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आजादी के ७० साल और खेती

by दिलीप यादव
in कृषि, गौरवान्वित उत्तर प्रदेश विशेषांक - सितम्बर २०१७, सामाजिक
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देश इस समय अधिक कृषि उत्पादन और किसानों की बदतर होती जा रही माली हालत से जूझ रहा है। उत्तर प्रदेश में भी इससे जुदा हालत नहीं है। जाहिर है कि निर्धारित मूल्यों पर निजी या सरकारी किसी भी क्षेत्र में किसानों की जिंसों के विक्रय के लिए ईमानदार ढांचे को विकसित किए बगैर खेती और किसान की स्थिति नहीं सुधारी जा सकती।

भूखे मनुष्य के लिए रोटी ही भगवान है और इस भगवान का वास देश के प्रत्येक घर तथा झोपड़ी में होना चाहिए। १९४२-४३ में बंगाल के भीषण अकाल के परिपेक्ष्य में महात्मा गांधी के ये उद्गार तत्कालीन समय में देश की स्थिति को बयां करने के लिए काफी हैं। अकाल के हालात से उबरने और लोगों का पेट भरने के लिए पूर्व प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास़्त्री को ‘जय जवान-जय किसान’ का नारा देना पड़ा और लोगों से उपवास रखने की अपील तक करनी पड़ी लेकिन आज हालात देश के हों या फिर उत्तर प्रदेश के, बिल्कुल अलग हैं। खाद्यान्न में आत्मनिर्भर होने के बाद आज किसान ज्यादा उत्पादन की वजह से आत्महत्या कर रहे हैं।

देश की आजादी के समय के हालात यह थे कि गेहूं की रोटी तो रिश्तेदारों के लिए ही बना करती थीं। बुजुर्गों की मानें तो गांवों में किसान सुबह-शाम दलिया खाया करते थे। उन्हें रोटी एक समय दोपहर में ही मिला करती थी। ज्यादातर लोग मोटे अनाज यानी ज्वार, बाजरा, मक्का, चना जैसी चीजों पर निर्भर थे। इतना ही नहीं जिस खेत में आज ३० कुंतल अनाज पैदा होता है उसमें आजादी के समय चार कुंतल अन्न पैदा होता था। देश में अब करीब २५ करोड़ टन अनाज हर साल पैदा होता है। जो १३० करोड़ आबादी का पेट भरने के लिए काफी है। सरकार ने अनेक गोदाम बनवाए हैं लेकिन भण्डारण के गोदामों की कमी के कारण ३८ प्रतिशत अनाज हर साल सड़ कर खराब हो जाता है।

पर्याप्त अन्न, फिर भी १९ करोड़ भूखे
हमारी तरक्की के दूसरे पहलू को जानना भी जरूरी है। इससे पता चलता है कि पर्याप्त अन्न के बाद भी हालात क्या हैं। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट बताती है कि अन्न के जरूरत से ज्यादा भण्डारण होने के बाद भी करीब १९ करोड़ लोग भूखे रहने के लिए मजबूर हैं। भण्डारण और वितरण की व्यवस्था ठीक से हो तो एक भी आदमी भूखा न सोए।

छह लाख गांवों के देश और उत्तर प्रदेश में कृषि उदय की कहानी बड़ी लम्बी है। जिस हरित क्रांति के दम पर आज हम भरपेट रोटी खा रहे हैं उसको भी ५० साल पूरे हो गए हैं। किसानों ने अपने पसीने से धरती माता को सींच कर सब कुछ पैदा कर दिया लेकिन ५० साल में सारी तरक्की बेमानी सी लगने लगी है। उर्वरकों के अति उपयोग ने धरती माता की सेहत बिगाड़ डाली है। बेल्जियम के प्रगतिशील किसान युहान धुलस्टर ने एक मुलाकात में कहा था कि हरित क्रांति हिन्दुस्तान के साथ धोखा साबित हुई। मसलन पांच दशक में हमने सदियों में संचित उपज क्षमता को खत्म कर दिया। हजारों परिस्थितिजन्य प्रजातियों के बीजों को खत्म कर दिया।

गेहूं की ४०० किस्में ईजाद
आज हमारे वैज्ञानिकों के पास करीब ४०० किस्में हैं। यह बात अलग है कि प्रचलन में इनमें से भी ५० के करीब ही हैं। हमें यह सोचना होगा कि अनुुपयोगी हुई ३०० किस्मों में क्या कमियां रहीं जिन्हें किसानों ने नकार दिया। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में आज भी अनेक किसान नई किस्मों की पहुंच से दूर हैं। कृषि ज्ञान का प्रसार यहां खास काम नहीं कर पाता। किसान पुराने तौर तरीकों से खेती कर रहे हैं लेकिन उनके सामने तंगी की स्थितियां नीतियों एवं बाजार पर हावी बिचौलियों ने पैदा की हैं।

