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कश्मीर की व्यथा कथा

by रामसिंह शेखावत
in मार्च २०१७, सामाजिक
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यह तय हो गया कि भारत विभाजन होगा। लार्ड वेवेल विदा हो गए और लार्ड माउंटबेटन ने भारत के वायसराय का पद मार्च के अंत में संभाला। २ मई १९४७ को नए वायसराय ने अपने प्रस्ताव इंग्लैंड भेजे और १० मई १९४७ को उन्हें ब्रिटिश सरकार की स्वीकृती मिल गई। योजना केवल लाडर्र् माउंटबेटन को और उनके स्टाफ सदस्यों को ही मालूम थी, भारत की किसी भी पार्टी के सदस्य को ज्ञात नहीं थी।
३ जून १९४७ को ब्रिटिश पार्लमेंट ने भारतीय स्वतंत्रता कानून पास कर दिया। एक प्रेस कान्फ्रेन्स में लार्ड माउंटबेटन ने घोषणा कर दी कि जून १९४८ से पहले (१५ अगस्त १९४७) को सत्ता भारतीयों को सौंप दी जाएगी।

विभाजन का जो मसौदा तैयार था उसमें कहा गया था कि भारत और पाकिस्तान का एक ही गवर्नर जनरल होगा लार्ड माउंटबेटन, किन्तु जिन्ना ने विरोध किया, उन्होंने कहा पाकिस्तान का गवर्नर जनरल मैं स्वयं रहूंगा। इस प्रकार लार्ड माउंटबेटन तो भारत के गवर्नर जनरल स्वीकारे गए और पाकिस्तान के गवर्नर जनरल बन बैठे मोहम्मद अली जिन्ना।

अगस्त उत्तर भारत में बरसात का मौसम था, कश्मीर में किसी भी प्रकार के कागज पर छापी जाने वाली प्रचार सामग्री के गल जाने की संभावना थी। जिन्ना ने रेशमी कपड़े पर छपी जिहादी सामग्री हवाई जहाजों से कश्मीर में फिकवाई, इन्हें पढ़ कर कश्मीर के मुसलमान नागरिक व फौजी जिहाद की तैयारी में जुट गए।

कश्मीर जाने के लिए भारत से कोई स्थल मार्ग नहीं था। सारे मार्ग पाकिस्तान होकर थे। पाकिस्तान ने शक्कर, केरोसिन, चाय आदि की कश्मीर को सप्लाई रोक दी और आक्रमण के पूर्व कश्मीर की बिजली सप्लाई भी काट दी। कश्मीर को पकिस्तान में मिलाने के सारे कूटनीतिक प्रयासों के विफल होने पर २२ अक्टूबर १९४७ को कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। तेजी से हमलावर श्रीनगर की ओर बढ़े। कश्मीर के स्थानीय मुसलमान जिहादियों, पुलिस वालों और फौजियों ने कश्मीर की हिन्दू पुलिस, हिन्दू फौज और हिन्दू नागरिकों का कत्लेआम शुरू कर दिया। कई ग्रामों में डोगरा राजपूत शस्त्र रखते थे, इन्होंने मुकाबला किया और स्त्री बच्चों को ले इकट्ठेे होने लगे। तभी हथियारबंद कबायली और पंजाबी जिहादी आ धमके। जहां संभव हो सका हिन्दुओं ने अपने बच्चों को जम्मू की ओर रवाना कर दिया, जहां संभव नहीं हुआ वहां अपने हाथों अपने छोटे बच्चों व स्त्रियों को मार दिया। गांव-गांव में जौहर होने लगे, महिलाएं चिताएं सजा स्वयं भस्म होने लगीं। कश्मीर में गांव-गांव में शाखाएं लगने लगी थीं। गांवों के राजपूत, सिख और संघ के स्वयंसेवक आखरी सांस तक कश्मीर के देशद्रोही मुसलमानों, कबाइलियों और खाकसार जिहादियों का मुकाबला करते रहे। ट्रकों में भरके कबायली और पाकिस्तानी फौजी आते, ट्रक से उतरते और मरने से बची हिन्दू औरतों को लौटते ट्रकों में भर सीमा पार रवाना कर देते। सीमा प्रांत की दीर, श्वात और चित्राल रियासतें कश्मीर के महाराजा को खिराज (कर) देती थीं, जिन्ना ने स्वात के वली को सारा कश्मीर सौंप देने का वचन दे भारी मात्रा में कबायली इकट्ठे किए थे।

