समर्थ ग्राम, समर्थ भारत

२१ वीं सदी में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन देखने को मिल रहा है। स्मार्ट सिटी, स्मार्ट शहर की कल्पना जोर पकड़ रही है। शहरों का व्यवस्थापन, शासन व्यवस्था, राष्ट्रीय प्रगति, उन्नति का मार्ग बन रही है। यह तर्क संगत नहीं लगता है। भारत की सम्वन्नता, उद्योजकता यद्यपि शहरों में है, महानगरों में हैं, लेकिन भारत वास्तव में गावों में ही बसता है। आत्मा, आत्मीयता, गांवों में होती है, शहरों में नहीं। शहरों में भीड़ होती है, गांवों में लोग होते हैं।

१९९४-१९९५-१९९७-९८ के दौरान मैं दिल्ली में सेना मुख्यालय में मेजर जनरल के पद पर कार्यरत था। उस समय डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम रक्षा मंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार थे। महीने में दो बार उन्हें मिलना पड़ता था। एक बार अनौपचारिक चर्चा करते समय उन्होंने पूछा- ‘‘भारत समर्थ कैसे होगा?’’ उनके इस प्रश्न के पीछे क्या अभिप्राय था, मुझे एकदम समझ में नहीं आया। परन्तु कुछ सोच कर मैंने उनसे कहा कि ‘‘ महोदय, यदि भारत को समर्थ करना है तो हमें प्रत्येक ग्राम को समर्थ करना होगा। ’’ काफी देर तक चर्चा इसी विषय पर होती रही। करीब एक माह बाद उन्होंने मुझे बताया कि वे एक पुस्तक लिखने का प्रयास कर रहे हैं, जिसका शीर्षक होगा ‘‘२०२०’’। यह पुस्तक बाद में बहुत प्रसिध्द हुई।

मेरी पूरी मान्यता है कि जब तक व्यक्ति समर्थ नहीं होगा, राष्ट्र समर्थ नहीं हो सकता है। गांवों में व्यक्ति तथा व्यक्तित्व निवास करता है। शहरों में लोग निवास करते हैं। व्यक्ति गांवों में निवास करते हैं। ग्राम समर्थ तो भारत समर्थ, व्यक्ति का उदय, व्यक्तित्व का उदय होगा व जब व्यक्तित्व का उदय होगा तभी ग्रामोदय होगा तथा जब ग्रामोदय होगा तभी राष्ट्रोदय होगा। मानव इतिहास इस बात का साक्षी है कि विश्व इतिहास में जो बड़े-बड़े व्यक्ति, राजनेता, शिक्षक, विद्वान, उद्योगपति, महान योद्धा हुए हैं, बहुतायत में छोटे, सामान्य परिवारों में गांवों में जन्मे तथा पनपे हैं। प्रारंभिक शिक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में प्राप्त करके फिर बड़े शहरों की ओर गए हैं। आत्मीयता, एकता, एकात्मता, संस्कृति, भाईचारा, मानवीय सम्बन्ध गांवों की महानता होती है, धरोहर है, सम्पत्ति है। गांवों में प्रत्यके व्यक्ति का एक विशेष व्यक्तित्व होता है, शहरों की भीड़भाड़ में हर व्यक्ति अपने-आप को अकेला महसूस करता है। इसीलिए स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद एक आवाहन हुआ- ‘‘चलो गांव की ओर!’’

एक और सत्य तथा वास्तविकता है कि विश्व में अनेक क्रांतिकारी छोटे गांवों में ही पैदा हुए हैं। भारत में भी यह एक सत्य है। भ्रष्टचारी बड़े-बड़े शहरों में पैदा हुए हैं, पढ़े हैं, पले हैं तथा पनपे हैं। क्रांतिकारी तभी बनते हैं जब उन्हें जीवन, समाज, सामाजिक असंतुलन, अत्याचार का अनुभव बचपन से ही होता है। पूर्वोत्तर भारत के अनेक गोरिल्ला युद्ध के प्रोत्साहक गांवों में पैदा हुए थे। इनमें नगालैंड के फिजो, कइवा, माओ अंगामी आदि प्रमुख हैं। मिजोरम में लालडेंगा भी एक छोटे से गांव में ही पैदा हुआ था।