बंपर उत्पादन फिर भी किसान बेहाल
राष्ट्रीय परिदृश्य में देखें तो सन १९५०-५१ की तुलना में खाद्यान्न उत्पादन में पांच गुना, बागवानी में छह गुना, मछली में १२, दूध में आठ और अण्डा उत्पादन में २७ गुने की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई । फसलों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए गत दो वर्षों में ही २२७ नई किस्में विकसित करी गईं। इतना ही नहीं २०१५-१६ में अनाज की १९, दलहन की २० और तिलहन की २४ सूखा प्रतिरोधी एवं बाढ़ को सहने वाली किस्में विकसित की गईं। देश की खाद्य सुरक्षा में धान की मुख्य भूमिका को देखते हुए धान की स्वर्णा सब-१ किस्म तैयार की गई है। स्वाद में अच्छी यह किस्म दो सप्ताह तक पानी में डूबे रहने के बाद भी नहीं मरती। १४० दिन में पकने वाली ये किस्म पांच से छह टन उत्पादन देती है। कम पानी वाले इलाकों के लिए सहभागी धान विकसित किया गया है। धान से प्रोटीन की कमी दूर करने वाली हीरा और उच्च जिंक वाली डीआरआर धान की किस्म आज हमारे पास मौजूद हैं।

खाद्य सुरक्षा में अहम योगदान वाली मुख्य दूसरी फसल गेहूं की सूखा और सामान्य से ज्यादा तापमान झेलने वाली पूसा की एचडी २८८८ किस्म २८ कुंतल प्रति हैक्टेयर तक उपज दे रही है। कम समय में पकने और रोगरोधी किस्मों की बड़ी खेप बीज के रूप में आज देश के संस्थानों के पास मौजूद है। करीब एक सैकड़ा केन्द्रीय संस्थान और ७० से ज्यादा कृषि विश्वविद्यालय तथा करीब ६५० कृषि विज्ञान केन्द्र कृषि, पशुपालन, मत्स्य पालन जैसे क्षेत्रों में अनेक अनुसंधान कर लोगों की जीविका में सहायक बन रहे हैं।

इसके अलावा खेती में हम हल बैल से आगे टपक सिंचाई, फव्वारा सिंचाई, ग्रीन हाउस, पाली हाउस, नैट हाउस, सौर ऊर्जा के उपयोग, अत्याधुनिक कंबाइन हार्वेस्टर, लैजर लैण्ड लेबलर जैसी उपयोगी मशीनों के लाभ से लाभान्वित हो रहे हैं।

कैसे दूर हो उत्तर प्रदेश की बदहाली
कृषि प्रधान उत्तर प्रदेश आम, अमरूद, आलू, दाल, चावल, गेहूं, आंवला, मेंथा जैसी अनेक जिंसों के लिए जाना जाता है लेकिन कमोवेश किसानी की स्थिति यहां भी बहुत अच्छी नहीं है। कभी ज्यादा उत्पादन से माली हालत सुधरने का दावा करने वाले विशेषज्ञों के पास आज इस समस्या का कोई समाधान नहीं है कि बंपर उपज के बाद भी किसान आत्महत्या करने को क्यों मजबूर हैं। करोड़ों के बजट और किसानों के नाम पर बंटने वाली छूट के बाद भी किसान दिनोंदिन बदहाल क्यों होता जा रहा है। इन समस्याओं के समाधान के लिए किस प्रकार की नीतियां बनें और नीति नियंताओं में किसानों का प्रतिनिधित्व कितना और किस स्तर पर हो।

कृषि नहीं, किसान केन्द्रित हों नीति
बुन्देलखण्ड के बांदा निवासी किसान प्रेमभाई कहते हैं कि जब तक कृषि केन्द्रित नीतियां नहीं बनेंगी हालत नहीं सुधरेगी। कृषि नीति किसान केन्द्रित होनी चहिए। आज किसान नौकर की तरह काम कर रहा है। हर गांव में तीन चार प्रकार की खेती होती है। इसे मिश्रित खेती में बदल दिया जाए तो किसानी का रिस्क फैक्टर बेहद कम हो जाएगा। आज ज्यादा उत्पादन की वजह से किसानों को आत्महत्या और आंदोलन करने पड़ रहे हैं।