शेख अब्दुल्ला और उसके साथी जेलों में बंद थे, नेहरूजी की सलाह पर कश्मीर महाराज ने सितंबर के अंत तक सभी को रिहा कर दिया। जेल से छूटते ही शेख अब्दुल्ला अपनी ससुराल इन्दौर भाग आया। कश्मीर में भारतीय सेना के पहुंचते ही वह श्रीनगर लौट गया। नेहरूजी की सलाह पर महाराज ने उसे कश्मीर का प्रधान मंत्री बना दिया।

२४ अक्टूबर को कबायली लोगों ने मुजफ्फराबाद पर कब्जा कर लिया और श्रीनगर की ओर बढ़े। विलय पर हस्ताक्षर के पूर्व २५ अक्टूबर को वायु सेना और स्थल सेना का एक स्टाफ स्थिति का जायजा लेने श्रीनगर गया। इसी दिन संध्या को स्थल सेना को आदेश दिया गया कि विलय पत्र पर हस्ताक्षर होते ही सेना विमान द्वारा कश्मीर में उतरेगी। २७ अक्टूबर की संध्या को सैनिकों से भरे विमान श्रीनगर उतरने लगे। श्रीनगर के संघ के स्वयंसेवकों, डोंगरा राजपूतों और सिखों के भारी बलदिान के बाद कबायली, भारतीय सेना के प्रत्याक्रमण से पीछे हटने लगी।

कश्मीर की देशद्रोह मुस्लिम लॉबी

कश्मीर में लगातार मार खाकर भागते कबायलियों को देख पाकिस्तान को कश्मीर हाथ से निकलता दिखा तो उसने पाकिस्तानी सेना को भी बिना ड्रेेस कबायलियों के साथ जंग में उतार दिया। अब कांटे की टक्कर होने लगी। कश्मीर-भारत के बीच कोई पुल-सड़क नहीं थी, विमानों पर ही निर्भरता थी। विमान से ही सैनिक और गोला बारूद आता और लौटते विमान से घायलों और मृत सैनिकों की देह भेजी जाती। आने जाने वाले विमानों का तांता लगा था। कश्मीर की मुस्लिम सहकारी चरखा संघ जैसी संस्थाओं ने कश्मीर प्रशासन से एक मांग रखी, हमारे सेव फल सड़ रहे हैं, माल पाकिस्तान जा नहीं सकता तो विमान से भारत भेजा जाय। वहां बिकेगा तो गरीबों की भूख मिटेगी। कश्मीर के प्रधान मंत्री थे शेख अब्दुल्ला, नेहरूजी ने सेना के भी हाथ बांध रखे थे, उसे शेख अब्दुल्ला का कहना मानना बाध्यता थी। अब खाली विमान, घायलों और मृतकों की देह रख जब उड़ने को होता तो ट्रकों में फल भर मुसलमान व्यापारी खड़े हो जाते, फुर्ति से नहीं आराम से माल भरते, धीरे-धीरे … मंशा यही थी कि भारत से सैनिक और सैनिक सामग्री को आने से जितना रोका जा सके रोको।

फिर देशद्रोही लॉबी ने दूसरी मांग रखी सैनिकों और सैनिक सामग्री के साथ विमान में नागरिकों के लिए शक्कर, केरोसिन, चाय आदि भी लाया जाय। पठानकोट हवाई अड्डे पर भी देशद्रोही-मुसलमान हमाल तैयार थे कि माल भरने में जितना विलम्ब किया जा सके करो। आते-जाते विमानों में जानबूझ कर किए जा रहे विलम्ब को देख हिन्दू अधिकारी सिर पीट रहे थे, किन्तु क्या कर सकते थे? आदेश था शेख अब्दुल्ला का प्रत्येक आदेश मानना सेना की मजबूरी थी।

