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गांव का सफर

गांव का सफर

by pallavi anwekar
in ग्रामोदय दीपावली विशेषांक २०१६, सामाजिक
0

बदल रहा गांव अब

कर लो यकीन इस खबर पर
चलो ले चलूं आज तुम्हें
अपने ही सफर पर….

नमस्कार! मैं भारत का एक गांव हूं। आप मुझे कोई भी नाम दे सकते हैं। मुझे पहचानने वाले लोग अपनी उम्र के हिसाब से मुझे याद करते हैं। याने कि जिस उम्र में उन्होंने मुझे देखा है मैं उन्हें उसी रूप में याद आता हूं… लेकिन एक बात सच है कि मैं भी बदल रहा हूं। शहरों की तुलना में बदलाव की गति थोड़ी धीमी है; पर बदल जरूर रहा हूं। तो चलो इसी बदलाव को दिखाने मैं आपको सफर पर लिए चलता हूं।

सफर है तो गाइड की जरूरत पड़ेगी ही। तो लीजिए मैं आपका गाइड भी बन जाता हूं। हम अपना सफर गांव की चौपाल से शुरू करते हैं। पहले जब गांव की आबादी कम हुआ करती थी, बिजली नहीं होती थी तो लोग अपने दिन भर के काम निबटा कर शाम-रात को यहां बैठा करते थे। कुछ हुक्का पीते, कुछ चिलम बीड़ी सुलगाते तो कुछ तम्बाकू-चूना रगड़ते दुनिया भर की गप्पें लड़ाते थे। एक दूसरे का हालचाल पूछा जाता था, सुख-दुख बांटे जाते थे। गांव की तरक्की, आवश्यक सुविधाओं, त्यौहारों के सामूहिक तौर पर मनाए जाने की चर्चा होती थी। दोपहर में घर का काम निबटा कर महिला मंडली का जमावड़ा होता था। उनकी बातों की रंगत निराली होती थी। सेठानी के नए गहनों से लेकर किस सास-बहू या देवरानी-जेठानी की आपस में नहीं बनती सब यहां पता चल जाता था। पर अब यहां ये सब नहीं होता……क्यों? अरे नास हो जाए उस टीवी का! उस डिब्बे से लोग ऐसे चिपके रहते हैं जैसे छत्ते से मधुमक्खियां। अपना-अपना चैनल लगाने के लिए सभी भिनभिनाते रहते हैं; पर छोड़ता कोई नहीं। हां, एक बात अच्छी कर दी उस टीवी ने। सारी दुनिया की खबरें तुरंत पता चल जाती हैं। कुछ कार्यक्रमों से किसानों को खेती-किसानी की बातें पता चल जाती हैंै। पर चौपाल की रंगत उस डिब्बे के कारण फीकी जरूर हो गई। खैर……..ये बदलाव है।

चलो आगे बढ़ते हैं। ये मंदिर देख रहे हैं? ये हमारी ग्राम देवता का मंदिर है। गांव वालों की बहुत आस्था है इस पर। गांव पर कोई भी आपत्ति आए तो सभी इसकी शरण में आ जाते हैं। अभी तक इस देवता ने ही गांव को हर संकट से उबारा है। पहले यहां की पूजा और बलि का मान पंड़ितों और क्षत्रियों तक ही सीमित था। बाकी गांव वाले केवल दूर से ही दर्शन और प्रसाद पाते थे। पर अब यहां के युवाओं ने मंदिर की सारी जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली है। मित्र मंडल बना कर मंदिर की हर तरह से देखभाल करते हैं। सारे त्यौहारों को सामूहिक रूप से मनाते हैं। पढ़े-लिखे और वैचारिक रूप से उन्नत होने के कारण जाति-प्रथा तथा अन्य कुप्रथाओं को नहीं मानते और न ही किसी को मानने देते हैं। अब ग्राम देवता के दर्शन हर किसी के लिए सुलभ है। बलि चढ़ना बंद हो गया है। बलि की राशि विद्यालय में दान कर दी जाती है जिससे आने वाली पीढ़ी की शिक्षा व्यवस्था हो सके। इस मित्र मंडल ने चढ़ावे की राशि और कुछ दान लेकर मंदिर के साथ ही हॉल और मंडप भी बनवाया है; जहां शादी-ब्याह या अन्य कार्यक्रम न्यूनतम शुल्क पर किए जाते हैं। गांव वालों को ग्राम देवता के दर्शन के साथ ही सुविधाएं भी मिलने लगी हैं। वाह……..क्या बदलाव है।

