नोटों की किल्लत और छपाई

देश में ५०० और १,००० रुपये के पुराने नोट बंद हुए डेढ़ महीने से ज्यादा वक्त बीत चुका है। हालांकि बैंकों की शाखाओं में और एटीएम के बाहर पहले जैसी लंबी कतारें तो नहीं दिख रही हैं और गांव-देहात में भी जरूरत भर की रकम मिल जाने की खबर आ रही है, लेकिन नोटों की किल्लत अब भी बनी हुई है। बेशक नकद रहित लेनदेन को अपनाया जा रहा है और छोटे-मोटे दुकानदार भी इनका सहारा लेने लगे हैं, लेकिन एटीएम के बाहर कतारें खत्म नहीं हुई हैं। लोग घर-बाहर, दफ्तरों से लौटते हुए कतारों में लग ही रहे हैं। रकम निकालने की सीमा अब भी पर्याप्त नहीं कही जा सकती; क्योंकि एक बार रकम निकालने के दो-तीन दिन बाद ही दोबारा एटीएम का चक्कर काटना ही पड़ता है।

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने ८ नवंबर को ५० दिन बाद स्थिति एकदम सामान्य हो जाने की बात कही थी, लेकिन महीना भर बीतने के बाद उन्होंने और धैर्य रखने की बात कहना शुरू कर दिया। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि सरकार की तरफ से ढिलाई तो नहीं बरती गई? और उससे योजना बनाने में कोई चूक तो नहीं हुई, जिसका नतीजा अब दिख रहा है? आखिर नोटों की किल्लत कब तक रहेगी?

इन सवालों के जवाब तलाशने के लिए हमें सब से पहले यह देखना पड़ेगा कि सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) नोटों की किल्लत दूर करने के लिए क्या कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि दोनों हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। नोट छापने के लिए देश में इस समय कुल चार प्रेस यानी मुद्रणालय हैं। ये प्रेस मध्य प्रदेश के देवास, महाराष्ट्र के नासिक, पश्चिम बंगाल के सालबोनी और कर्नाटक के मैसूरु में हैं। चारों में ही तेजी से काम चल रहा है। ये चारों प्रेस साल भर में जितने नोट छापती हैं, उतने पांच महीने के भीतर छापने का निर्देश उन्हें दिया गया है। इनमें नए नोटों की छपाई की तैयारी सितंबर से ही शुरू हो गई थी और अक्टूबर की शुरुआत से ही नोट छपने लगे थे। इस समय वहां तीन-तीन पालियों में मिला कर चौबीसों घंटे काम चल रहा है। लेकिन दिक्कत यह है कि बड़े नोटों से भी ज्यादा छोटे नोट छापे जा रहे हैं।

रिजर्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि साल भर में छपने वाले नोटों में ६८ प्रतिशत हिस्सेदारी छोटे नोटों यानी १०० रुपये और उससे कम कीमत के नोटों की ही होती है। नोटबंदी का ऐलान होने तक सालबोनी और मैसूरु में ५०० और १,००० रुपये के नोट ही अधिक छप रहे थे। देवास और नासिक में २ से लेकर १०० रुपये तक के नोट और थोड़े ५०० रुपये के नोट छप रहे थे। नवंबर के अंत तक भी इन जगहों पर १०० रुपये और कम कीमत के नोट ही अधिक छपते रहे। उसके बाद ५०० के नए नोटों के बजाय २,००० रुपये के नोट छापे जाने लगे। नोटों की आवाजाही में समय बर्बाद नहीं हो, इसीलिए चारों प्रेस से हवाई जहाजों के जरिये रोजाना नोटों के बंडल उठाए जा रहे हैं और देश भर में पहुंचाए जा रहे हैं।