वह कहते हैं कि खेती को किसानों के ऊपर छोड़ना होगा। उर्वरक, बीज, यंत्रों आदि पर दी जाने वाली सभी छूटों को बंद करके सीधे किसानों को देना होगा। बीज, खाद, पानी, ऊर्जा आदि के मामले में किसान आत्मनिर्भर हों। कृषि वैज्ञानिक प्राइवेट डॉक्टर की तरह काम करें। किसान उन्हें सलाह की फीस दें ना कि वह सरकार के मेहमान बन कर करोड़ों बर्बाद करें। किसान बीज, खाद, मशीन आदि हर चीज के लिए बाजार पर निर्भर हैं। उसे खुद निर्धारित करने दो कि वह गोबर की खाद से खेती करेगा या फिर अन्य रसायनों से करेगा। विधान सभाओं में किसानों का ४० प्रतिनिधित्व हों। नीति आयोग में किसानों को स्थान मिले। इन स्थानों और पुरस्कारों में नाचने-गाने वालों को जगह दी जा सकती है लेकिन किसानों को नहीं, क्यों?

घट रहे प्रोटीन-कार्बोहाइड्रेट
वैज्ञानिक उत्तरोत्तर तरक्की के आंकड़े प्रस्तुत करते हैं लेकिन सचाई यह भी है कि १० साल में साढ़े छह प्रतिशत प्रोटीन दालों में घटा है और साढ़े छह प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट गेहूं में कम हुआ है। हजारों किस्में वैज्ञानिकों ने निकाली हैं लेकिन किसानों ने उनमें से चंद को ही अपनाया है। हजारों पुरानी किस्में खत्म भी कर दी गईं। किस्मों के विकास की अंधी दौड़ में हमने अनेक स्वाद, सुगंध और पोषणयुक्त किस्मों को मिटा दिया है।

प्रदेश में चावल का उत्पादन स्थिर
उत्तर प्रदेश में पिछले कई साल से चावल का उत्पादन स्थिर हो गया है। ‘प्रदेश में इस बार ५९.६६ लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में धान खेती और इससे १५१.३० लाख मीट्रिक टन धान उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। इसके लिए किसानों को उच्च गुणवत्ता के बीज, खाद, कीटनाशक और दूसरी जरूरी सुविधाएं दी जा रही हैं।’

भारत में चावल उत्पादन में १० प्रतिशत की बढ़ोतरी का अनुमान लगाया है। इस साल २०१७-१८ देश में कुल चावल उत्पादन १०.९० करोड़ टन रहने का भी अनुमान लगाया है। ऐेसे में उत्तर प्रदेश की कोशिश इस बार चावल उत्पादन में नंबर वन राज्य बनाने की तैयारी हो रही है।

इधर देश-दुनिया में अपनी विशिष्ट सुगंध और स्वाद के लिए प्रसिद्ध बासमती धान की खेती से देश के किसानों को मोहभंग हो रहा है। पिछले दो सालों से बासमती धान की अच्छी कीमत नहीं मिलने से पंजाब के किसानों ने इस साल बासमती धान की बुवाई में रुचि नहीं दिखाई है।

वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के अंतर्गत कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण यानि एपीडी के आंकड़ों के अनुसार भारत बासमती चावल में विश्व बाजार का अग्रणी निर्यातक देश है। पिछले खरीफ सीजन २०१५-२०१६ के दौरान भारत से २२७१८.४४ करोड़ रुपए मूल्य का ४०,४५,७९६.२५ मीट्रिक टन बासमती चावल निर्यात किया गया था। धान में नंबर एक पंजाब के किसान धान की खेती छोड़ रहे हैं वहीं उत्तर प्रदेश सरकार इसका क्षेत्रफल बढ़ा कर किसानों की दिक्कत बढ़ाने का काम कर रही है।

एक किलो धान पीता है साढ़े तीन हजार लीटर पानी
एक किलोग्राम धान तीस से चार हजार लीटर पानी में पक कर तैयार होता है। एक लीटर पानी की बाजार में जितनी कीमत है उतनी कीमत भी हमारे किसान को एक किलोग्राम धान की नहीं मिलती। सिंचाई जल के संकट से बर्बाद होने वाली खेती को बचाने के लिए धान जैसी फसलों को जरूरत से ज्यादा उगाने की बजाय हतोत्साहित करना चाहिए। पानी बचाने के तरीकों में सरकारों को इजरायल जैसे देशों से सीख लेनी चाहिए। अन्यथा हम कौड़ियों के भाव में प्रति किलोग्राम चावल के लिए चंद पैसों के लिए हजारों हजार लीटर पानी अरब देशों को भेंट करते रहेंगे।

