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समरस समाज और राष्ट्रीय सुरक्षा

समरस समाज और राष्ट्रीय सुरक्षा

by प्रशांत बाजपेई
in फरवरी-२०१५, सामाजिक
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देश को मजबूती से खड़ा होना है, तो समाज को समरस होना होगा। सौभाग्य से हमारी संस्कृति के मूल चिंतन में ऐसा करने की क्षमता है। ये लड़ाई वैचारिक भी है, और कर्म की भी है। ये हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा का एक महत्वपूर्ण आयाम है, ये समझ भी पैदा करने की आज बड़ी जरूरत है।
जम्मू-कश्मीर राज्य में भारत और चीन की नियंत्रण रेखा के निकट (अक्साई चिन के पास) देमचोक नामक गांव है। सड़क सुविधा यहां से २०० किमी दूर है। ८० परिवारों का ये गांव है। अगस्त २०१२ में चीनी सैनिकों ने इन गांववासियों को १५ अगस्त न मनाने की चेतावनी दी, क्योंकि उनके अनुसार देमचोक विवादित क्षेत्र है। ग्रामवासियों ने स्थानीय आईटीबीपी सुरक्षा बल और फिर तत्कालीन केंद्र सरकार से संपर्क किया। केंद्र से उन्हें उत्तर मिला कि राष्ट्रध्वज फहराना इतना बड़ा मुद्दा नहींं है, और चीनियों को नाराज न करना ही ठीक रहेगा। नेतृत्व के इस रवैये से हतप्रभ एवं आहत ग्रामवासियों ने स्वयं ही कुछ करने का सोचा और चीनी धमकी की परवाह न करते हुए १५ अगस्त को तिरंगा फहराया। अपने बलबूते पर। ये बहादुर गांव वाले आज भी भारत का ध्वज थामे चीनियों की आंखों में आंखें डालकर देख रहे हैं। यदि इन्होंने ये गांव खाली कर दिया तो इस क्षेत्र में भारत की सीमा २०० किलोमीटर सिकुड़ जाएगी। ये समाज की ताकत है। समाज देश का रक्षक है। इसे विस्तार से समझना आवश्यक है।
इसके विपरीत उदाहरण पर गौर करें। १९७१ में अपने निर्माण के मात्र ढाई दशक बाद पाकिस्तान का विभाजन हुआ और उसकी भूमि का ५० प्रतिशत हिस्सा टूटकर बांग्लादेश बन गया। विशाल सेना थी, लेकिन भयंकर खूनखराबा भी पाकिस्तान के विखंडन को रोक न सका, क्योंकि बंगाल का समाज पाकिस्तान के साथ न था। और आज पाकिस्तान एक बार फिर कई विभाजनों के मुहाने पर खड़ा है। पाकिस्तान को अपनी मुट्ठी में दबाए हुए पंजाबी मुस्लिम इस्टैब्लिशमेंट इन दरारों को दबाने के लिए अपनी निर्मम शक्ति का बेतरह उपयोग कर रहा है, लेकिन सिंध, बलूचिस्तान, पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर, पख्तून इलाके सब बेहद अशांत हैं, और रेत की तरह दमनकारी पंजाबी फौज और पंजाबी राजनीति के हाथों से फिसलते जा रहे हैं। पाकिस्तान के समाज में, यदि उसे समाज कहा जाए तो, नफरत, विभेदों और असहिष्णुता का गंधक उबल रहा है।
इस दृष्टिकोण से सारी दुनिया को दो भागों में बांटा जा सकता है। एक तो वो देश जहां समाज के किसी वर्ग के आत्मसात न हो पाने जैसी कोई समस्या नहीं है, जैसे जापान। दूसरी ओर वे देश हैं, जहां ऐसी समस्याएं हैं। ये दूसरी सूची बहुत बड़ी है। इसमें अमेरिका का अश्वेत प्रश्न, यूरोप की विकराल होती मुस्लिम अप्रवासी समस्या, अफ्रीका के जातीय संघर्ष और पश्चिम एशिया की शिया सुन्नी दरारों तक सब कुछ आता है। इस दूसरी सूची में भारत भी शामिल है। यहां समस्याएं विखंडन के मुहाने तक तो नहीं हैं, परंतु अत्यंत गंभीर स्वभाव की अवश्य हैं। पिछली सदी में भारत समेत कई दर्जन देश विखंडित हुए हैं। इनमें लगभग सभी देशों की सीमाओं के परिवर्तन के कारण आंतरिक थे। किन्ही भी विशाल सैनिक शक्तियों या युद्धों से बढ़ कर इन भीतरी परिस्थितियों ने ही विश्व के मानचित्र को परिवर्तनशील बनाए रखा है। यदि ऐसा न होता तो आज महाशक्ति सोवियत संघ से टूट कर अलग हुए १२ देशों का अस्तित्व न होता। भारत अपने समाज के समरस होने और आत्मसातकरण की चुनौती से दो चार हो रहा है।
