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हिमालयी सीमांत सुरक्षा

हिमालयी सीमांत सुरक्षा

by डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
in फरवरी-२०१५, सामाजिक
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‘‘ऐसा नहीं कि चीन भारत की विदेश नीति में हो रहे इन परिवर्तनों की भाषा को समझ नहीं पा रहा। चीन इतना तो समझ चुका है कि भारत में जो नया निज़ाम आया है वह किसी भी देश से आंख झुका कर बात करने के लिए तैयार नहीं है।’’
हिमालयी सीमांत सुरक्षा का प्रश्न १९६२ के चीनी आक्रमण के बाद ही उत्पन्न हुआ था। इससे पहले यह माना जाता था कि उत्तर दिशा में हिमालय भारत का प्राकृतिक पहरेदार है। १९६२ में चीन ने इस प्राकृतिक पहरेदार को रौंद कर पूरे हिमालयी सीमांत को असुरक्षित ही नहीं बना दिया बल्कि स्थायी रूप से इसे सब से संवेदनशील सीमा क्षेत्र में भी तब्दील कर दिया। इसी के कारण राष्ट्रकव़ि रामधारी सिंह दिनकर को परशुराम की प्रतीक्षा लिखनी पड़ी थी। क्या इसे संयोग ही कहा जाए कि परशुराम की मुक्ति का परशुराम कुंड भी अरुणाचल प्रदेश ही है और यही प्रदेश चीनी आक्रमण से सर्वाधिक प्रभावित हुआ था।
दरअसल जिन दिनों भारत में हिमालय को उत्तरी पहरेदार स्वीकार किया जाता था, उन दिनों भी भारत की सीमांत सुरक्षा का कारण भारत और चीन के बीच पड़ने वाला विशाल तिब्बत देश था। चीन के लिए प्राकृतिक कारणों से इस विशाल पर्वतीय भूभाग को लांघ कर भारत की उत्तरी सीमा तक पहुंचना कठिन था। लेकिन १९५० में जब चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया और तिब्बत के स्थान पर चीन भारत का उत्तरी पड़ोसी बन बैठा तो उसने पूरी उत्तरी सीमा को विवादास्पद और अचिह्नित घोषित कर दिया। १९६२ का आक्रमण उसी का परिणाम था और उसमें मिली पराजय से उत्पन्न हुआ घाव जो आज तक भी रिसता है, उसी से उत्पन्न हुआ था। ध्यान रहे भारत-तिब्बत की यह सीमा पूर्वोत्तर में अरुणाचल-सिक्किम से लेकर पश्चिमोत्तर में जम्मू-कश्मीर तक फैली हुई है।
पश्चिमोत्तर में १९४७ से पहले भारत की सीमा अफ़ग़ानिस्तान से लगती थी और सातवीं शताब्दी से शुरू हुए विदेशी आक्रमण प्रायः इसी रास्ते से होते थे। १९४७ में अंग्रेज़ों ने सिंध, सीमांत प्रांत (अब ख़ैबर पख्तूनख्वा), बलोचिस्तान के साथ साथ पंजाब का पश्चिमी हिस्सा काट कर पाकिस्तान बना दिया और भारत की सीमा फ़िरोज़पुर, अमृतसर तक खिसक आई। सीमा का संकुचन तो हुआ ही, लेकिन साथ ही पश्चिमोत्तर सीमांत पर एक स्थायी शत्रु राष्ट्र उभर आया। तिब्बत के ग़ुलाम हो जाने के कारण और पाकिस्तान का निर्माण हो जाने के कारण पूर्वोत्तर से लेकर पश्चिमोत्तर तक पूरा उत्तीर्ण सीमांत चीन और पाकिस्तान जैसे शत्रु देशों से घिर गया। इतना ही नहीं दोनों ने मिल कर भारत की घेराबंदी के प्रयास शुरू कर दिए। सिक्यांग और तिब्बत को जोड़ने के लिए चीन ने भारतीय क्षेत्र लद्दाख में से सड़क का निर्माण पांचवें दशक में ही कर लिया था। भारत सरकार ने चीन के इस अतिक्रमण को छिपाने का ज़्यादा प्रयास किया, रोकने का कम। आज स्थिति यह है कि चीन और पाकिस्तान इकट्ठे हो गए हैं। चीन ने पुराने रेशम मार्ग को पुनर्जीवित करने का काम अत्यंत तेज़ी से प्रारम्भ कर दिया है। पूर्वी तुर्किमेनीस्तान से गिलगित होती हुई सड़क इस्लामाबाद तक आ पहुंची है। चीन इसी को कराकोरम मार्ग कहता है।
