प्रकृति का एक प्राथमिक नियम याने ‘जीवो जीवस्य जीवनम्’ अर्थात प्रकृति में एक जीव स्वत: का पोषण करने के लिये दूसरे जीव का भक्षण करता है। जैसे हिरन प्रजाति के प्राणी तृण (घास), पत्ते खाकर जीते हैं तो चीता बाघ, हिरन का शिकार करते हैं। मेंढक, गिरगिट जैसे प्राणी कीटक खाकर जीवित रहते हैं वहीं सांप या शिकारी पक्षी मेंढक, गिरगिट जैसे प्राणियों को खाकर जीवित रहते हैं। परंतु इस शिकार एवं शिकारी के चक्र में कुछ घटक (प्राणी) ऐसे भी हैं जो एक दूसरे की सहायता करते हैं, एक दूसरे के सहयोग से अपना प्रसार करते हैं। इसका आदर्श उदाहरण याने वनस्पति एवं मक्खी जैसे कीटक। उत्क्रांति के च्रक में ये दोनो घटक एक दूसरे के साथी बने। पृथ्वी पर वनस्पतियों का इतिहास देखें तो ध्यान में आता है कि प्रारंभ में जमीन पर की वनस्पति अपुष्प थी । आज भी उनके प्रतिनिधि हमें फर्न अर्थात सुन्दर महीन पत्तियों वाले पौधे के रूप में मिलते हैं। परंतु इन अपुष्प वनस्पतियों को अपना बीज फैलाने हेतु केवल हवा से सहायता मिलती थी। इस पर उपाय याने वनस्पति सपुष्प हुई। इसी काल में किटकों के प्रकार पैदा हो रहे थे। इन किटकों को आकर्षित कर इनके माध्यम से फूलों का पराग … फैलने का काम तेज गति से होगा इसकी शाश्वति हुई एवं फूलों के मधुरस का स्वाद लेते समय इस किटकों की उन पुष्पों के साथ जैसे जन्मजन्मांतर का बंधन बंध गया हो। झाड़ो के फूल हमारे लिये भले ही सुगंधी, सुंदर, रंगबिरंगी हो परंतु वे प्रत्यक्ष में फूलों के मार्केटिंग एजेन्ट होते हैं। मक्खियों, तितलियों को आकर्षित कर उनका परागीकरण करना एवं अपनी संख्या बढ़ाना यह उनका काम है।
परंतु प्रकृति जितनी सरल, सीधी है उतनी ही टेढ़ी भी है। इसिलिये जिन फूलों की सहायता से वनस्पति किटकों को आकर्षित कर अपना बीज प्रसार करती है उन्ही फुलों की मदद से किटकों का शिकार करनेवाली वनस्पति भी देखने को मिलती है। किटक भक्षी वनस्पति कहने पर सबसे पहले याद आती है विज्ञान के पुस्तक की ‘पिचर प्लोट 3 । परंतु किटकों को खाने वाली यह वनस्पति भारत में केवल मेघालय की घाटियों एवं पहाड़ो पर पायी जाती है। इस वनस्पति से आकार में बहुत छोटी वनस्पति याने ड्रोसेरा, यह महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक में कई जगह पाई जाती है। ड्रोसेरा अर्थात ओस की बूंदे। इस छोटी सी वनस्पति पर उतने ही छोटे फूल आते हैं। इन फूलों के डठंल पर ओस की बूंदो के समान चमकने वाले और मीठी सुगंध वाले ओस की बूंदो के समान दिखने वाले बूंद लटके रहते हैं। ये बूंदे बहुत चिपचिपे होते हैं और ड्रोसेरा के फूल की ओर आकर्षित होने वाले किटकों का नाश करते हैं। इन बूंदो की मीठी सुगंध से जब मक्खी के समान किटक इन फूलों की ओर आकर्षित होते हैं एवं फूलों पर बैठते हैं तब इन बूंदो में वे चिपक जाते हैं। अब वे उड़ नही सकते हैं। एवं उसपर चिपचिपा पदार्थ और छोड़ते हैं। इसके कारण वह किटक मर जाता है और उसके शरीर का नाइट्रोजन ड्रोसेरा सोख लेता है। इसके बाद उसका अस्थि पंजर बाहेर फेंक दिया जाता है। इस प्रकार प्रकृति के ये मोहक शिकारी अपना शिकार साधते हैं।