भारत के हथियार भारत के ही विरुद्ध

शेख अब्दुल्ला की पार्टी का नाम था मुस्लिम कान्फ्रेन्स। यह आर.एस.एस. की तर्ज पर खड़ा किया गया जन सैनिक संगठन था। नेहरूजी के सुझाव पर शेख ने इसका नाम बदल कर नेशनल कान्फ्रेन्स रख दिया था। शेख अब्दुल्ला ने नेहरूजी को कहा कि मेरे स्वयंसेवक भी कबाइलियों और पाकिस्तानी सेना से लड़ने को उतावले से हो रहे हैं। उनके पास हथियार नहीं हैं। इनके लिए भी बन्दूकें और गोलाबारूद विमानों से भेजा जाय। फिर देर क्या लगनी थी नेशनल कांफ्रेन्स के लिए विमानों से गोलाबारूद आने लगा। नेशनल कान्फ्रेन्स को दिया गया गोलाबारूद और बंदूकें दुश्मन को पहुंचाई जाने लगीं। इस पर भी शेख अब्दुल्ला और बक्शी गुलाम मोहम्मद ने नेहरूजी से शिकायत की कि नेशनल कान्फ्रेन्स के स्वयंसेवकों के लिए भेजा गया गोलाबारूद और बंदूकें सैनिक अधिकारियों ने आर.एस.एस. के लोगों में बांट दी हैं। ये लोग मुसलमानों पर हमले कर रहे हैं। शेख और बक्शी ने संघ के एक अधिकारी सहित एक आर्य समाजी नेता और एक सिख अधिकारी पर हथियार प्राप्त करने के आरोप लगाए।

जब कश्मीर में लड़ाई चल रही थी, तब कश्मीर के देशद्रोही मुसलमानों और कबाइलियों का एक समूह उत्तरी लद्दाख पर कब्जा करते हुए लेह तक जा पहुंचा। अब कबाइली तोपों और मोर्टरों का भी उपयोग कर रहे थे, जो इस बात का प्रमाण था कि ये पाकिस्तान ने उन्हें दिए थे और चलाने वाले पाकिस्तान के प्रशिक्षित सैनिक थे। किन्तु पासा पलट चुका था। ब्रिगेडियर उस्मान के नेतृत्व में भारतीय सेना काफी जनहानि और गोलाबारूद नष्ट करके भी पाकिस्तानी सेना और कबाइलियों को एक घाटी में घेर लाई थी। एक ओर थी सपाट पहाड़ की ऊंची दीवार, एक छोटा सा पैदल मार्ग, उसके बाद हजारों फुट गहरी खाई।

ब्रिगेडियर उस्मान ने कहा- मेरे काफी सैनिक मारे जा चुके हैं, गोलाबारूद खत्म होने के करीब है, यदि ऐसे समय मात्र एक विमान मिल जाय तो दुश्मन पर गोले बरसा कर चूहेदानी में फंसे पाकिस्तानी भून दिए जाएंगे। पीछे से मेरे सैनिक गोलियां बरसाएंगे। भगदड़ में पाकिस्तानी गहरी खाई में गिरेंगे और कोई नहीं बचेगा। यह मोर्चा हमने फतह कर लिया तो अगला मोर्चा मुजफ्फराबाद जीतना हमारे लिए आसान होगा। भारतीय वायुसेना एक डकोटा विमान देने को तैयार हो गई। विमान में बम भर लिए गए। श्रीनगर से विमान उड़ने के पूर्व ही लार्ड माउंटबैटन विमान से बम वर्षा के खिलाफ अड़ गए कि बम वर्षा न की जाय, क्योंकि विमान के पहाड़ोंे से टकराने का डर है। हमारा विमान भी न होगा और पायलट व सैनिक मारे जाएंगे।

