है। नक्सलवाद, अंतरराष्ट्रीय राजनैतिक तत्वज्ञान के मार्क्सवाद से संबंध दर्शाता है। मार्क्सवाद में राष्ट्रीय भावनाओं और संस्कृति को कोई स्थान नहीं है। वरन इन भावनाओं को सच्चा श्रमिक बनने के रास्ते का रोड़ा माना जाता है। मार्क्सवाद भूलकाल और पुरानी संस्कृति को नकारता है। ऐसी स्थिति में मार्क्सवाद से युवक अगर भारत में भी मार्क्सवादी शासन व्यवस्था लाने के स्वप्न देख रहे तो हमें समय रहते ही इस खतरे को पहचानना होगा। यह खतरा अधिक गंभीर है। ये युवक देश की गौरवशाली परंपरा को नकार देते हैं। इनका सामना अधिक गंभीरता से करना आवश्यक है।
——–

अविनाश कोल्हे

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