नोटबंदी की घोषणा से पहले सालबोनी में रोजाना २० से ४५ लाख नोट छपते थे, लेकिन अब आंकड़ा बढ़ कर ५० से ७० लाख नोट प्रति दिन किया जा चुका है। देवास में ५०० रुपये के १.८ करोड़ नोट रोज छापने के लक्ष्य के साथ काम किया जा रहा है और इस वर्ष के अंत तक वहां से विभिन्न मूल्यों के २६० करोड़ नोट छापने का निर्देश दिया गया है। इसीलिए नोट छापने में कोई ढिलाई नहीं की जा रही है और २,००० रुपये के नोटों की तरजीह दिए जाने की वजह भी साफ है।
आरबीआई का कहना था कि देश में लगभग १५ लाख करोड़ रुपये की मुद्रा ५०० और १,००० रुपये के नोटों की शक्ल में है। नोटबंदी के कारण ये १५ लाख करोड़ रुपये एक ही झटके में बाहर हो गए। इनकी जल्द से जल्द भरपाई करने का सबसे आसान तरीका २,००० रुपये के अधिक से अधिक नोट पहुंचाना ही था, जो काम केंद्रीय बैंक करने लगा। दिसम्बर के मध्य में सरकार और रिजर्व बैंक दोनों ने ही कहा कि २,००० रुपये के बजाय अब ५०० रुपये के अधिक नोट छापे जाएंगे। इसका नतीजा भी दिख रहा है और जो एटीएम पहले केवल २,००० रुपये के नोट उगल रहे थे, अब उनसे ५०० के नोट पर्याप्त संख्या में निकल रहे हैं।

ऐसा भी नहीं है कि आरबीआई कम मुद्रा छाप रहा है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक १५ दिसम्बर तक बैंकों के काउंटरों और एटीएम के जरिए ५ लाख करोड़ रुपये से अधिक के नोट बांटे जा चुके थे। इसके अलावा ३ लाख करोड़ रुपये से अधिक के नोट छपे रखे हैं, जिन्हें बैंकों तक पहुंचाया जाना है। असल में प्रेस से छपते ही नोट एटीएम में नहीं पहुंच जाते। इसकी जटिल प्रक्रिया होती है और सुरक्षा तथा गुणवत्ता परीक्षण की प्रक्रिया से गुजर कर नोटों को बैंकों तक पहुंचाने में कुछ समय लग जाता है। यूं भी रिजर्व बैंक ने इस साल ५०० रुपये के ५७० करोड़ और १,००० रुपये के २२० करोड़ नोट छापने का फैसला किया था। बदली सूरत में १,००० रुपये के बजाय २,००० रुपये के इतने ही नोट और ५०० रुपये के नोट पांच महीने के भीतर छापे जाने हैं। इसमें समय लगना स्वाभाविक ही है।

नोट छापना भी आसान प्रक्रिया नहीं है। विशेष कागज पर विशेष स्याही के साथ नोट बहुत सतर्कता के साथ छापने पड़ते हैं। उनमें भी चांदी का धागा डालने का काम सबसे अधिक बारीकी से करना होता है। इसी में समय भी अधिक लगता है और गलती की गुंजाइश भी रहती है। नए नोट यूं भी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा के भी काफी करीब बनाए गए हैं और उन्हीं की तरह सुरक्षा के इंतजाम भी किए गए हैं। मिसाल के तौर पर अमेरिकी डॉलर लगभग ६.१४ इंच लंबा और २.६१ इंच चौड़ा होता है। यूरो की लंबाई भी ४.७ इंच से ६.३ इंच तक और चौड़ाई २.४ इंच से ३.२ इंच तक होती है। भारत में ५०० रुपये के नए नोट की लंबाई ५.९ इंच और चौड़ाई २.६ इंच रखी गई है। २,००० रुपये के नोट की लंबाई ६ इंच से कुछ ही अधिक है। सुरक्षा के लिए डॉलर और यूरो में वाटरमार्क, अदृश्य स्याही, होलोग्राम और सूक्ष्म छपाई का इस्तेमाल होता है। हमारे नए नोटों में भी वाटरमार्क, सूक्ष्म अक्षरों में आरबीआई और ५०० या २,०००, रंग बदलने वाले सुरक्षा धागे समेत तमाम खासियत हैं, जिनकी नकल करना बहुत मुश्किल होगा।

