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विश्वगुरु हो भारतअपना

by प्रमिला मेंढे
in जून २०१७, सामाजिक
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भारत ईश्वर की प्रिय भारतभूमि है । इसलिए भारत का जीवितकार्य संभ्रमित विश्व का मार्गदर्शक अर्थात् गुरुहै। जहां स्वार्थ, स्पर्धा एवं लोभ का निर्माण होता है, अति भौतिकता प्रभावी होती है तो वहां ईश्वर प्रकट नहीं होता है।

वर्तमान विश्व का परिदृश्य ऐसा है कि विविध प्रकार की भौतिक, वैज्ञानिक प्रगति के उच्चांक अनेक देशों ने, भारत ने भी प्रस्थापित किये हैं। गिनीज बुक में वे सम्मिलित किये गये हैं, अतः प्रतिष्ठा भी प्राप्त की है। परंतु एक कमी है-वह है आपसी स्नेह- विश्वास, अपनापन और मन की शांति। अनाज के कोठार भरे हैं। हम विविध ग्रहों पर पहुंच रहे हैं। क्षणभर में विश्वभर में भी कोई वार्ता पहुंच सकती है, ऐसा तंत्रज्ञान विकसित हुआ है। सारी समृद्धि है, परंतु मन:शांति नहीं है तो उस समृद्धि का कोई अर्थ नहीं। यह समृद्धि, सत्ता के कारण नहीं अपितु दैवी जीवनमूल्यों की प्रतिष्ठापना से मिलती है, सभी को प्रेरणादायी बनाती है। यही गुरुपद है।

खोज सुखी व्यक्ति के कुर्ता की एक राजा था। सत्ता, सम्मान, समृद्धि सब कुछ था। परंतु मन में अशांति थी। बहुत इलाज हुए परंतु लाभ नहीं हो पाया । एक दिन दरबार में एक फकीर आया, उसने बताया कि किसी सुखी व्यक्ति का कुर्ता राजा को दे दो, उसे पहनाओ – राजा को शांति-सुख मिलेगा। तुरंत चारों दिशाओं में राजा के सेवक, सरदार दौडे। किसी को भी सुखी व्यक्ति नहीं मिला। अब क्या करें? घूमते-घूमते राजा के सेवक-सरदार एक पवनचक्की के पास पहुंचे, वहां एक व्यक्ति मस्ती में गा रहा था, खुशी में झूम रहा था, नाच रहा था।
‘महोदय, आप कितने सुखी, आनंदित हो, कारण क्या है?’
‘हां, मेरे जैसा सुखी कोई नहीं है ऐसा मुझे लगता है, दिन भर भू माता, जल देवता की सेवा करता हूं । गाय, भैंस को चराता हूं, शाम को घर जाकर सबके साथ गीली-सूखी रोटी खाता हूं, आराम से सो जाता हूं । सोने से पहले भगवान को बताता हूं,
‘मैंने दिनभर आँखों से जो भी देखा तेरा रूप था, मुंह से जो भी बोला तेरा ही नाम, हाथों से जो कुछ किया तेरा ही काम था। ना किसी का द्वेष, ना किसी से स्पर्धा,न मेरा किसी से न किसी का मेरे से । अब शांति से सो जाऊंगा। मर्जी है तो तेरा काम करने के लिए पुन: सुबह जगाना।’
सरदार बहुत खुश हुए, कहा – ‘महाराज, आपसे प्रार्थना है – हमारे राजा साहब बीमार हैं – उनको सुखी व्यक्ति का कुर्ता चाहिये । चाहे जितना धन लो, पर आपका एक कुर्ता या शर्ट दे दो, पुराना है तो भी दे दो ।
वह आदमी हंसने लगा -‘भय्या, मेरे पास तो कुर्ता ही नहीं है। कहां से दू?’
अब सरदार जनों को सुख का अर्थ समझ में आया। सुख सत्ता-संपत्ति में नहीं, जप-मंत्र में नही, मन की सर्वश्रेष्ठ धारणा में हैं । यही भारत का महत्तम जीवन सिद्धांत है। यही भारत को विश्वगुरु बना सकता है। सारा विश्व जीतने के बाद अब जीतने के लिये कुछ नहीं बचा इस लिये दुखी होनेवाला सिकंदर हम जानते हैं। ‘तुम्हारा भारत मे जाना धर्मयात्रा होना चाहिये, विजययात्रा नहीं। सत्ता प्राप्ति से समाधान नहीं मिलता,‘ यह गुरु समझाते हैं।