पश्चिमोत्तर में नया बना पाकिस्तान भारत का विरोधी है, इसी को केंद्र में रख कर भारत सरकार अपनी सुरक्षा नीति की रचना करती रही। जबकि पूरे हिमालयी क्षेत्र के साथ लगता चीन भारत का उससे भी बड़ा विरोधी देश था। चीन के साथ भारत के हित टकराते थे। ऐतिहासिक दृष्टि से चीन विस्तारवादी रहा है और पड़ोसी देशों को निगलने का प्रयास करता रहा है। लेकिन दिल्ली में विदेश मंत्रालय चीन को को मित्र राष्ट्र मान कर अपनी सुरक्षा नीति व विदेश नीति बनाता रहा। जिसका दुष्परिणाम यह है कि आज भारत की चालीस हज़ार किलोमीटर ज़मीन चीन के क़ब्ज़े में चली गई है। चीन ने तिब्बत पर बलपूर्वक क़ब्ज़ा ज़माने के बाद, उस पूरे क्षेत्र को सैनिक दृष्टि से भारत के ख़िलाफ़ प्रयोग करना शुरू कर दिया है। १९६२ की लड़ाई में चीन को यह अहसास हो गया था कि यदि भारत के साथ लम्बा युद्ध चलता है तो तिब्बत मार्ग से सेना की सप्लाई लाइन बहुत देर तक बहाल नहीं रखी जा सकती। इसलिए उसने चीन को तिब्बत के साथ जोड़ने के लिए रेल मार्ग का निर्माण करने का निर्णय किया। तब बहुत से विशेषज्ञ इस प्रकल्प को असंभव मान कर हंसते थे। लेकिन आज गोर्मो से ल्हासा तक रेल मार्ग बिछ चुका है और वहां रेलगाड़ी चलती है। कुछ दिन पहले ही चीन सरकार ने घोषणा की है कि वह इस रेल मार्ग का विस्तार भारत और नेपाल की सीमा तक कर रहा है। १९६२ के युद्ध के तुरंत बाद चीन ने प्रमाणित धमाका करके परमाणु आयुध के क्षेत्र में क़दम रख दिया था।
चीन सरकार भारत के हिमालयी सीमांत पर दो प्रकार का युद्ध लड़ रही है। एक तो परम्परागत युद्ध है, जिसके लिए चीन की तैयारी चलती रहती है। दूसरा सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक युद्ध है जिसके माध्यम से लोगों का चिंतन और दृष्टिकोण बदला जाता है। यह युद्ध ज़्यादा सूक्ष्म और स्थायी प्रभाव वाला होता है। हाल ही में समाचार मिले हैं कि नेपाल और भूटान की सीमा पर चीन सांस्कृतिक युद्ध की रणनीति बना रहा है। सीमा सुरक्षा बल के सूत्रों के अनुसार नेपाल भूटान सीमा पर चीन के पचास के लगभग अध्ययन केंद्र और गोम्पा-मठ कार्य कर रहे हैं जो सीमांत क्षेत्र में भारत

विरोधी चिंतन शिविर चलाते हैं। ऐसे ग्यारह केंद्र नेपाल के भीतर भारतीय सीमा पर कार्यरत हैं। ये केंद्र तराई के क्षेत्र में भारत विरोधी वैचारिक कैलंडर तैयार करने के काम में लगे हुए हैं। इसी प्रकार भारत की जो सीमा भूटान से लगती है, उसके साथ साथ अनेकों नए मठों का निर्माण हुआ है जो पूर्वी सिक्किम से लेकर पश्चिमी बंगाल के जयगांव तक फैले हुए हैं। लेकिन ये मठ आध्यात्मिकता के केंद्र न होकर चीन समर्थक, भारत विरोधी प्रचार के केंद्र हैं। आश्चर्यजनक बात तो यह है कि जिन क्षेत्रों में ये मठ बनाए गए हैं वहां अनुपात के हिसाब से बौद्ध मत के लोगों की संख्या नगण्य है। सीमा सुरक्षा बल पिछले चार पांच साल से ऐसी जानकारियां दिल्ली को भेजता रहता है। शास्त्रों में कहा गया है कि सीमांत क्षेत्रों में बसने वाली जनसंख्या किसी भी देश की संकट काल में पदाति सेना होती है। चीन भारत की इसी पदाति सेना के मन मस्तिष्क में ज़हर घोलने के काम में लगा हुआ है।
