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कश्मीर जो कभी शारदा देश था

by डॉ. भवानीलाल भारतीय
in मार्च २०१७, सामाजिक
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कश्मीर जो कभी शारदा देश थाजम्मू एवं कश्मीर राज्य की राजभाषा उर्दू है। इस स्थिति में वहां हिंदी तथा संस्कृत की क्या स्थिति होगी, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है, तथापि विगत युग में यही प्रदेश संस्कृत, काव्य, दर्शन तथा इतिहास के प्रकाण्ड पण्डितों की कर्मभूमि रहा था। कवि बिल्हण ने अपने काव्य ‘विक्रमांकदेव चरित’ में कश्मीर को ‘शारदा देश’ कहा है और सचमुच केसर उत्पन्न करने वाली यह भूमि किसी समय संस्कृत विद्या का केंद्र थी। यहां के आचार्यों ने काव्य की आत्मा का निर्धारण करते समय रस, वक्रोक्ति, ध्वनि आदि का प्रवर्तन किया, वहीं उच्च कोटि की काव्य रचना भी की। प्रत्यभिज्ञा शैव दर्शन का जन्म यहीं हुआ और ध्वनि सम्प्रदाय के ग्रंथ ‘ध्वन्यालोग’ पर ‘लोचन ’ नामक विशद टीका भी यहीं लिखी गई। यहां के संस्कृत रचनाकारों के नाम भी हमारा ध्यान सहज ही आकर्षित करते हैं। एक ओर कल्हण, बिल्हण, जल्हण, शिल्डण आदि ‘ण’ पर समाप्त होने वाले नामों के लेखक हैं, तो दूसरी ओर कैयट, रुद्रट, मम्मट आदि साहित्यकार हैं, जिनके नाम ‘ट’ पर समाप्त होते हैं।
पहले हम यहां के कवियों की चर्चा करें। संस्कृत में ‘योग वासिष्ठ’ एक प्रसिद्ध दर्शन ग्रन्थ है। इसका सार लेकर ‘गौड अभिनन्द’ ने पांच हजार श्लोकों में ‘लघु योग वासिष्ठ’ काव्य लिखा। यह ग्रंथ मूल का पद्यात्मक रूप है, जिसमें अद्वैत वेदान्त की सुगम व्याख्या की गई है। ‘नवसाहसांक चरित’ के लेखक नद्मगुप्त ने अपने आश्रयदाता के यश-वर्णन में इस काव्य की रचना की। यह चरित शैली का उत्कृष्ट काव्य है। कश्मीर के राजा जयादित्य के प्रधान अमात्य दामोदरगुप्त ने वार वनिताओं के हास-विलास को लेकर अपना ‘कट्टनी मत’ नामक काव्य लिखा, जो विषय और शैली की दृष्टि से संस्कृत में अपना पृथक स्थान रखता है। इसमें रुपाजीवा समुदाय के प्रत्यक्ष-परोक्ष नाना प्रकोष्ठी को उद्घाटित किया गया है। भर्तृमेष्ठ नामक कवि ने ‘हयग्रीव वध’ का पौराणिक आख्यान लेकर जो काव्य लिखा, उसमें जो वक्रोक्तियों का चित्रण हुआ, उसकी प्रशंसा आचार्य राजशेखर ने अपने ‘साहित्य मीमांसा’ (काव्य-मीमांसा) नामक ग्रंथ में की है।
क्षेमेन्द्र नामक आचार्य ने जहां काव्य का आधारभूत तत्व औचित्य को माना और अपने मत के समर्थन में औचित्य विचार चर्चा नामक शास्त्र-ग्रंथ लिखा, वहीं उनकी रचनात्मक प्रतिभा का परिचय ‘रामायण मंजरी’ भारत ‘मंजरी’ तथा ‘बृहत्कथा मंजरी’ काव्यों से मिलता है, जिनमें उपर्युक्त इतिहासात्मक महाकाव्यों को सरस काव्य का रूप दिया गया है। काव्य लेखन के अतिरिक्त यहां उपदेश प्रधान काव्य भी लिखे गए। ‘कवि कण्ठाभरण’ तथा ‘सुवृत्त’ भी काव्य विवेचन के ग्रंथ है।
भगवान शिव द्वारा त्रिपुरासुर वध के पौराणिक आख्यान को लेकर ‘श्रीकण्ठचरित’ लिखा गया। ‘विक्रमांकदेव चरित’ के लेखक बिल्हण की कीर्ति उसके इस काव्य द्वारा प्रसरित हुई। उसके अनुसार शारदा देश (कश्मीर) सचमुच भगवती सरस्वती की क्रीडाभूमि रहा है। काव्य में अलंकारों के महत्व को आचार्य भामह ने स्थापित किया था, जिनका ग्रंथ ‘काव्यालंकार’ काव्य में अलंकार -योजना को महत्व देता है। ‘रितिरात्मा काव्यस्य’ का सूत्र आचार्य वामन का है, जो काव्य में रीति को काव्य की आत्मा ठहराते हैं और गौडी, पंचाली, वैदर्भी आदि काव्यरीतियों का सूक्ष्म विवेचन करते हैं। आचार्य रुद्रट ने अलंकारों का विभाजन और वर्गीकरण वास्तव्य औपम्य तथा श्लेष नामक तत्वों के आधार पर किया। आचार्य आनन्दवर्द्धन ने ध्वनि को काव्य की आत्मा बताते हुए ‘धन्वन्यालोक’ ग्रंथ लिखा, जिस पर आचार्य अभिनवगुप्त की ‘लोचन’ नामक प्रसिद्ध टीका है। ‘व्यक्ति विवेक’ का रचयिता महिम भट्ट तथा ‘अलंकार सर्वस्व’ के प्रणेता रुय्यक भी कश्मीर के ही थे।
अन्तत: रस को काव्य की आत्मा ठहराया गया और आचार्य मम्मट ने अपने प्रख्यात ग्रंथ ‘काव्यप्रकाश’ में रस निष्पत्ति का जो विवेचन किया, उससे सिद्ध हो गया कि दोषरहित, गुण संयुक्त तथा यदा-कदा, यत्र तत्र अलकारों से युक्त अथवा उनकी स्थिति न रहने पर भी रसानुभूति होती है।
‘तद्दोषीशब्दार्थी सगुणावनलंकृति पुन: क्वापि’ यह मम्मट से प्राप्त काव्य की निर्दोष परिभाषा है, जिस पर आगे चल कर भट्ट लोल्लट, आचार्य शंकुक तथा अभिनवगुप्त ने अपनी अपनी व्याख्याएं प्रस्तुत की है।
प्राय: कहा जाता है कि संस्कृत में इतिहास ग्रंथों का नितांत अभाव है; किन्तु इस आक्षेप का प्रत्याख्यान करने में कल्हण का प्रसिद्ध ग्रंथ ‘राजतरंगिणी’ ही पर्याप्त है। कश्मीर के राजा हर्षदेव के प्रधान मंत्री कल्हण ने इस ग्रंथ में कश्मीर के राजाओं की शासन पद्धति तथा तत्कालीन स्थितियों की विवेचना की ही, उस समय मे प्रचलित धर्म तथा समाज व्यवस्था की स्थिति का भी उल्लेख किया है। निश्चय ही कश्मीर की धरती यदि अपनी प्राकृतिक सुषमा के कारण सब को आकृष्ट करती है, तो यहां के कवियों लेखकों तथा आचार्यों का रचना कौशल तथा विद्या व्यासंग भी इस देश की ख्याति का प्रमुख कारण रहा है।

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