अभी हाल ही में इस मंदिर के मंडप में शादी हुई थी। बाराती पास के गांव से ही आए थे। बेटा शहर में किसी कंपनी में काम करता है, उसे ज्यादा दिन की छुट्टी नहीं मिली। बोलो भला ये क्या बात हुई। अपनी ही शादी में वह केवल ३ दिन के लिए आ सका वह भी रविवार मिला कर। अरे, मैंने तो ऐसी शादियां देखी हैं जो पंद्रह-पंद्रह दिन चला करती थीं। अलग-अलग रस्में अलग-अलग दिन हुआ करती थीं। घर पर मेहमानों की रेलचेल और दुल्हा या दुल्हन की खिंचाई। कहीं ठहाके गूंजते तो कहीं हंसी-ठिठोली। मेहमानों के रूठने-मनाने का सिलसिला भी चलता। पर जो भी हो पंद्रह दिन बड़े मजे से कटते। अब तो किसी को इतनी फुर्सत नहीं रही। लोग-बाग अपनी ही शादी में तीन दिन के लिए आते हैं। खैर……ये बदलाव है।

टन..टन..टन…क्या हुआ? घंटी की आवाज सुनाई दी? अरे स्कूल की छुट्टी हुई है। स्कूल? हां भई स्कूल। हमारे गांव में १२हवीं तक स्कूल है। शिक्षक, शिक्षा का स्तर, बच्चों की ग्राह्य क्षमता सभी कुछ बढ़ा है। वे दिन गए जब ‘पाठशाला’ में कभी शिक्षक होते थे तो विद्यार्थी गुल और विद्यार्थी हैं तो शिक्षक गुल। सर्दियों में पाठशाला नीम के पेड़ तले होती थी और बारिश में सेठजी की गौशाला में। अब भइया पाठशाला मेरा मतलब है स्कूल की अपनी इमारत है और हर मौसम में बच्चे वहीं पढ़ते हैं। पाठशाला स्कूल तो बन गई, पर एक कमी है। यहां बच्चों को किताबी ज्ञान ही मिल रहा है। मेरा कहना है किताबों के साथ-साथ वह भी पढ़ाया जाए जिससे वे अपना काम-धंधा यहीं शुरू कर सकें। उन्हें शहर का मुंह न ताकना पड़े। अब देखते हैं मेरी कौन सुन पाता है। तो भइया इन सब के बीच अगर कुछ नहीं बदला है तो वह है स्कूल की घंटी। वह आज भी पुरानी ही है। वो सुने बिना यहां के लोगों को मजा नहीं आता। तुम्हारी शहरी भाषा में कहूं तो ‘स्कूल वाली फीलिंग नहीं आती। ’

स्कूल की छुट्टी हो गई इसका मतलब है दोपहर हो गई है। तभी मैं कहूं पेट में चूहें क्यों कूद रहे हैं। दोपहर के भोजन का समय हो गया है। चलो बाजार की ओर चलते हैं। वहां काका का भोजनालय है। देखो भई हमें तो रोटी, सब्जी, दाल, चावल, पापड़, अचार से भरी-पूरी थाली खाने की आदत है और साथ में छाछ हो तो क्या बात है। हमारा पेट वह तुम्हारे अधपके पराठे मेरा मतलब है पिज्जा से नहीं भरता। हालांकि अब गांव में वह भी मिलने लगा है। केवल पिज्जा ही नहीं पास्ता, बर्गर, चायनीज इत्यादि भी मिलने लगा है। किरानें की दूकानों पर पहले ‘पुंगी’ (जिन्हें आप फ्रायम्स कहते हैं) के पैकेट लटकते थे अब उनकी जगह कुरकुरे और बिंगो ने ले ली है। और हमारे नौनिहाल बड़े चाव से ये सब खाते हैं। गर्मियों में हम गन्ने का रस या नींबू पानी पीकर अपना गला तर करते थे। अब इनके साथ ही युवाओं की कोक और पेप्सी की प्रति दीवानगी भी देखने को मिलती है। चलो अब जल्दी करो कहीं इन सब बातों के बीच काका के भोजनालय का भोजन खतम न हो जाए।