भारत के ख़िलाफ़ चीन की रणनीति बहुत ही सावधानी से तैयार की गई लगती है। उसने लड़ाई के परम्परागत हथियारों की बजाय इन हथियारों का प्रयोग करना शुरू किया है। भारत का मीडिया पिछले अनेक वर्षों से सरकार को आगाह कर रहा था कि चीन सरकार तिब्बत में ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध बनाकर उसके जलप्रवाह को नियंत्रित करने का प्रयास कर रही है। ब्रह्मपुत्र को तिब्बत में सांगपो कहते हैं और सांगपो के प्रवाह को अवरुद्ध करके अथवा उसकी दिशा बदलकर चीन उत्तर -पूरब में ब्रह्मपुत्र का प्रयोग भारत के खिलाफ एक हथियार के रूप में कर सकता है। कुछ साल पहले हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में पारचू नदी में भयंकर बाढ़ आयी थी जिसके कारण जान-माल की बहुत हानि हुई थी। उस समय भी ऐसी खबरें आ रही थीं कि चीन सतलुज नदी के पानी को रोक रहा है। लेकिन चीन अब तक ब्रह्मपुत्र पर बनाए जा रहे जल-विद्युत प्रकल्प से स्पष्ट ही इनकार करता रहा है और चीन सरकार का वही इनकार भारत सरकार भारतवासियों को परोसती रही। और पूरे जोर से इस बात पर भी बल देती रही कि भारत के लोग इस पर विश्वास करें। उपर से देखने पर यह सब बड़ा निर्दोष लगता है। चीन की सरकार कोई बात कहती है और भारत की सरकार पूरे जोर से उसकी गवाही देती है तो भारत के लोग उस पर विश्वास क्यों न करें? लगभग यही स्थिति १९५० के बाद पैदा हुई थी जब चीन सरकार सिक्यांग और तिब्बत को जोड़ने वाली सड़क बना रही थी। यह सड़क भारतीय क्षेत्र में से होकर गुजरती थी। मीडिया बार-बार हल्ला मचा रहा था परंतु उस समय के प्रधान मंत्री पं.नेहरू आम जनता की छोड़िए, संसद में संसद सदस्यों तक को डांटते थे कि यह सब झूठी अफवाहें हैं। इन पर विश्वास नहीं करना चाहिए। लेकिन बाद में चीन ने स्वयं ही सड़क पूरी हो जाने के बाद इसकी घोषणा करके हडकम्प मचा दिया था। अब ब्रह्मपुत्र पर बनाए जा रहे बांध को लेकर लगता है कि इतिहास अक्षरशः अपने आप को दोहरा रहा है। मीडिया के चिल्लाने और संसद सदस्यों के गुस्साने के बावजूद भारत सरकार आजतक देश को यही बताती रही कि ब्रह्मपुत्र पर कोई बांध नहीं बनाया जा रहा। परंतु जब चीन सरकार ने भारत के तात्कालिक विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा को चीन में ही बुलाकर कायदे से सूचित कर दिया था कि तिब्बत में चीन ब्रह्मपुत्र पर बांध बना रहा है तो भारत सरकार को यह वास्तविक स्थिति बताना पड़ी। अलबत्ता चीन ने भारत सरकार को इस बांध की सूचना देते हुए यह भी जोड़ दिया था कि इसके बारे में भारत को बताना जरूरी तो नहीं था लेकिन क्योंकि चीन भारत को अपना बेस्ट फ्रेंड मानता है और दोस्तों से कोई चीज छिपानी नहीं चाहिए इसलिए, उसने यह सब कुछ बताया है। चीन ने तिब्बत में रेलवे लाइन को निर्माण करके उसे लगभग भारत की सीमा तक पहुंचा दिया है, ब्रह्मपुत्र और सतलुज के पानी से छेडखानी करके उसने एक नया जल हथियार बनाना शुरू कर दिया है। आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि कल चीन सरकार ब्रह्मपुत्र पर बनाए जा रहे इस बांध को भी भारत -चीन मैत्री का प्रतीक ही घोषित कर दे जिस प्रकार उसने १९५४ में तिब्बत की हत्या करने वाली भारत-तिब्बत (चीन) संधि को पंचशील का नाम दे दिया था। भारत सरकार को चाहिए कि वह चीन से इस बात का आग्रह करे कि जब तक तिब्बत समस्या का संतोषजनक समाधान नहीं हो जाता तब तक वह बलपूर्वक अधिग्रहित किए गए तिब्बत में भारी प्रकल्पों को प्रारम्भ न करे। हिमालयी क्षेत्रों में चीन को पानी के प्राकृतिक प्रवाहों से छेड़खानी की अनुमति नहीं दी जा सकती क्योंकि इससे पूरे देश की पारिस्थितिकी बदल जाएगी।