भारत की इन चुनौतियों में शामिल हैं – जाति समस्या और उससे संबंधित राजनैतिक अवसरवाद, कुछ मात्रा में क्षेत्रीय-भाषायी तनाव, सामाजिक न्याय और विकास के अवसरों की सर्वसुलभता, तथाकथित अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक प्रश्न एवं इन सभी की पृष्ठभूमि में राष्ट्रीय अस्मिता को सशक्त करने की आवश्यक्ता। इनमें से अनेक प्रश्नों को सुलझाने की दिशा में हम क्रमश: आगे बढ़ रहे हैं। जाति प्रश्न और क्षेत्रीय-भाषायी विवादों की बात की जाए तो कहा जा सकता है कि अनेक उतार चढ़ावों के बाद आशास्पद वातावरण बना है। राजनैतिक स्वार्थों और विवादों को किनारे कर दिया जाए तो समाज ने अपनी गतिशीलता से अच्छी उम्मीदें जगाई हैं। अपनी संस्कृति के विशाल पात्र में गलन और समरस होने की प्रक्रिया जारी है। समय के साथ हो रहे परिवर्तनों ने इस परिवर्तन को भी हवा दी है। परंतु अभी भी इस दिशा में काफी चलने की आवश्यक्ता है। दूसरा प्रश्न सब को अवसरों की समान उपलब्धता और विकास में सब की समान भागीदारी का है। ये ऐसी कठिन चुनौती है, जिसकी दिशा में बहुत कुछ किया जाना  आवश्यक है। अवसरों और विकास का अंतर दो क्षेत्रों, दो प्रांतों, दो शहरों और शहर तथा गांव के बीच देखा जा सकता है। इस समस्या का परिणाम पहले मनों के विभाजन और फिर समाज के विभाजन के रूप में सामने आता है। मानवीय त्रासदी तो है ही। सूचना और संचार के युग में ये अंतर और भी उभर कर दिखते हैं। मांग अब संपूर्ण की ही है। जिम्मेदारों के कंधों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है ये। इन परिस्थितियों का दुरूपयोग राष्ट्रविरोधी तत्व करते हैं। इन जटिलताओं में वो विकृत विचारधाराओं का जहर घोलते हैं। विकास के अभाव अथवा भौगोलिक समस्याओं की वो मनमानी व्याख्याएं करते हैंं। आर्य-अनार्य, शोषित और शोषक, बुर्जवा और सर्वहारा जैसे शिगूफे हवा में उड़ाते हैं, और इस प्रकार समाज के ताने बाने को गंभीर नुकसान पहुंचाते हैं। उनका साथ देने के लिए देश के दुश्मन हमेशा तैयार रहते हैं। यही कारण है, कि नक्सलवादी पशुपतिनाथ से जगन्नाथ तक खूनी लाल गलियारा बनाने के मंसूबे पालते हैं, और उल्फा एवं एनडीएफबी जैसे संगठन देशवासियों को परदेसी कह कर उनकी हत्याएं करते हैं।
तीसरा प्रश्न तथाकथित अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक का है। इसमें अल्पसंख्यक की कानूनी व्याख्याओं में (हालांकि वो भी उपलब्ध नहीं है) न उलझते हुए सिर्फ जमीनी सच्चाइयों की बात करते हैं। भारत में आगमन के बाद से ही दोनों सेमेटिक मत (यहूदी जनसंख्या अत्यल्प रही है) अर्थात् इस्लाम और ईसाइयत अन्य धाराओं की तरह भारतीय परंपराओं में समरस नहीं हो सके। भारतीय और अभारतीय होने से क्या फर्क पड़ता है, इसका सबसे बड़ा उदाहरण पंजाब में एक समय सर उठाने वाला अलगाववाद है। काफी तपिश और खूनखराबे के बाद भी अलगाववादियों के प्रयास परवान नहीं चढ़ सके क्योंकि सिख परंपरा की जड़ें भारत भूमि में हैं, और इसलिए कानून व्यवस्था एवं सामाजिक प्रयासों से ये उथल पुथल शांत हो गई। डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व में समाज के एक बड़े हिस्से ने बौद्ध पंथ अपनाया, परंतु कोई सामाजिक उथल पुथल नहीं खडी हुई। इसके विपरीत इस्लाम व ईसाइयत आगमनकाल से ही समाज में समरस नहीं हो सके और प्राय: राजनैतिक आश्रय एवं योजनाबद्ध