पूरे विश्व में सक्रिय अनेक आतंकवादी भी छोटे-छोटे गांवों में ही पनपे हैं। भारत में नगालैंड, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, असम में सक्रिय आतंकवादी तथा अलगाववादी गांवों में ही हुए हैं। पंजाब, कश्मीर में सक्रिय आतंकवादी भी छोटे-छोटे गांवों में ही पले, पनपे हैं। भारत में एक कैंसर रोग की तरह फैका हुआ नक्सलवाद (माओवाद) बंगाल-नेपाल सीमा पर एक छोटे से गांव नक्सलबाडी से ही शुरू हुआ था।

विश्व में तथा भारत में प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ, अर्थशास्त्री, वैज्ञानिक, शिक्षा विशेषज्ञ, कृषि वैज्ञानिक, सैनिक अधिकारी अधिकांशत: ग्रामीण क्षेत्रों में ही प्रांरभ में पढ़े, पनपे और बड़े होकर शहरों में शिक्षा, प्रशिक्षण प्राप्त करके बड़े-बड़े पदों पर पहुंचे हैं। ग्रामीण जीवन ही हमें जीवन की कठोर वास्तविकताओं से अगवत कराता है। इसीलिए मैंने प्रारंभ में लिखा कि यदि ग्राम समर्थ तो भारत समर्थ। यदि व्यक्ति समर्थ तभी भारत समर्थ होगा।

पाठकों को यह जानकर प्रसन्नता तथा अभिमान होगा कि हमारी भारतीय सेना अंतरराष्ट्रीय पटल पर प्रसिद्ध तथा लोकप्रिय है। संयुक्त राष्ट्रसंघ शांति सेना में भारतीय सेना का बहुत बड़ा तथा महत्वपूर्ण योगदान है। हमारे सैनिक ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों से ही आते हैं। उन्हें कठोर सत्य तथा जीवन की वास्तविकताओं का वैयक्तिक अनुभव है। पिछड़ापन, छुआछूत, भुखमरी, शिक्षा व्यवस्था का अभाव, स्वास्थ सेवा का अभाव, आवागमन के साधनों का अभाव, शासकीय भ्रष्टाचार, इन सब कुरीतियों का, कुप्रथाओं का कुशासन व दुःशासन का अनुभव हमारे सैनिक बाल्य काल से ही सेना में भर्ती होने तक रोज ही करते हैं। विश्व में जहां युद्धात्मक स्थिति बनी है, गृहयुद्ध चल रहा है उन तमाम राष्ट्रों में ग्रामीण क्षेत्रों में विकास का अभाव है। सुव्यवस्था व सुशासन का अभाव है और इसीलिए युद्धात्मक स्थिति बनी है। गृहयुद्ध चल रहा है तथा शांति स्थापित करने के लिए शांति सेना बुलाई जाती है। भारतीय सैनिक जब शांति सेना के शांति दूत के रूप में विदेशों में सेवा करते हैं तो वहां की समस्या के प्रति वे संदेशनशील होते हैं। वहां की परिस्थिति को समझने में देर नहीं लगती है। स्थानीय लोगों की समस्याओं को समझने में देर नहीं लगती है तथा वहां के स्थानीय लोगों के प्रति भारतीय सैनिकों का मनोगत, व्यवहार, सहानुभूतिपूर्ण होता है। पाश्चात्य देशों के सैनिकों में ये सब रवामियां तथा कमियां होतो हैं। इसीलिए भारतीय सैनिकों के प्रति आस्था, सम्मान की भावना होती है। अनेक बार सयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव ने भारतीय सरकार को पत्रों के द्वारा अनुरोध किया है कि भारतीय शांति सैनिकों का बहुत महत्वपूर्ण योगदान होता है तथा शांति सेना में और ज्यादा भारतीय सैनिक भेजे जाने चाहिए। पूर्ण विश्व में भारत ही संभवत: एकमात्र देश है जहां के शांति सैनिकों की बड़ी संख्या में विदेशों में मांग है। यह भारत के लिए गौरव की बात है।

