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चुनौतियों से भरा उत्तर प्रदेश

by धर्मेन्द्र पाण्डेय
in गौरवान्वित उत्तर प्रदेश विशेषांक - सितम्बर २०१७, सामाजिक
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वर्तमान सरकार प्रचंड जनादेश तथा ‘पार्टी विथ डिफरेंस’ की सोच के साथ सत्ता में आई है इसलिए लोगों की अपेक्षाएं ज्यादा बड़ी हो गईं हैं। वर्तमान सरकार के सामने कई चुनौतियां हैं। पिछली सरकारों ने हालात इतने खराब कर दिए हैं कि उन्हें सुधारने में वक्त तो लगेगा। हिमालय एक दिन में थोड़े बना है!

गोरखपुर से बनारस होते हुए इलाहाबाद पहुंच जाइए या फिर लखनऊ से हरदोई, बदायूं की राह पकड़ मेरठ, गाजियाबाद होते हुए लगभग दिल्ली तक चले जाएं; आज भी आपको दो सौ साल पुराने पीपल, इमली व बरगद के तमाम वृक्ष मिल सकते हैं। आस-पास के नववृक्षों की अपेक्षा ज्यादा घने-विशाल व हरीतिमा से भरपूर हो सकते हैं पर एक बात विचित्र लगेगी कि उन पर पक्षी अपना बसेरा नहीं बनाते। रात्रिचर उल्लू भी इनसे दूरी बनाए रखने में विश्वास रखते हैं। अभिशप्त आत्मा की तरह खड़े ये वृक्ष १६० वर्ष पूर्व की उस खूनी विभीषिका के गवाह हैं जिसे दुनिया के सब से पुराने सांस्कृतिक राष्ट्र की प्रथम करवट अर्थात् ‘प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ कहा जाता है। उन डेढ़ वर्षों के दौरान इन पर इतने लोगों को फांसी दी जा चुकी थी कि आम जन की ही भांति शायद इन वृक्षों ने भी गिनना छोड़ दिया रहा होगा।

वैसे तो उससे पहले अंग्रेजों के खिलाफ देश के तमाम राज्यों में कई बड़ी और असंख्य छोटी-छोटी पहल हो चुकी थीं। यहां तक कि ७७ साल पहले १७८० में बनारस में तत्कालीन गवर्नर जनरल को जन विद्रोह के सामने जान बचा कर भागना पड़ा था। वहां की गलियों में आज भी कहावत चलायमान है कि, ‘घोड़ा पे हउदा, हाथी पे जीन। डरि के भागल वारेन हेस्टिन।” अर्थात् भागते समय तत्कालीन गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स को कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था। हाथी पर लादा जाने वाला हौदा घोड़े पर कसा और घोड़ों पर कसी जाने वाली जीन हाथी पर लादते हुए भाग कर किसी तरह अपनी जान बचाई थी। पर अब मामला अलग था। हमेशा से देश की संस्कृति का प्रमुखतम केंद्र रहा भूभाग कई सदियों की निद्रा के बाद पूरी तरह जाग रहा था। देश के अलग-अलग हिस्सों में चल रहा अभियान देश के उस हिस्से में, जिसे बाद में उत्तर प्रदेश के नाम से जाना गया, आकर राष्ट्रीय स्वरूप प्राप्त कर ’स्वतंत्रता का प्रथम संग्राम’ बन आगे की लड़ाई का अगुआ बन देश की स्वतंत्रता में महत्वपूर्ण योगदान देने को तत्पर था।

इतिहास गवाह है कि अगुआ से समय और सत्ता अगुआई की कीमत भी वसूलते हैं। अंग्रेजों ने भी वसूली। यूपी (बाद के यूनाइटेड प्राविंस) को आर्थिक तौर पर पंगु करने के लिए उसकी आय के प्रमुख संसाधनों खासकर कृषि को परंपरागत की बजाय इंग्लैंड के लाभ का विषय बनाने की दिशा में प्रयास शुरू कर दिया। आंदोलन के पक्षधरों खासकर सवर्णों को प्रताड़ित कर पलायनवादी बनने पर मजबूर कर दिया पर दलित वर्ग को रोके रखा क्योंकि उन्हें बंधुआ मजदूरों की भी आवश्यकता थी, नील की खेती के लिए। खड़ी फसलों में लगी आग और उत्पीड़न ने लोगों को पहले देश की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता और बाद में आर्थिक राजधानी मुंबई की ओर पलायन करने के लिए विवश कर दिया।