आज सारा विश्व सत्ता-साधन-संपत्ति की विपुलता होने के पश्चात् भी, मन से सुखी नहीं है । जिस पर विश्वास रखें, अपना मानें, स्नेह दें-लें ऐसा कोई नहीं है । भौतिक विकास की दौड़ में यह पीछे ही छूट
गया। मन का समाधान है, अपना कोई है, मैं किसी का हूं, इस भावना में। मन का उदात्तीकरण करने का मार्ग भारत के योगविज्ञान में है। इसी कारण आज २१ जून को आंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया जाने लगा है।
यही भारत का विश्वगुरुपद है।

मुझे अगला जन्म भारत में ही मिले
हमारे अहिल्या मंदिर में १० वर्ष पूर्व स्वीडन की ‘हिस्ट्री ऑफ रिलिजन्स’ की विभाग प्रमुख श्रीमती इवा हेलमन आयी थी । हमारे बीच, हम जैसी- हमारी होकर रही । एक दिन मेरे पास आयी और कहा ‘प्रमिलाताई, मेरे लिये आप भगवान से प्रार्थना करो की मुझे अगला जन्म भारत में ही मिले ।’ मैं आश्चर्यचकित हो गयी – ‘इवा, तुमको ऐसा क्यों लगता हैं ? हमारा भारत तुम्हारे देश जैसा वैज्ञानिक क्षेत्र में, औद्योगिक क्षेत्र में, आर्थिक क्षेत्र में या पर्यावरण स्वच्छता में प्रगतिशील नहीं है । यहां गरीबी है, अशिक्षा है, यहां शिष्टाचार नहीं है-हर क्षण सॉरी, थैंक यू कहने का । तब उसने कहा, ‘मेरे देश में वह सब कुछ है – परन्तु यहां मैंने जो सहज स्नेह-अपनापन देखा, एक दूसरे से भावनात्मक दृष्टि से जुड़ा हुआ देखा, एक दूसरे की सुविधा असुविधा की, स्वास्थ्य की, सेवा की चिंता करते हुए देखा ; यह निरपेक्ष स्नेह – सेवाभाव मेरे देश में नहीं है। सब प्रोफेशनल सोच है, लाभप्रधानता पर आधारित। यहां छात्रावास में मैं देखती हूं, कोई बीमार है तो अन्य बालिकाएं उसके पास जाकर सर दबाती हैं, दवा पिलाती हैं, वह खाने-पीने में अपनी अनिच्छा बताती है तो कोई दाल-चावल लाकर प्रेम से, आग्रह से खिलाती हैं। ‘इतना सा तो खाओ,‘ ऐसा प्यार से बोलती हैं। मेरे यहां कभी-कभी मैं युनिवर्सिटी से तनावपूर्ण मानसिकता से आती हॅूँ, मेरी नौकरानी मेरे पास के टेबल पर चाय लाकर रखकर कहेगी, ‘मैडम चाय।‘ कुछ मिनिट बाद देखती है कि मैंने चाय नहीं पी तो चुपचाप वह कप उठायेगी, चाय बेसिन में फेंककर कप धोकर रखते हुए बोलेगी, ‘मॅडम,जा रही हूं।