परन्तु क्या इस वास्तविकता की जानकारी हमारे तथाकथित राजनीतिज्ञों को है? क्या हमारे शासकीय अधिकारियों को है? क्या हमारे विदेश मंत्रालय ने भारतीय सेना के महत्वपूर्ण योगदान तथा भारत की छवि की जानकारी भारतीय संसद में दी? क्या इस वास्तविकता से भारतीय जनमानस को अवगत कराया? भारतीय शांति सेना भारत का प्रतिनिधित्व करती है। भारत का नाम बड़ा होता है। भारत की छवि बनती है। संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा परिषद में भारत को सदस्यता देने की जो मांग उठती है। उसके समर्थन में एक महत्वपूर्ण दलील दी जाती है कि भारत विश्व में एक महत्वपूर्ण देश है जिसका योगदान शांति सेना भेजने में सबसे अग्रणी है, महत्वपूर्ण है। हमारे सैनिक ग्रामीण क्षेत्रों से ही हैं। हमारे गांवों में महिलाओं का मान-सम्मान किया जाता है। महिलाओं को गांव में दादी-नानी-चाची-अम्मीजी, बेटी, बहन के रूप में देखा जाता है व सम्मान मिलता है। हमारे सैनिक इसी प्रथा, संस्कृति तथा विचारधारा से काम करते हैं।

भारत पाकिस्तान सीमा क्षेत्र में, राजस्थान-जम्मू-कश्मीर क्षेत्रों में अनेक गांव सीमा या नियंत्रण रेखा के बिल्कुल पास हैं। कई जगह पर दोनों तरफ के गांव के निवासियों के लिए पानी का साधन एक ही होता है। अब कटीले तार की बाड़ के कारण कुछ परिवर्तन हो रहा है। मैंने स्वयं १९८५-८६ के काल में वहां के गांवों की शादियां देखी हैं, जहां बारात सीमा पार से आती थी। दोनों गांवों के खेतों की मेड़ सीमा से लगी होती है। कई बार पशु नियंत्रण सीमा के पार चले जाते है। उन्हें वापस दे दिया जाता है। १९९० के दशक के बाद हालात में व मानसिकता में परिवर्तन हुआ है। पंजाब प्रांत में कुछ जगहें ऐसी हैं जहां ‘‘पीरबाबा’’ के दर्शन के लिए, प्रसाद के लिए सीमा पार गांव के निवासी मन्नत मांगने आते हैं। यह सब क्या दर्शाता है?

उत्तर पूर्व प्रांत में नगालैंड-मणिपुर राज्यों में सीमा पर बसे गांवों के निवासी ब्रह्मदेश में २० कि.मी. तक पुरानी परंम्परा के अनुसार सामान की खरीद करने तथा खेती के लिए छोटे उपकरण खरीदने जाते हैं, व्यवसाय होता है। वहां कटुता, द्वेष,ईर्ष्या, शत्रुता का वातावरण नहीं होता है। इसी क्षेत्र के गांवों में महिलाएं प्रमुख रूप से व्यवसाय करती हैं। संम्पत्ति की देखभाल करती हैं। व्यापार व व्यवसाय में निपुण हैं। यह हमारे लिए गौरव की बात है। जगंलों में खेतों में महिलाएं बिना किसी डर के जाती हैं। किसी की हिम्मत नहीं होती कि महिलाओं के साथ कोई अमद्र व्यवहार करे। क्या यह स्थिति हमारे बड़े-बड़े शहरों में है? क्या हम इस प्रकार की वास्तविकता की कल्पना भी कर सकते हैं?