झुग्गी-झोपड़ियों व पुआल की टाल से शुरुआत कर उन्होंने खूब तरक्की की पर प्रदेश पीछे छूटता चला गया। गंगा, यमुना, घाघरा, चंबल जैसी बड़ी नदियों की छांव में पलने-बढ़ने वाला दुनिया का सब से उपजाऊ क्षेत्र भुखमरी-अकाल का आए दिन शिकार होने लगा। रही-सही कसर राजनीतिक अस्थिरता ने पूरी कर दी। आजादी के बाद भी पहले मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत के गैर चुनावी कार्यकाल को छोड़ दें तो राष्ट्रीय राजनीति के पहरुआ उत्तर प्रदेश में २००७ में मायावती के मुख्यमंत्री बनने से पहले तक कोई भी मुख्यमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सका। मुख्यमंत्रियों की पूरी ऊर्जा अपनी कुर्सी बचाने में ही लगी रही और प्रदेश के मूल मुद्दे हाशिए पर चले गए। नौकरशाही बेलगाम और भ्रष्ट होती चली गई। जनता की हर छोटी-बड़ी आवश्यकता राजनीतिक दखल की मोहताज होती चली गई। इस राजनीतिक अस्थिरता का सर्वाधिक लाभ जाति आधारित क्षेत्रीय दलों और बाहुबलियों ने उठाया। जातीय अस्मिता और धर्म के नाम पर आए दिन होने वाले दंगों से आम जन मानस के हृदय में राजनीति के प्रति गहरी घृणा पैठ कर गई।

बीच-बीच में कुछ मुख्यमंत्रियों ने लोकहितकारी योजनाएं भी शुरू कीं। किसान नेता चरण सिंह ने लेखा विभाग में कायस्थों का एकाधिकार समाप्त कर लेखपाल के पद का सृजन किया तथा जमींदारी उन्मूलन की दिशा में सार्थक प्रयत्न किया। वी.पी.सिंह ने चंबल के डाकू उन्मूलन की ओर ध्यान दिया जबकि कल्याण सिंह ने शिक्षा व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त करने की दिशा में तथा मायावती ने प्रदेश के अनुसूचित समुदाय को समाज की मुख्य धारा में लाने का प्रयत्न किया। पर ज्यादातर प्रयास राजनीतिक अस्थिरता अथवा राजनीतिक विरोध के चलते पूर्णतया या आंशिक तौर पर असफल हो गए।

यदि ऊपर लिखे सुधारों की ही बात करें तो चरण सिंह ने लेखपाल के पद पर ज्यादातर जाटों अथवा यादवों की भर्ती करवा दी जो उस समय तक शैक्षिक दृष्टि से काफी पिछड़े हुए थे। नतीजतन प्रदेश भर में बहुत सारे शैक्षणिक दृष्टि से मजबूत और दबंग लोगों ने गावों की बंजर भूमि अपने नाम करवा ली। राजा माण्डा ने डकैत उन्मूलन की शुरुआत तो बहुत जोर-शोर से की पर डकैतों द्वारा उनके भाई की हत्या कर दिए जाने पर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे केंद्र में चले गए। कल्याण सिंह के समय में नकल करते पाए जाने पर परीक्षार्थी और कमरे में ड्यूटी कर रहे शिक्षक को अदालत से जमानत करवानी पड़ती थी। नतीजतन देशभर में रामलहर के बावजूद ढांचा ढहाए जाने के हीरो के तौर पर उभरे सिंह को अगले चुनाव के बाद विपक्ष में बैठना पड़ा जबकि इसी को भुनाकर मुलायम सिंह यादव पिछड़ों के नेता बन गए। मायावती के शासन काल में बिना किसी जांच के लोगों पर धड़ाधड़ हरिजन एक्ट लगाए गए जिसे एक बार फिर समाजवादी पार्टी ने भुनाया औैर अखिलेश ने पूर्ण बहुमत की सरकार बना ली।

परिणामतः अंग्रेजी समय से छिन्न-भिन्न होती रही आर्थिक व सामाजिक व्यवस्था इस समय तार-तार हो चुकी है। विकास की गाड़ी पूरी तरह रुकी पड़ी है। जातीय और धार्मिक सद्भाव पूरी तरह समाप्त हो चुका है। लगभग प्रति दिन प्रदेश का कोई हिस्सा धार्मिक या जातिगत हिंसा की चपेट में रहता है। बारहवीं पास अध्यापक न बनाए जाने पर धर्म परिवर्तन की धमकी दे रहे हैं जबकि पोस्ट ग्रेजुएट, बीएड और पीएचडी धारी दर-दर भटकने को विवश हैं। पास कराने के लिए बाकायदा नकल कराने के ठेके लिए जाते हैं। सरकारी नौकरियों की बोली लगती है। आबादी वाले जंगली इलाकों से पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के कारण मौसम तंत्र पूरी तरह बिगड़ चुका है। मेरे स्वयं के घर के सामने का पुश्तैनी तालाब पिछले १७ सालों से एक बार भी नहीं भरा है। साथ ही तालाबों की संख्या लगभग आधी रह गई है। मायावती द्वारा तालाब पाट कर बनवाए गए निर्माणों को ढहाने के आदेश को लोगों ने सवर्णों के प्रति राजनीतिक बदले के तौर पर लिया और यह आदेश भी ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।