कुल मिलाकर सरकार और रिजर्व बैंक की मंशा तो एकदम साफ है और उसके लिए वे बहुत मेहनत भी कर रहे हैं। लेकिन योजना में कुछ खामियां तो रह ही गई हैं। सबसे पहली खामी तो इसका समय है। हालांकि यह बात एकदम सही है कि जब भी यह कदम उठाया जाता, परेशानी होना तय था। लेकिन सरकार शादी-ब्याह, फसल बुआई के समय का खयाल रख सकती थी। यही कदम अगर दो महीने बाद उठाया जाता तो इतनी अधिक परेशानी शायद नहीं होती।

सरकार इसी काम को चरणबद्ध तरीके से भी कर सकती थी। सभी जानते हैं कि सबसे अधिक कीमत का नोट प्रचलन में सब से कम रहता है और आम तौर पर रकम इकट्ठा करने में वही काम आता है। इसीलिए सरकार सब से पहले १,००० रुपये का नोट बंद करने का ऐलान कर सकती थी और उन्हें निश्चित सीमा में सीधे खातों में जमा करा सकती थी। साथ ही बैंकों या एटीएम से ५०० रुपये के नोटों की निकासी बिल्कुल बंद कर दी जाती। इस तरह कुछ ही दिनों में १,००० रुपये के नोट तो निपट ही जाते, बैंकों से केवल १०० रुपये के नोट निकलने के कारण ५०० रुपये के नोट भी बाजार में बहुत कम हो जाते। इसके बाद अचानक ५०० रुपये के नोट बंद कर दिए जाते और उन्हें भी बदलने के बजाय बैंक खातों में ही जमा कराया जाता। निश्चित रूप से कुछ भ्रष्टाचारी इसके जरिये बच जाते, लेकिन जनता को कम से कम परेशानी होती। कुछ भ्रष्टाचारी तो अब भी बच ही रहे है।

एटीएम मशीन में भी नोट रखने के स्लॉट होते हैं, जिनमें किसी एक मूल्य के नोट ही रखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए ५०० रुपये वाले स्लॉट में १०० रुपये के नोट नहीं आ सकते। इसके लिए नोटों के आकार के मुताबिक तकनीकी बदलाव भी करना पड़ता है, जिसमें समय लगने के कारण नोटों की किल्लत हो रही है। १,००० रुपये के नोट बंद कर उसकी जगह १०० रुपये के नोट डालने से यह परेशानी भी कम हो जाती।

एक और बड़ी दिक्कत यह रही कि नकदरहित लेनदेन के लिए भारत तैयार ही नहीं दिखा। गांव-देहात में जन धन खातों के साथ कमोबेश हरेक खाताधारक को रुपे कार्ड दिए गए हैं। इसी तरह कस्बों और छोटे शहरों में भी रकम निकालने के लिए सभी डेबिट कार्ड का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन उनमें से अधिसंख्य लोग ऐसे हैं, जिन्होंने खरीदारी के लिए इस कार्ड का कभी इस्तेमाल ही नहीं किया था। हजारों लोग तो ऐसे निकलने, जिन्होंने डेबिट कार्ड का कभी एटीएम में भी इस्तेमाल नहीं किया। यहां सरकार और बैंकों की ही खामी है; क्योंकि नई तकनीक को अपनाने में मनुष्य को हमेशा हिचक होती है। यदि समुचित अभियान छेड़ कर गांव-कस्बों में सभी को नकदरहित लेनदेन के लिए या प्लास्टिक मनी के जरिये खरीदारी के लिए प्रशिक्षित किया जाता तो इतनी समस्या नहीं होती। इसी तरह दुकानदारों को भी अगर स्वाइप मशीन रखने के लिए प्रेरित किया जाता तो स्थिति बहुत बेहतर रह सकती थी।

इस कवायद से सरकार को बैंकों की मुस्तैदी भी समझ आ जानी चाहिए। खबरें आ रही हैं कि दर्जनों गांवों के बीच बैंक की केवल एक शाखा है, जहां तक पहुंचना बुजुर्गों के लिए खासा मुश्किल रहता है। रिजर्व बैंक बहुत पहले ही बैंकों को निर्देश दे चुका है कि कितनी जनसंख्या के बीच और कितनी दूरी पर शाखा खोलना जरूरी है। यदि इन निर्देशों का ठीक से पालन किया जाता तो इतनी बदहवासी नहीं दिखती।

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