भारत का जीवितकार्य धर्म
श्री चमनलालजी की एक पुरानी पुस्तक ‘इंडिया दि मदर ऑफ ऑल’। उसमें उन्होंने लिखा है, कि विश्व का दैवी प्रकटीकरण हुआ तब ईश्वर ने प्रत्येक भूखंड को उसका जीवित कार्य सौंपा। किसी को कला, किसी को उद्योग, किसी को सौंदर्य, आदि-आदि। उसके ध्यान में आया की कुछ निःस्वार्थ तपस्वी लोग विश्व कल्याण के लिए तप कर रहें हैं और उसने उस भूखंड को नाम दिया भारत – जीवितकार्य दिया ‘धर्म‘। धर्म अर्थात् उदात्त कर्तव्य की, एकता, एकात्मता की भावना, जीवनमूल्य में ईश्वरीय गुणसमूह – संवेदनशीलता, स्नेहभावना युक्त सतर्क सक्षम संरक्षण व्यवस्था। विश्व का जब तक अस्तित्व है तब तक इन गुणों का अधिष्ठान चाहिये ही, अन्यथा अव्यवस्था निर्मित होगी। कर्तव्यभाव कमजोर होने के कारण अधिकार भावना पनपेगी। भारत अपनी भूमिका भूल जायेगा तो विश्व में धर्म कमजोर होगा, अधर्म बढ़ेगा, स्पर्धा जानलेवा होगी, मनुष्यत्व नष्ट होगा । भारत सत्ता भी प्राप्त करेगा तो धर्म की प्रतिष्ठापना के लिये। राज्यारोहण समारोह में राजमुकुट धारण करने के पश्चात् वह कहता था कि ‘अब मुझे कोई दंड नहीं कर सकता’, तब राजगुरु अपने धर्मदंड का स्पर्श उसके सिर को करके कहता था कि धर्मदंड्योऽसि। धर्म सर्वोपरि है।

समुद्र में दीपस्तंभ होता है, वह सागर लहरों की चपेटें खाता है परंतु दिशा दर्शाने का काम करते ही रहता है । स्वयं कष्ट झेलते हुए निरपेक्ष भाव से दिशा दिखाना, संभाव्य धोखे संकेत रूप से बताना, अपने पास जो-जो अच्छे, श्रेयस सिद्धान्त हैं, वे सभी मित्र भावना से अपने शिष्यों को देना, उनका सतत अभ्यास कर व्यवहार में लाने हेतु प्रेरणा देते रहना, यह भारत की गुरु की संकल्पना है । इसी लिये भारत को विश्वगुरु कहा जाता है। महासत्ताबनकर स्वयं के लिये सब बटोरकर अन्यों को अहंभाव से ठुकराना, भारत का ध्येय कभी नहीं था- कभी नहीं रहेगा। यही गुरु का कार्य है । स्वयं की सुरक्षा जैसी ही अन्यों की सुरक्षा का विचार मन में आना; यही है गुरु का कर्तव्य।

उपनयन के पश्चात् छात्र, गुरु के आश्रम में जाता था तब अकेलापन अनुभव करता था, असुरक्षा का, भय का भाव मन में रहता था, उस अवस्था में गुरु कहते थे- डरो मत, मै हूं ना तुम्हारे साथ, एक साथ चलेंगे, एक साथ भोजन करेंगे, एक साथ पढेंगे, बुध्दि तेजस्वी होगी पर उसमें ईर्ष्या, स्पर्धा का भाव नहीं आने देंगे। परस्पर सहयोग से राष्ट्र गौरवार्थ, मानव समाजहित में ही पौरुष दिखाएंगे। राष्ट्रप्रतिष्ठा को बढाएंगे। राष्ट्र की, सृष्टि की श्रेष्ठता- महानता बढ़ाएंगे। – केवल स्वयं के उपभोग के लिये नहीं, क्योंकि मैं – तुम – यह चराचर विश्व, सभी ईश्वरीय अंश होने के कारण आपस में जुड़े हैं – सहसंवेदना के कारण सुख-दुःख समान हैं। यह परस्पर संलग्नता ही जीवन को आश्वस्त करती है। निर्माण के क्षण से व्यक्ति, पशु, पक्षी, पौधे का विकास प्रारंभ होता है – वह विकास भी नैसर्गिक रूप से होना चाहिए। पौधा लगाते समय ही तय करना है, कौन से पौधे की आवश्यकता है। अतः उसके विकास की चिंता की जाती है । अगर अन्य देशों से कुछ लेना भी है तो उसको भारतीय परिवेश देकर ही स्वीकारें। स्वाभाविक पद्धति से वह बढ़े-उसका विकास हो-कोई बाधा नहीं आए, यह देखना हमारा अर्थात् समाजिक घटकों का दायित्व है। मानवी स्पर्श का महत्व प्रेय नहीं श्रेय है। प्रेय से श्रेय का महत्त्व, भारत का अध्यात्म, ही विश्व में फैलाना है।