अभी तक तो चीन पूर्वोत्तर भारत में ही सीमा को लेकर विवाद उठाता था, पिछले कुछ वर्षों से उसने पाकिस्तान के साथ मिल कर जम्मू-कश्मीर के मामले में स्वयं को भी एक पक्ष बताना शुरू कर दिया है। लद्दाख में अक्साई चीन पर तो उसने क़ब्ज़ा कर ही लिया था लेकिन १९६३ में पाकिस्तान ने उसे अनाधिकृत कश्मीर का कुछ हिस्सा चीन को दे दिया ताकि वह काराकोरम मार्ग का निर्माण कर सके। अब उस मार्ग के बन जाने से चीन की सेना के दस हज़ार से भी ज़्यादा सैनिक, जिन्हें चीन व पाकिस्तान की सरकार कंस्ट्रक्शन वर्कर कहती है, गिलगित और बल्तीस्थान में डेरा जमा कर बैठ गए हैं। जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान नियंत्रित आतंकवाद का केंद्र बन गया है जिसमें चीन की रुचि भी रहती है।
लेकिन मुख्य प्रश्न यह है कि पूरे हिमालयी सीमांत पर बढ़ रहे इस ख़तरे का सामना भारत किस प्रकार कर रहा है। इस मामले में प्रश्न वास्तविक युद्ध का नहीं है बल्कि कूटनीतिक और विदेश नीति के स्तर पर इस चुनौती का उत्तर देने का प्रश्न है। पिछले दिनों प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने सुझाव दिया था कि हिमालयी क्षेत्र के देशों और भारतीय प्रांतों में खेल उत्सवों इत्यादि का आयोजन किया जाना चाहिए। कहने का अभिप्राय यही है कि भारत अपने उत्तरी सीमांत को लेकर सजग हो गया है और इस क्षेत्र में चीन के प्रत्यक्ष ख़तरे को उसने समझ लिया है। चीन पाकिस्तान के साथ मिल कर भारत को घेरने की नीति पर काम कर रहा है। यही कारण है कि जम्मू- कश्मीर के गिलगित और बल्तीस्तान में तो उसके सैनिकों ने ही डेरा डाल सिया है। भारत का यह भूभाग पाकिस्तान के क़ब्ज़े है। यदि चीन की नीयत भारत को मित्र मानने की होती तो वह पाकिस्तान से रिश्ता जोड़ते समय इस इलाक़े में कार्य करने से परहेज़ करता। लेकिन चीन ने तो पूर्वी तुर्किस्तान (सिक्यांग) को इस्लामाबाद से जोड़ने वाले काराकोरम मार्ग के नाम पर गिलगित बल्तीस्तान में घुसपैठ का बहाना ढूंढ लिया है।
चीन की इस घेराबंदी का उत्तर नरेन्द्र मोदी ने भूटान और नेपाल के बाद अपनी विदेश यात्रा के लिए जापान का चयन करके दिया है। जापान व चीन की अदावत पुरानी है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से चीन जापान को धमकाने वाली स्थिति में आ गया था। वह बीच बीच में जापान को अपमानित भी करता रहता था। अब तो चीन ने उन द्वीपों पर भी अपना हक़ जताना शुरू कर दिया है जो जापान का भूभाग माने जाते हैं। इसे समय का फेर ही कहना चाहिए कि द्वितीय विश्व युद्ध में पराजित हो जाने के बाद अमेरिका ने जापान को सैन्य शक्ति के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आत्म सम्मान के मामले में भी पंगु बनाने के प्रयास किए और उसे कुछ सीमा तक सफलता भी मिली। अमेरिकी प्रभाव के कारण जापान में विसंस्कृतिकरण की प्रक्रिया अत्यंत तेज़ हो गई। लेकिन जापान ने अपने परिश्रम से आर्थिक उन्नति के बल पर विश्व में अपना सम्मान