विस्थापन, विस्थापन, विस्थापन!

जरूरी है कि विस्थापन की पीड़ा को समझा जाए। विडंबना यह है कि अपने विस्थापन की पीड़ा को तो लोग समझते हैं, लेकिन दूसरों के विस्थापन के लिए अंधे, गूंगे और बहरे बन जाते हैं।
नौकरी में तबादले आम बात है। एक शहर से दूसरे शहर की बात तो दूर, एक ही शहर में एक कार्यालय से दूसरे कार्यालय की बात भी दूर, एक तल से दूसरे तल पर तबादला होता है, तो लोग बेहाल हो जाते हैं, चेहरे की चमक गायब हो जाती है। माना तबादला भी एक विस्थापन है, लेकिन एक सुरक्षित विस्थापन। स्वयंस्वीकृत व्यवस्था के अंतर्गत संविदा सच्चलित विस्थापन।
उस विस्थापन की सोचिए, जो आरोपित है, जो हठात है, जो व्यक्ति का अपना चयन नहीं है, जो असुरक्षा और अनिश्चितता की संविदा लेकर आया है, जो दहशत और बहशत की जुगलबंदी का परिणाम है, जो भीतर की आस्था विशवास को तार तार करता है, जो विपन्नता और अवशता का अभिशाप लेकर आता है।
भारत स्वतंत्र हुआ। उस समय का विस्थापन कितना भयानक था। कितना निरीह लुटा-पिटा जीवन! उस विस्थापन को हमने देखा लेकिन उस जलजल भरे माहौल में विस्थापितों के प्रति हमदर्दी थी; उनके पक्ष में खड़े होने वाले लोग थे; उनकी पीड़ा को कम करने के उपाय और योजनाएं भी थीं।
१६६४ की बात है। एक दिन वरिष्ठ रंगकर्मी सतीश मेहता का फोन आया। उन्होंने सूचना दी कि कश्मीर के विस्थापितों के कैम्प का एक कैसेट दिल्ली से आया है। कल तक ही यह कैसेट मेरे पास है। आप आकर उस कैसेट को जरूर देखिए। मैं सतीश के घर गया और वहा मैंने वह कैसेट देखा। देखा तो सन्न रह गया। श्रीमती मेहता द्वारा सेवा सत्कार में रखी चीजें बेस्वाद हो गईं। एक बार मैं फिर विभाजन के समय में पहुंच गया। जगह-जगह लगे शरणार्थी कैम्पों की याद ताजा हो गई। तभी मैंने कैम्प में रह रहे विस्थापितों की ओर से कुछ कविताएं लिखीं।
भारत विचित्र देश है। इस बहुआयामी विचित्रता में एक विचित्र आयाम हैं हमारे बुद्धिजीवी। एकाक्षी! एकांगी! कभी मूक, कभी वाचाल! ये बेचारे लंगड़े। एक दूसरे की पीठ खुजाने में माहिर। देश के आर्थिक विकास के कारण बांध या उद्योग को लेकर होने वाले विस्थापितों के अधिकारों की पंचम स्वर में गुहार मचाने वाले कण्ठ, कश्मीर के पण्डितों के विस्थापन पर चुप्पी साध ले रहे हैं। कभी चुप्पी, कभी दहाड़ की नीति अपनाने वाली पंथनिरपेक्ष शक्तियों की इहलीहा भी ऐसी ही है। भारत भवन (भोपाल) में ‘समकालीन भारतीय साहित्य चिंतन’ के एक कार्यक्रम में जम्मू से क्षमा कौल आईं और उन्होंने कश्मीर के आतंक और विस्थापन के संदर्भ में अपना जो वक्तव्य दिया, उसे सुनते-सुनते लोगों की आंखें भर आई थीं।

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