विश्व के लिये मैं
अपनी भूमि का स्वाभाविक विकास ही भारत के विकास की कल्पना है। अपने स्वार्थ, लाभ के लालच के कारण कृत्रिम, प्रकृति विरोधीसाधनों का उपयोग करना, भारत का चिंतन नही। भूमि, नदी, पहाड़, पशु-पक्षियों में ईश्वरत्व देखने के कारण उनका सम्मान करनेका पाठ यहां मिलता है। ’यह विश्व केवल मेरे लिये ही है-कौन मुझे रोकता है’ वाली भावना से स्वामित्व की भावना निर्मित होती है, परंतु आपस में बांटकर ही कोई चीज लेना, यह भारतीय विचार है। ‘विश्व के लिये मैं’ यह भावना क्षीण होती है ।

भूमि में स्वाभाविक उर्वरा शक्ति होती है । परंतु रासायनिक खादों का प्रयोग कर अतिलोभ से अधिकाधिक उत्पादन लेना, भूमाता पर अन्याय है । कुछ समय तक तो वह अधिक उत्पादन देती है परंतु बाद में रुक ही जाती है। हमारी जमीन की उर्वरा शक्ति और उसके स्वाभाविक गुण नष्ट न होने पाएं,यह देखना चाहिए। एक कृषि विशेषज्ञ अमेरिका में अपने बेटे के पास गये। जाते समय श्रेष्ठ दर्जे के चावल के धान का बीज ले गए। शास्त्रोक्त पध्दति से उसे बोये। आखिर कृषि विशेषज्ञ थे ही। फसल तो आयी परंतु यहां जैसा स्वाद और गंध नहीं था। हमारी भूमि आध्यात्मिक प्रकृति की है पर बाकी स्थानों की भौतिक प्रकृति की है। अतः चकाचौंध से प्रभावित होकर अंधुनकरण करना कितने दुष्प्रभाव का निर्माण करता है इसका अनुभव हमने लिया है।

महत्त्व की बात – विदेशों के जैसे विकास की हर बात हम सरकार का दायित्व मानने लगे है। शासन तंत्र क्या है, सब जानते है। इस लिये वह कुचक्र तोड़ने हेतु हम नागरिक गण ही अधिकतम व्यवस्था करें। शासन केवल आवश्यक सुविधा उपलब्ध कराए।एक विशेष ध्यान देने लायक बात है कि सभी उत्पादन केंद्रों पर अपने उत्पादन को कितना निर्माण खर्च आया, उस पर कितना उचित लाभ लेना है? यह निर्धारित करने का अधिकार उत्पादक के पास होना चाहिए। उसी तरह हर कृषिकेंद्र में स्थानीय लोग किसानों के साथ बैठकर उनके उत्पादन का विक्री मूल्य (दर) निश्चित करें। विक्री के बाद उसकी राशि किसान को सहजता से मिले। किसान कोई भिखारी नहीं कि उसको अपने न्यायोचित पैसे के लिए दर दर ठोकरें खानी पड़ें। वर्तमान शासन तो इसके बारे में गंभीरता पूर्वक सोच रहा है। फिर भी किसानों की आत्महत्या गंभीर राष्ट्रीय समस्या बनती जा रही है। कर्जमाफी उसका सही उपाय नहीं है। किसानों को कर्ज लेने की आवश्यकता ही न पडें ऐसी व्यवस्था निर्मित होनी चाहिये। किसान भी सहकारिता के आधार पर काम करें और इस आधार पर करें कि, ‘हमको ही व्यवस्था को सुधारना है, यह करके दिखायेंगे।‘