पूर्वोत्तर भारत- विशेषकर नगालैंड, मणिपुर, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश में अनेकों ग्राम ऐसे हैं जहां परम्परागत घरों में ताले नहीं लगाए जाते हैं। आज भी वहां घरों में, खेती में चोरी नहीं होती है। ईमानदारी से जीवन जीना हमें इन ग्रामवासियों से सीखना चाहिए। हम अपने आपको पढ़ा-लिखा, सभ्रांत, सम्य, प्रगतिशील, विकसित कहलाने वाले लोग क्या इस बात की कल्पना कर सकते हैं? इन गांवों में जब बहुतायत से लोग खेतों में काम करने जाते हैं तो उसी गांव का एक निवासी पूरे गांव में दिन भर पहरेदारी करता है। ये सब स्वेच्छा से होता है। पूरे गांव की दिन भर रखवाली करना, वृद्ध लोगों का ध्यान रखना ये सब ग्रामवासी ही करते हैं। क्या यह हमारे यहां के गांवों में संभव हो सकता है?

अरुणाचल प्रदेश के लोहित जिले के हकियांग तहसील में हवाई-चिगवंती ग्रामों के पास भारत-ब्रह्मदेश सीमा पर एक छोटा सा गांव है। पूरे गांव की जनसंख्या २०००-२००१ में केवल ५० थी। मैंने इस क्षेत्र में १९७८ से १९८० के वर्षों में कार्य किया था। यहां भारत-चीन-ब्रह्मदेश की सीमाएं मिलती हैं। इस बात की जानकारी मुझे थी। २०००-२००१ में जब मैं लेफ्टिनेंट जनरल के पद पर पूरे क्षेत्र की संरक्षण एवं सुरक्षा व्यवस्था का कार्य देखता था। नवीन वर्ष के स्वागत के लिए उस छोटे से गांव में एक कार्यक्रम आयोजित किया था। कुछ स्वत: को पढ़े-लिखे, सभ्रांत समझने वाले लोगों को साथ लेकर गया था। उस गांव तक पहुंचने के लिए हमें पाच किलोमीटर पैदल चलना पड़ा था। यह गांव ९००० फुट की उंचाई पर है। वहां के लोगों को आश्चर्य हुआ। उन्होंने हमारे वहां आने का कारण पूछा, तब हमने उन्हें बताया कि पूरे भारत देश में प्रतिदिन सूर्य की प्रथम किरण इसी गांव पर पड़ती है। उन्होंने कहा कि ये तो रोज ही होता है। आज विशेष क्या है? तब उन्हें नवीन वर्ष के बारे में बताया। नवीन वर्ष की सूर्य की प्रथम किरण इस गांव पर पड़ती है। परन्तु हमारे धनवान, सम्पदावान, स्वयं को बुद्धिमान कहने वाले लोग नवीन वर्ष मनाने विदेश जाते हैं। अंडमान जाते हैं, आस्ट्रेलिया जाते हैं परन्तु भारत की वास्तविकता से अनभिज्ञ हैं। क्या यह लज्जास्पद नहीं है?

मैं ‘हिन्दी विवेक’ का अभिनंदन करता हूं-धन्यवाद देता हूं कि इस वर्ष का दीपावली अंक भारतीय ग्रामों को अर्पण किया है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि पाठक इसका लाभ उठाएंगे और ग्रामीण वास्तविकता तथा महत्व को बच्चों तक पहुचाएंग। े हर वर्ष अभिभावकों को अपने बच्चों को किसी नजदीक के गांव में ले जाकर, वहां की वास्तविकता की जानकारी देनी चाहिए।

इसीलिए हमारे प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने स्वच्छता अभियान को प्राथमिकता दी है, शौचालयों पर जोर दिया है, ग्रामीण उद्योगों पर जोर दे रहे हैं। यह अभिनंदनीय, सराहनीय है; क्योंकि-

जब ग्राम समर्थ होगा तभी भारत समर्थ होगा।
जब व्यक्ति समर्थ होगा व्यक्तित्व समर्थ होगा।

और तभी राष्ट्र समर्थ होगा अरुणोदय से ग्रामोदय से राष्ट्रोदय तक का भारत।

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