पिछले ढाई दशकों में, खासकर समाजवादी शासन के दौरान, राज्य की कानून व्यवस्था अराजक स्थिति तक पहुंच चुकी थी। राज्य के पुलिस प्रशासन पर शासनानुसार जाति विशेष और धर्म विशेष के लोगों का विशेष ख्याल रखे जाने का आरोप लगता रहा है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि प्रदेश में मानवाधिकार जैसा शब्द पूरी तरह भुला दिया गया है। वैसे अपने कार्यकाल की अंतिम छमाही में अखिलेश सरकार ने पुलिस व्यवस्था में सुधार करने का प्रयास किया पर सपा के जमीनी नेताओं की गुंडागर्दी यथावत बनी रही। पुलिस प्रशासन द्वारा सत्ता के चरण चांपन को लेकर इतनी किंवदंतियां बन चुकी हैं कि बलात्कार और हत्या जैसे जघन्यतम अपराधों में भरपूर सबूतों के होने की संभावना के बावजूद तफ्तीश में लोग सत्ता के नजदीकी अपराधियों के बेदाग बरी हो जाने के प्रति पूर्ण आश्वस्त होते हैं और एकाध मामलों को छोड़ कर जनता की शंका सत्य ही साबित होती है। जनता के दिल में आम प्रशासन की इस मुख्यतम कड़ी के प्रति सम्मान व विश्वास का भाव जागृत होने तक राज्य के विकास की बात करना हास्यास्पद है।

तमाम सरकारी पद खाली पड़े हैं जबकि लाखों बेरोजगार सड़कों की धूल फांक रहे हैं। स्थिति यह हो चुकी है कि अपनी योग्यता के बल पर नौकरी पाने वाले को भी लोग शक की नजर से देखते हैं और छूटते ही पूछ बैठते हैं, ‘कितना दिया?’ लगभग हर पद की अघोषित सरकारी बोली तय हो जाती है। यहां तक कि किसी विद्यालय में कोई पद खाली होने के बाद उस क्षेत्र के लगभग हर सामाजिक व्यक्ति को पता चल जाता है कि उस पद के लिए क्या भाव लगाया जा रहा है। गावों में सफाईकर्मी की भर्ती की गई है पर उनकी हाजिरी ब्लॉक कार्यालय पर लगती है। गांव के ज्यादातर लोग तो अपने गांव के सफाईकर्मी को पहचानते तक नहीं। जन्म प्रमाणपत्र से लेकर डोमिसाइल तक हर कागज नोटों के पहिए से चलता है। घूसखोरी समाज के लहू में बहता है। लोग लगभग आदी हो चुके हैं।

सबसे बुरी व भयावह स्थिति ग्राम पंचायत की है, जो कि ८० प्रतिशत जनसंख्या के उत्थान के प्रति जवाबदेह है। सामान्यतः ग्राम प्रधान का चुनाव बिना पोस्टर के भी लड़ा जा सकता है क्योंकि सभी लोग एक दूसरे से व्यक्तिगत तौर पर परिचित होते हैं। मतदाताओं को प्रत्याशी के आचार-विचार, शिक्षा समेत पूरी कुंडली पता होती है पर चुनावों में १० से २५ लाख तक का खर्च किया जाता है जिससे मतदाता खरीदे जाते हैं ताकि अगले ५ वर्षों तक मिलने वाले पैसों से अपनी तिजोरी भरी जा सके। मनरेगा में नकली नाम भर कर उनका पैसा निकाल लिया जाता है। ग्राम पंचायतें इस स्तर तक गिर चुकी हैं कि मिड डे मील का सारा अनाज और बालवाड़ी का दलिया भी बेच कर खा जाते हैं। प्राइमरी विद्यालय अंतिम सांसें ले रहे हैं और वहां पर मजदूर वर्ग के बच्चे भी नहीं जाते क्योंकि शिक्षक नदारद रहते हैं। अब तो ग्राम प्रधानों को भ्रष्टाचार के नए हथियार के तौर पर प्रधान मंत्री का ‘स्वच्छ भारत मिशन’ भी मिल गया है। प्रधान मंत्री के अभियान की धज्जियां उड़ाते हुए लोगों को शौचालय बनवाने के लिए मिलने वाले पैसे में से ३३ से ५० प्रतिशत तक कमीशन लिया जा रहा है।