मानव ईश्वर बनता है संस्कारों से
मानव ईश्वर बनता है संस्कारों के कारण। दुर्भाग्य से अंग्रेजी सत्ता के कारण यह सारा तंत्र बिगड़ गया है। मानव को देव बनाने के बदले इस, शिक्षा व्यवस्था ने मानव को दानव बनाया। धन और सत्ता को महत्व
दिया, जीवन का उदात्तीकरण पीछे छूट गया। ‘सा विद्या या विमुक्तये’ तत्व कालबाह्य हो गया। माता, मातृभूमि, मातृभाषा तथा राष्ट्रगीत, का उचित सम्मान करनेवाली, राष्ट्रीय स्वत्व जगानेेवाली, जिम्मेदार शिक्षा व्यवस्था स्वतंत्रता के ७० सालों में नही बन पाई और स्वार्थी व्यक्तिकेंद्रितता की प्रवृत्ति पनपती गयी। अब इस संदर्भ में जो भी प्रयत्न शासन करे, उसके पीछे की राष्ट्रभावना पहचान कर मनःपूर्वक साथ देना हर नागरिक का कर्तव्य है ; भले ही वह थोडा कष्टकर हो। ‘मेरा’ यह सरल शब्द हर कार्य से जोड़ने पर हमारी नीति कृति में बदल जाएगी ।

दूसरों के अधिकार की रक्षा, मेरा मूलभूत कर्तव्य
भारत विश्वगुरु बनने की पुर्नप्रक्रिया में जनशक्ति का महत्त्वपूर्ण योगदान रहेगा । उस शक्ति को हमने दुर्गामाता के बदले पूतना मौसी बनाया । उसको या तो आकर्षक बनाया या हिंसक । पर अब जमाना बदल गया है । अभी तक अधिकार भावना प्रबल थी । राईट टू वर्क, राईट टू नो, राईट टू एक्ट, के प्रवाह में मानवाधिकार आयोग तो बना परंतु ‘मानवीय मूलभूत कर्तव्य आयोग‘बनाने की आवश्यकता है। दूसरों के अधिकार की रक्षा करना मेरा भी मूलभूत कर्तव्य है। चलने,बोलने, खाने, ओढ़ने का मेरा अधिकार दूसरों के अधिकारों में बाधक या घातक ना बने; यह दृढ़तापूखर्वक देखना है। अनिबर्र्ंध व्यक्तिगत स्वतंत्रता के कारण अनेक प्रांतों में शिक्षा संस्थाओें में कितने ही राष्ट्रविरोधी तत्त्व प्रभावी हो रहे हैं। अधिकार और कर्तव्य दोनों का संतुलन रहे, यही विकास का परम ध्येय है ।

आखरी का परन्तु अर्थपूर्ण बिन्दु अर्थात् तंत्रज्ञान की ऊंची उड़ान । वह आवश्यक तो है पर उसके कारण मानवीय संपर्क, मानवीय स्पर्श, मानवीय प्रवृत्ति नष्ट नहीं होनी चाहिए। सब कुछ ऑनलाईन होने से मानवता ऑफलाईन हो जायेगी। इसका भय है ।

नया यंत्र प्रधान तत्व स्वीकारते समय मानवीय स्पर्श सुरक्षित रखने की चिंता करनी है। मानव को भावनारहित यंत्र बनने से बचाना होगा। सब्जीवाली, किरानेवाला, बैंकवाले अपना व्यवहार करते करते अंतरंग बातें भी करते थे । देशहित के लिए नोटबंदी आवश्यक थी । परंतु आज भी अज्ञान के कारण देहातों में संकटनिधि के रूप में बचाए पुराने नोट लोगों के पास है, वे असमंजस में है परंतु काले धनवाले बड़े केंद्र आज भी सरकारी अनियंत्रित है । सामान्य जनता ने उसको भरपूर सहयोग भी दिया।