क्योंकि वहां आज भी मेरी तरह देसी खाने के शौकीनों का मेला होता है जिन्हें माइक्रोवेव से ज्यादा मजा चूल्हे पर सिके बैंगन में आता है। खैर……ये बदलाब है।
हमारे आयुर्वेद में लिखा है कि खाना खाने के बाद कम से कम सौ कदम चलना चाहिए और उसके बाद बाएं करवट १५-२० मिनट आराम करना चाहिए। भोजन तो भर पेट हो ही गया है अब चलो उस नीम की छांव तले थोड़ा सुस्ताया जाए। चिंता मत करो! वहां तक की दूरी सौ सवा सौ कदम ही होगी। इस नीम की छांव की ठंडक जितना सुकून तुम्हें अपने एसी कमरे में भी नहीं मिलेगा। यहां एक बात बहुत अच्छी है कि सभी ने पेड़ों का जतन बहुत अच्छे से किया है। पर्यावरण प्रेमी होने का केवल दिखावा नहीं किया वरन सचमुच उससे प्रेम किया है। वैसे भी हमारी तो संस्कृति ही कृषि प्रधान, पर्यावरण प्रधान तथा ॠतुओं पर आधरित रही है। संक्राति, होली, गौरी-गणपति पूजन, विजयादशमी, दीपावली जैसे त्यौहार तो देश के हर प्रदेश में मनाए जाते हैं; साथ ही कुछ त्यौहार उन राज्यों की परम्पराओं के अनुरूप भी होते हैं। हालांकि होते सभी पर्यावरण और ॠतुओं पर आधारित ही। अभी कुछ महीनों पूर्व ही हमने सावन के त्योहार मनाए। ससुराल में अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने वाली हमारी बहनें कुछ दिन अपने मायके आई थीं। इन्हीं पेड़ों पर झूले डाल कर वे घंटों अपनी सखियों से बतियाती रहीं और अपने बचपन को याद करती रहीं। बादलों से बरसने वाली बारिश और पेड़ की डाली पर बंधे झूले……वाह! क्या बात है। क्या ऐसा आनंद तुम्हारे शहरी रिसॉर्ट या वॉटर किंगडम में मिलेगा? लो चल लिए हम सौ सवा सौ कदम और पहुंच गए नीम तक। अब इस नीम तले थोड़ा आराम कर लो।

अरे भाई उठो! नीम की ठंडी छाया में इतने बैफिक्र होकर भी मत सोओ। यहां तुम्हें कोई इंसान तो नहीं जगाएगा पर पंछी थोड़े ही किसी की सुनते हैं। वे तो अपना काम करेंगे ही। चलो अब हम खेतों की ओर चलें।

अरे क्या हुआ? यूं बीच में ही क्यों ठिठक गए? क्या सोच रहे हो? यही कि गांव के बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं? अरे अब क्रिकेट थोड़े ही अंग्रेजों का खेल बचा है। प्लीज, सॉरी की तरह ही क्रिकेट भी हमसे चिपक गया है। पर एक बात और बता दूं आज ये लोग क्रिकेट खेल रहे

हैं क्योंकि क्रिकेट खेलने का दिन होगा। क्रिकेट खेलने का दिन? हां! हमारे गांव में हर दिन के लिए खेल तय हैं। क्रिकेट के साथ ही ये लोग सातिया, छुपन-छुपाई, लंगडी, लंबी चेन, जमीन-पानी आदि भी खेल खेलते हैं। इससे एक ही खेल खेलने के कारण बच्चे ऊबते नहीं। यहां इन खेलों की प्रतियोगिता भी होती है जिसकी तैयारी साल भर होती रहती है। वाह…..क्या बदलाव है।

अब चलो भी वरना खेत तक जाने में देर हो जाएगी। क्या दिखाई दिया? हिंदी फिल्मों में खेतों के जो दृश्य दिखाए जाते हैं क्या उन्हीं के जैसा नहीं है? देेखो वह किसान अपनी फसल पर कितनी मेहनत कर रहा है। ट्रेक्टर, पंप तथा अन्य मशीनों के कारण इनका काम थोड़ा आसान हो गया है; परंतु फसलों के प्रति इनकी भावना आज भी वही है। ये जानते हैं कि यह फसल ही इनका एक पिता के समान पालन करने वाली है, अत: आज वे अपने बच्चे की तरह इसकी देखभाल कर रहे है। शहर में जब कोई व्यक्ति अपने काम पर जाता है तो उसका परिवार घर पर होता है। परंतु एक गांव में एक किसान का पूरा परिवार खेत में काम करता है। पहले तो जब मशीनें नहीं होती थीं तब सारा काम हाथ से ही करना होता था। इन कामों को करते हुए आलस न आने लगे इसलिए किसान गीत गाया करते थे। महिलाएं फसल से अनाज को अलग करते समय गीत गाया करती थीं। मसाले पीसते समय गीत गाया करती थीं। हमारे सारे लोकगीत इन्हीं की देन है। आज भी लोकगीत तो गाए जाते हैं पर छठे छैमाहे। बाकी या तो मोबाइल पर गाने सुने जाते हैं या ट्रेक्टर से रेडियो बंधे होते हैं। खैर…….ये भी बदलाव है।