प्रयासों के द्वारा इनका विस्तार किया जाता रहा। इनके समाज में घुल न पाने का कारण भारतीय परंपरा के विपरीत इनका स्वमत श्रेष्ठता एवं उसके एकमात्र सत्य होने का भाव है। वे अपनी-अपनी उपासना पद्धति को सर्वश्रेष्ठ, अपनी मज़हबी किताब को इकलौती सच्ची किताब एवं दूसरे सभी को हेय एवं असत्य मानते आए हैं, और इसका परिणाम समाज में अलग पहचान बनाए रखने का प्रबल आग्रह तथा मतांतरण एवं जनसांख्यिकीय आक्रामकता द्वारा समाज पर अपना वर्चस्व बनाए रखने की उत्कट इच्छा के रूप में सामने आता है। आर्थिक और रणनीतिक कारणों से प्रेरित बांग्लादेशी घुसपैठ इसी समस्या का विस्तार है, जिसके बहुत दूरगामी परिणाम होने वाले हैं। शहरों में सुगबुगा रहे जिहादी स्लीपर सेल और सुदूर गांवों अंचलों में चल रहा मतांतरण इसी समस्या की कड़ी हैं, जो समाज की नींव पर भी प्रहार कर रहे हैं, और उसके स्वरूप को भी बदल रहे हैं। समाज में आत्मसात न हो पाने का ही फल है, कि मुंबई के चार पढ़े लिखे युवक जब अबूबकर अल बगदादी के बूचड़खाने का हिस्सा बनने घर से निकलते हैं, तो अपने मां-बाप को पत्र में लिख जाते हैं, कि वे इस काफिर देश में नहीं रहना चाहते और किसी मुस्लिम देश में रहना पसंद करेंगे। समाज की इसी कमजोरी का परिणाम है, कि मुस्लिम समाज के उदार स्वरों को मंच नहीं मिलता और कट्टरपंथी प्राय: सब ओर कमान संभाले दिखते हैं।
समाज और राष्ट्र एक दूसरे के पूरक हैं। समाज में कौन से जीवन मूल्य स्थान पाते हैं, इस पर राष्ट्र का भावी स्वरूप निर्भर करता है। स्वतंंत्रता के बाद देश में सामाजिक समरसता को मूर्त रूप दे सकने में समर्थ वैचारिक तत्वों को पूरी तरह उपेक्षित कर दिया गया और सारे समाज का संचालन राजनैतिक स्वार्थ के आधार पर करने का प्रयास किया गया। ‘सत्य एक है, जानने वाले उसे अलग-अलग ढंग से समझते हैं,‘ इस भारतीय विचार को समाज में व्यापक बनाने के स्थान पर सेकुलरवाद, अल्पसंख्यकवाद और बहुसंख्यकवाद के आधार पर रीति नीति चलाने की कोशिशें हुईं। नतीजा ये निकला कि राष्ट्रीय अस्मिता के सशक्त होने के स्थान पर मजहबी और दूसरी पहचान मजबूत हुई। इससे एक सशक्त समाज खड़े होने का हमारा सपना मूर्त रूप नहीं ले पाया।
शिवमहिम्न स्तोत्रम में एक श्लोक आता है-
रुचीनां वैचिष्या.जुकुटिलनानापथजुषाम्। नृणामेको गमयस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥
‘‘जैसे विभिन्न नदियां भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकल कर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न रूचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अंत में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।’’भारत में समरस समाज का सूत्र यही हो सकता है।
देश को मजबूती से खड़ा होना है, तो समाज को समरस होना होगा। सौभाग्य से हमारी संस्कृति के मूल चिंतन में ऐसा करने की क्षमता है। ये लड़ाई वैचारिक भी है, और कर्म की भी है। ये हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा का एक महत्वपूर्ण आयाम है, ये समझ भी पैदा करने की आज बड़ी जरूरत है। हम एक राष्ट्र हैं। समस्त ज्ञात इतिहास के पूर्व से समान मूल्यों की चेतना से पूर्ण एक जीवंत राष्ट्र हैं, इतना ही नहीं आज भी हमारी सहज प्रवृत्तियां, हमारे मन उन्ही मूल तत्वों से निर्मित हैं। हमारे पुरखे एक हैं। हमारा डीएनए समूह एक है। इसे प्रत्येक देशवासी को तीव्रता के साथ अनुभव कराने की आवश्यक्ता है।
———

प्रशांत बाजपेई

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