मैं नहीं, ‘तू ही‘
भारत ईश्वर की प्रिय भूमि है । इसलिए भारत का जीवितकार्य संभ्रमित विश्व का मार्गदर्शक अर्थात् गुरु है। जहां स्वार्थ, स्पर्धा एवं लोभ का निर्माण होता है, अति भौतिकता प्रभावी होती है तो वहां ईश्वर प्रकट नहीं होता है। भौतिकता का प्रभाव बढ़नेपर, अधिकार भावना प्रबल होती है । और वह परिवार से लेकर विश्व तक बढ़ती जाती है। कला, विज्ञान, तंत्रविज्ञान, उद्योग से संबंधित अर्थक्षेत्र सब मेरे ही अधीन होने चाहिए, यह भावना प्रबल होती है। उसके लिए शक्ति, बुध्दि, धन की नैतिकता का विचार पीछे पड़ता है। भारत की भूमिका अलग रही है, रहनी भी चाहिए – क्योंकि विश्वहित का विचार भारत ने ही किया है । विश्व को एक परिवार माना है – बाजार नहीं । और वही भावना बचाए रखनी आवश्यक है। रोबोट काम तो करेगा परंतु संवदेनापूर्ण स्पर्श नहीं दे सकेगा। विश्व को मानवता विहीन बनाने की दुष्ट प्रक्रिया रोकने का दायित्व हम भारतीयों को स्वीकार है। अन्य प्रबल प्रवाहों में नहीं बहना है, समय रहते ही संभालना है। परिवार में सबसे आपसी सद्भाव-अपनापन रखें। दूसरों के लिए अपना कुछ त्यागने में सुख है । अंगांगी भाव रहने के कारण एक दूसरे के पूरक बनने की भावना है – जानलेवा स्पर्धा का विचार भी नहीं। ‘मैं नहीं तू ही’ यह संस्कार होने के कारण दूसरे के सुख में सुख माना गया है । किसीके दु:ख में सहभागी होना सरल है । परंतु उसके आनंद में-सुख में सम्मिलित होना कठिन है। मुझे वह क्यों नही मिला? उसीको क्यों? इस विचार से मन दु:खी होता है और फिर येनकेन प्रकारेण वह पद, पैसा, प्रतिष्ठा के पीछे पड़ना ही आज का परिदृश्य है । उससे उबरना और उबारना भारत का ही कर्तव्य है क्योंकि सांस्कृतिक नीति मूल्यों को सुरक्षित रखने का गुरुतर दायित्व भारत का ही है । समय की मांग है कि भारत को ही गुरुपद अर्थात् सर्व हितकारी विचार विश्व को देने का दायित्व स्वीकारना है । यही भारत की नियति है ।

मैं ही भारत
वैज्ञानिक प्रगति की दौड़ में भारत को यह बात भूलनी नहीं चाहिये और आचार्य रामानुजम की तरह ‘मैं ही भारत’ जैसी भावना को प्रबल, प्रभावी बनाने के प्रयत्न हर क्षेत्र में होने चाहिए। भारत आज तंत्र वैज्ञानिक, औद्योगिक दृष्टि से पीछे नहीं परंतु कभी-कभी लगता है कि शुध्द भारतीयता का आधार कहीं दुर्बल तो नहीं बन रहा है ? हमारी आँखे चकाचौंध तो नही हो रही हैं? और हम सब ‘ईश्वर के अंश‘ की भावना तो नहीं भूल रहे हैं ? हमारा देश तो कृषि प्रधान है – यह भूमि हमें एक दाने के सौ दाने देती है – लोभ के कारण हमने सोचा की दो सौ दाने मिलने चाहिए – एक बार नहीं दो बार मिलने चाहिए। परिणामस्वरूप हमने अपनी मां को ही लूटा ।अत्याचार किये। उसकी उर्वरा शक्ति दांव पर लगाई। किसान को बेबस कर दिया। उसके हाथों में कर्जमाफी का झुनझुना थमा दिया । परंतु वास्तव में किसानों को कर्जा लेने की स्थिति ही न बने, इस दिशा में कार्य किया जाना चाहिए। उन्हें कोई सह व्यवसाय उपलब्ध कराना चाहिए। औद्योगीकरण की आंधी में हम अपने अन्नदाता को ना भूलें और अपने जीवित ध्येय की ओर अग्रसर होवें।

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