शाम हो रही है। चलो अब तुम्हें गांव की सब से रंगीन जगह लिए चलता हूं, मतलब हाट ले चलता हूं। क्या पूछा तुमने? हाट क्या होता है? अरे भाई जिस तरह तुम्हारे मॉल में सप्ताह के एक दिन सेल लगती है ना, वैसे ही यहां हाट होता है। यह गांव के बाहर की ओर कुछ अंतर पर है। इसे रंगीन इसलिए कह रहा हूं क्योंकि यहां बिकने वाली चीजें भी रंगीन होती हैं और खरीदने-बेचने वालों की चर्चाएं भी। अरे मैंने तो यहां शादियां भी तय होते देखी हैं। पहले चूंकि लोगों के पास इतना धन नहीं होता था कि महीने भर का सामान इकट्ठा खरीदा जाए इसलिए लोग सप्ताह में एक दिन आने वाले सप्ताह की हर जरूरी चीज खरीद लेते थे। यहां कपड़े, गहने, मसाले, मिठाई, बर्तन इत्यादि हर जरूरत की चीज मिलती थी। अगर किसी को कुछ न भी खरीदना हो तो भी लोग मेल-मिलाप के लिए भी हाट आ जाया करते थे। इन्हीं बातों के बीच कभी-कभी रिश्तें भी तय हो जाते थे। इसे चलता- फिरता मैरिज ब्यूरो भी कहा जा सकता है। वो देखो वहां बच्चों के लिए तरह-तरह के झूले लगे हैं। उसी की बगल में बर्फ के गोले वाला, कुल्फी वाला, खिलौने-गुब्बारे वाला बैठा है। अब बताओ अपना सामान कैसे बेचा जाए यह सीखने के लिए इन्होंने कौनसा कोर्स किया होगा? ये तो स्वाभाविक ही है ना कि बच्चे झूला झूलने आएंगे तो ये चीजें देखेंगे और अपने माता-पिता से खरीदने की जिद करेंगे। बर्फ का गोला है ही ऐसी चीज। कीमत बढ़ने के अलावा उसमें कोई बदलाब नहीं हुआ है। बच्चे आज भी उतने ही लालायित रहते हैं जितने पहले होते थे। गोला चूसने के कारण शरबत का कम हो जाना और गोले वाले से और मांगना आज भी याद आता है।

ठीक इसी तरह कपड़े और गहने बेचने वालों के आस-पास ही आपको चाट और पानीपुरी का ठेला मिलेगा। क्योंकि इन सब की सब से बड़ी ग्राहक महिलाएं होती हैं। चाट में खट्ठी या तीखी चटनी की मांग करना आम बात होती है। जितनी महिलाएं उतने स्वाद और बेचारा अकेला ठेले वाला। पर मजाल है कि गलती से भी किसी और के स्वाद की चाट किसी और को चली जाए। सब से मजेदार बात तो यह होती है जब पानीपुरी खाने के बाद पानी अलग से मांगा जाता है और दोना भर पानी सुर्ररर्र्र्र की आवाज के साथ पीते हैं। अब कोई गंवार कहे तो कहें। हम तो ऐसे ही हैं।

अरे रे….कहीं ये ना समझना कि हाट बेचारे पुरुषों पर ध्यान नहीं देता। उनके लिए भी एक कोना ऐसा है जहां कृषि से सम्बंधित हथियार और मशीनों के पुर्जों से लेकर तम्बाकू, बीड़ी तक सब मिल जाता है। लोग यहां आते हैं अपने-अपने काम की चीजें खरीदते हैं, लोगों से मिलते हैं, खा-पीकर वापस घर चले जाते हैं। ठीक वैसा ही जैसा आप लोग शहरों में ‘वीकएण्ड’ मनाते हो। चलो….आज जरा गांव की चाट और पानीपुरी का भी स्वाद ले लो। हो सकता है ये शहर की तरह ‘हाइजीनिक’ न लगे पर अब यहां भी स्वच्छता का ध्यान रखा जाता है। मंदिर का काम जिस मित्र मंडल ने अपने हाथ में लिया था वही हाट की भी जिम्मेदारी सम्भाल रहे हैं। पानी ‘मिनरल वॉटर’ तो नहीं होता पर आधुनिक तकनीकों से साफ किया हुआ होता है। स्टील की प्लेट की जगह पत्तों से बनी प्लेट ने ले ली है। इससे प्लेट धोने का झंझट बच जाता है और जो कूड़ा होता है उससे पर्यावरण को भी नुकसान नहीं होता। वाह………क्या बदलाव है।

तो अब मन भर के खाओ। फिर हमें गांव की ओर जाना है। आपके सोने का इंतजाम भी करना होगा। कल सुबह आपको अपने शहर वापस भी तो लौटना है। आशा करता हूं आपको मैं अर्थात गांव पसंद आया होगा। दोबारा जरूर आना। नमस्कार!!

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