प्राप्त किया। ज़ाहिर है उसके बाद जापान अपनी पहचान और आत्मसम्मान के लिए प्रयत्नशील होता। जापान की इसी हलचल ने चीन की चिंता बढ़ा दी है। जापान में मानों काल का एक चक्र पूरा हो गया हो। कुछ वर्ष पहले जापान में लोगों ने सत्ता उदार लोकतांत्रिक दल को सौंप दी, जिसे जापान की राष्ट्रवादी चेतना का प्रतिनिधि दल माना जाता है। इस दल के जापान के प्रधान मंत्री शिन्जों एबे देश के खोये राष्ट्रीय गौरव को प्राप्त करना चाहते हैं। दरअसल भारत और जापान दोनों ही यूरोपीय जातियों की साम्राज्यवादी चेतना के शिकार रहे हैं। भारत द्वितीय युद्ध से पहले तक और जापान उस युद्ध के बाद से। आज चीन दोनों को ही धौंस से डराना चाहता है। नरेन्द्र मोदी ने शायद इसीलिए भूटान के बाद जापान के साथ भारत की एकजुटता प्रदर्शित करने के लिए उसे अपनी विदेश यात्रा के लिए चुना।
ऐसा नहीं कि चीन भारत की विदेश नीति में हो रहे इन परिवर्तनों की भाषा को समझ नहीं पा रहा। चीन इतना तो समझ चुका है कि भारत में जो नया निज़ाम आया है वह किसी भी देश से आंख झुका कर बात करने के लिए तैयार नहीं है। चीन सरकार के आधिकारिक अंग्रेज़ी दैनिक ग्लोबल टाइम्स ने इसके संकेत भी दिए हैं। दैनिक के अनुसार चीन ने कुछ समय पहले भूटान के साथ दौत्य सम्बंध स्थापित करने की इच्छा ज़ाहिर की थी लेकिन भारत को इसमें आपत्ति थी क्योंकि भारत चीन को इस क्षेत्र में अपना प्रतिद्वंद्वी मानता हैं। लेकिन चाहता है कि सभी लोग विश्वास कर लें कि मोदी के ये ताज़ा प्रयास पड़ोसी देशों से केवल आर्थिक सम्बंध बढ़ाने के प्रयास हैं। उसका चीन के ख़तरे से कोई सम्बंध नहीं है।
लेकिन चीन इतना तो जानता है कि आर्थिक सम्बंध राजनैतिक सम्बंधों के पीछे पीछे चलते हैं आगे आगे नहीं। मोदी की नेपाल यात्रा ने यह सिद्ध भी किया है। काठमांडू में मोदी को लेकर आम जनता में जितना उत्साह दिखाई दे रहा था, उससे तो ऐसा लग ही नहीं रहा था कि वे किसी दूसरे देश में हैं। नेपाल की संसद में वहां के सदस्यों से सीधा संवाद क़ायम कर मोदी ने चीन के कई साल के प्रयासों पर पानी फेर दिया।
म्यांमार में सैनिक शासन के विरोध में भारत सरकार ने एक प्रकार से उसका बायकाट ही कर दिया था। म्यांमार के प्रति भारत सरकार की इस बेरुख़ी का फ़ायदा चीन ने उठाया और वहां के सत्ता प्रतिष्ठान से घनिष्ठ सम्बंध बना लिए। इसके साथ ही उसने म्यांमार के विकास में भी भरपूर आर्थिक सहायता देनी शुरू कर दी। भारत विरोधी भावनाएं भड़काने में तो वह क्यों पीछे रहता? वैसे पिछले कुछ अरसे से भारत सरकार ने अपनी इस नीति के खोखलेपन को पहचान कर उसे बदलना शुरू कर दिया था। लेकिन जैसी गर्मी, पुरातन सांस्कृतिक सम्बंधों के चलते, दोनों देशों के बीच अनुभव की जानी चाहिए, वैसी उष्मा है नहीं। भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज कुछ दिन पहले म्यांमार जाकर आई हैं और दोनों देशों ने एक नई शुरुआत की है। भारत सरकार की विदेश नीति में बदली इन प्राथमिकताओं को सभी पड़ोसी देश केवल देख ही नहीं रहे बल्कि अनुभव भी कर रहे हैं। इस बदली विदेश नीति से हिमालयी सीमांत क्षेत्रों की सुरक्षा की अवधारणा भी बदली है।

डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

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