दशकों से नाकाम कानून व्यवस्था के कारण अब निवेशक पूंजी लगाने को तैयार नहीं हैं। राज्य में काम कर रहे उद्योगपति भी अब पलायन करने को मजबूर हैं। बुनियादी सुविधाओं और बिजली की कटौती के कारण पुश्तैनी उद्योग भी चौपट होने की कगार पर हैं। सब से बुरी स्थिति राज्य के पूर्वी भाग अर्थात् पूर्वांचल की है। २३ लोकसभा, ११७ विधान सभा और १२ करोड़ आबादी वाले इस क्षेत्र की आधी से अधिक आबादी गरीबी के नीचे जीवन यापन करती है। यह समूचा क्षेत्र सूखे और बाढ़ को लगातार झेलते रहने के लिए भी अभिशप्त है। यहां स्वास्थ्य सेवाएं पूरी तरह चरमराई हुई हैं। जापानी बुखार की वजह से इस क्षेत्र में प्रति वर्ष हजारों बच्चे दम तोड़ देते हैं। सरकारों की उदासीनता ने यहां के लोगों को बाहुबलियों और अपराधियों की शरण में धकेल दिया है। प्रदेश के ज्यादातर बाहुबली इसी क्षेत्र से आते हैं। कुछ यही स्थिति बुंदेलखंड की भी है। पूरा क्षेत्र लगभग एक दशक से सूखे की चपेट में है। सरकारें राहत पैकेज घोषित कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेती हैं। जबकि पैकेज का क्रियान्वयन सही तरीके से होना सबसे जरूरी होता है। पिछली सरकारों ने इस क्षेत्र में जल संरक्षण के प्रति कोई ठोस कदम नहीं उठाया। ऐसा नहीं है कि बुंदेलखंड में बरसात कम होती है। वहां हर साल औसतन ७० हजार लाख घनमीटर पानी बरसता है पर इसका अधिकांश भाग तेज प्रवाह के साथ बह जाता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान लम्बे समय से भूमि अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं। उन्हें अपनी भूमि का उचित मुवावजा नहीं मिल रहा है पर राजनीतिक दल उनकी मांग पर संजीदगी दिखाने की जगह सियासी रोटियां सेंकते रहे हैं।

एक कहावत है कि, ‘हिमालय एक दिन में नहीं बना है।’ नई सरकार एक साथ सब कुछ नहीं कर सकती है। समय लगेगा। पर इतना तो तय है कि सरकार को युद्ध स्तर पर कार्य करना पड़ेगा। सबसे पहले ग्राम पंचायतों में सुधार किया जाना चाहिए ताकि गांवों की मूलभूत आवश्यकताओं व विकास का कार्य तेजी से हो सके। ग्राम प्रधानों पर नकेल कसने से प्राथमिक व माध्यमिक स्तर के विद्यार्थियों को भी सहायता मिल सकेगी क्योंकि इनका संचालन ग्राम स्तर पर ही किया जाता है। प्रत्येक आम नागरिक के मन में सरकार के प्रति श्रद्धा व विश्वास का भाव पैदा करना भी वर्तमान सरकार की सबसे बड़ी चुनौती होगी क्योंकि पिछली कुछ सरकारों की संकुचित सोच ने आम लोगों के मन में सरकारों की नीतियों के प्रति शुबहा पैदा कर दिया है।

वर्तमान सरकार प्रचंड जनादेश तथा ‘पार्टी विथ डिफरेंस‘ की सोच के साथ सत्ता में आई है इसलिए लोगों की अपेक्षाएं ज्यादा बड़ी हो गईं हैं। वर्तमान सरकार के सामने शिक्षा व्यवस्था में सुधार, बेरोजगारों को समुचित रोजगार, खाली पदों की भर्ती, नवीन परियोजनाओं तथा कर्मचारियों के वेतन के लिए धन, चुस्त-दुरुस्त कानून व्यवस्था जैसी चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं। पूर्वांचल, अवध व पश्चिमी भाग की उपजाऊ जमीन पर खेती को सकारात्मक प्रोत्साहन तथा अनाज के समुचित विपणन की व्यवस्था कर खेती के साथ ही साथ बड़े पैमाने पर रोजगार की व्यवस्था भी की जा सकती है। बुंदेलखंड के वास्तु पत्थर तथा खनिज का समुचित दोहन कर उस भूभाग को भी आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है।

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