बम वर्षा नहीं हुई, पाकिस्तानी सैनिकों ने पलट वार किया। खूंखार भीषण युद्ध हुआ और हमने हजारों सैनिकों के साथ ब्रिगेडियर उस्मान को भी खो दिया। पाकिस्तानी कश्मीर से न निकाले जा सके। लार्ड माउंटबैटन का कार्यकाल समाप्त होने को था। वे भीतर ही भीतर पाकिस्तान के हितैषी थे। जाते जाते उन्होंने नेहरूजी को एकतरफा युद्ध विराम की सलाह दे डाली। भारतीय सेना ने गोलाबारी बंद की। कश्मीर का मामला राष्ट्रसंघ में ले जाया गया। यू.एन.सी.आई. ने १३ अगस्त १९४८ को युद्ध विराम का प्रस्ताव रखा जिसे भारत ने स्वीकार कर लिया किन्तु पाकिस्तान ने स्वीकार नहीं किया। शेख अब्दुल्ला लगातार नेहरूजी को महाराज हरीसिंह, कश्मीर के डोगरा राजपूतों, आर्य समाज और आर.एस.एस. के खिलाफ लिख कर भड़काता रहा। नेहरूजी उसकी बात मानते रहे। महाराजा ने मीरपुर के उजड़े हिन्दुओं के लिए ३०,००० रुपये दान में दिए थे। तीन लोगों की एक कमेटी बनी थी। कर्नल बलदेवसिंह पठानिया इसके अध्यक्ष थे जो जम्मू के चीफ इमर्जेंसी अधिकारी भी थे, दूसरे लाला दीनानाथ महाजन, (राज्य की प्रजा सभा के सदस्य) तीसरे एक सुविख्यात नागरिक जो आर.एस.एस. के अधिकारी थे। इस फंड को भी मुसलमानों की हत्या का धन बताया गया।

बक्शी गुलाम मोहम्मद ने आरोप लगाया था कि जो हथियार हमारे मुस्लिम होमगार्डों को मिलने थे वे आर.एस.एस. को दिए गए हैं। इन हथियारों के बारे में न महाराजा को पता था न राज्य के सैन्य सलाहकारों को। पता लगा कि ये हथियार मेजर जनरल कुलवंत सिंह को भेजे गए थे और वे बक्शी गुलाम मोहम्मद को देते रहे थे। सच बात यह थी कि राज्य द्वारा खड़ी की गई नागरिक सेना में आर.एस.एस. के स्वयंसेवक भी थे। इस सारी सेना की कमान शेख अब्दुल्ला के हाथ में थी। नेहरूजी पर शेख अब्दुल्ला का जादू चलता रहा। महाराजा कश्मीर से निकाले गए और मृत्यु के पूर्व कश्मीर देखने की उनकी याचना भी नहीं स्वीकारी गई। आर.एस.एस. पर घाटी में प्रतिबंध लगा।
कब होगा ऐसा?

जब एक स्वर से भारत की संसद कहेगी, कश्मीर हमारा अंग है, शांति के लिए हम राष्ट्रसंघ गए थे, शांति नहीं मिली। अब हम बर्दाश्त नहीं करेंगे। यदि अब पाकिस्तान ने कोई हरकत की तो, भूमि हमारी है हम आगे बढ़ कर शत्रु को मारेंगे और भूमि को मुक्त करेंगे। हम कोई पाकिस्तान की भूमि पर अतिक्रमण करने नहीं जा रहे। फिर हरकत हुई तो और आगे बढ़ते जाएंगे जब तक अशांति फैलाने वाले हमारी भूमि खाली नहीं कर देते।

क्या संसद में कोई ऐसा होगा जो सेना की इस कार्रवाई का विरोध करेगा? अपनी भूमि की मुक्ति का विरोध करेगा? कश्मीर में शांति स्थापना का विरोध करेगा? जिस संसद ने एक स्वर से कहा है कि पूरा कश्मीर हमारा है और पाक अधिकृत कश्मीर भी हम मुक्त करके रहेंगे। आज भी सांसद एक स्वर से कहें कि एक स्थान से भी गोली चलने पर घुस कर मारेंग,े उपद्रवग्रस्त क्षैत्र हम मुक्त करेंगे, शांति अपने आप स्थापित हो जाएगी। पाकिस्तान इस पर भी नहीं माना तो समाप्त हो जाएगा, बलोचिस्तान आजाद होगा, सिंध का जोधपुर रियासत वाला अमरकोट का इलाका भारत में मिल जाएगा। सीमा प्रांत के पठान आजाद होंगे, सिंध आजाद होगा, कश्मीर भारत में लौट आएगा और रह जाएगा पाकिस्तान के नाम पर पंजाब का छोटा सा मेमना। तब भारत का धन गोलाबारुद पर नहीं विकास पर खर्च होगा और भारत पुनः विश्व गुरू बनेगा।

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