बागवानी भी हुई बेमानी
उत्तर प्रदेश में अभी २,६३,२७५ हेक्टेयर में आम, ४,८६,९७८ हेक्टेयर में अमरूद और ५५,३४२ हेक्टेयर में केले की खेती होती है लेकिन अब इस क्षेत्रफल को बढ़ाया जाएगा। प्रदेश में अभी सालाना ४,५१,२७०५ मीट्रिक टन आम और ९,१४,३६० मीट्रिक टन अमरूद का उत्पादन होता है। उत्तर प्रदेश में अभी सालाना ९,१४,३६० मीट्रिक टन केले का उत्पादन होता है। यह उत्पादन दो गुना हो इसके लिए बागवानी विभाग की तरफ से २३ जिलों के १५०० हेक्टेयर में टिश्यू कल्चर विधि से केला उत्पादन की योजना चलाई जा हरी है, जिसमें किसानों को उनकी कुल लागत पर ४० प्रतिशत की सब्सिडी दी जा रही है। कहां कौनसी फसल हो इसका निर्धारण गैर किसान कर रहे हैं।ं आपको आम की कोई भी किस्म ५० रूपए प्रति किलोग्राम से कम नहीं मिलती होगी लेकिन यह किसान के खेत से सात आठ रुपए किलोग्राम भी नहीं बिकता। गैर लाभकारी अधिक उत्पादन भी प्रदेश में इसीलिए किसानों के जी का जंजाल बन रहा है।

समर्थन मूल्य की नीतियों में बदलाव हो
न्यूनतम समर्थन मूल्य कई जिंसों का घोषित किया जाता है लेकिन गेहूं को छोड़ कर सरकारें बाकी जिंसों की खरीद नहीं कर पाती। सरकार ने पिछले साल मूंग का भाव ५२०० निर्धारित किया लेकिन मंडियों में यह ढाई से तीन हजार रुपए प्रति कुंतल ही बिकी। जब सरकार का बाजार और कारोबारी पर नियंत्रण ही नहीं तो एमएसपी घोषित करने का क्या लाभ? यूं तो मूल्य निर्धारण के लिए राज्यों से प्रतिनिधि बुलाए जाते हैं लेकिन इसमें समझ बूझ वाले किसानों की बजाय मंत्रियों के प्यादे ही पहुंचते हैं। निर्धारित मूल्यों पर निजी या सरकारी किसी भी क्षेत्र में किसानों की जिंसों के विक्रय के लिए ईमानदार ढांचे को विकसित किए बगैर खेती और किसान की स्थिति नहीं सुधारी जा सकती।

खेती में बढ़ाया जाए निवेश
विश्व बैंक के दबाव में किसानों को कृषि ॠण तो बांटे जाने लगे लेकिन उसका खेती में २० फीसदी भी प्रयोग नहीं हो रहा। किसान इस पैसे का मकान बनाने, बच्चों की शादी करने आदि पर खर्च ज्यादा करते हैं। केरल के एक किसान की कहानी पढ़ने से पता चला कि उनके यहां ७८ लाख का इन्वेस्टमेंट खेती में है। वह खेती में पिगरी, पोल्ट्री, फिशरी आदि कई चीजों को समाहित करके चलते हैं। बात साफ है कि मोटी लागत लगाई है तो सतत आय भी होगी ही। उत्तर प्रदेश में औसत जोत का आकार ०.८० हैक्टेयर रह गया है। जोत का आकार घटने से खेती का व्यावासायीकरण हो रहा है। नई तकनीकों के प्रयोग से लागत का बढ़ना लेकिन लाभ का घटना मुख्य वजहें हैं किसानों की माली हालत बिगड़ने की। पूसा संस्थान के भूतपूर्व निदेशक डॉ. एस ए पाटिल बताते हैं कि कर्नाटक में किसानों ने ग्रीन हाउसों की चेन विकसित करके तरक्की की नई कहानी लिखी हैं। किस क्षेत्र में कौनसी फसलें, पौधे, पशु अच्छा उत्पादन दे सकते हैं यह किसानों से ज्यादा कोई नहीं जानता। खेती को लाभकारी बनाने के लिए सरकारों को बेहतर इन्वेस्टमेंट मॉडल विकसित करने होंगे।

किसानोन्मुख तकनीक नहीं
तकनीकों का विकास किसान आधारित नहीं हो पा रहा है। अच्छी किस्मों का विकास हो भी जाता है तो वह समय से किसानों तक नहीं पहुंच पातीं। पूसा संस्थान की किस्म २९६७- सालों तक रिलीज होने का इंतजार करती रही। खुद मेरे द्वारा, पंजाब और यूपी के किसानों के द्वारा राष्ट्रपति को प्रत्यावेदन देने के सालों बाद इस किस्म को रिलीज किया गया। इस किस्म ने पंजाब, यूपी एवं हरियाणा राज्य में ५० फीसदी हिस्से पर अपना सिक्का जमा लिया लेकिन इस काम में एक दशक गुजर गया। अभी यूपी के ही पूर्वांचल के अनेक इलाकों के किसान इस किस्म के नंबर तक को नहीं जानते।

नजरिए में बदलाव, प्रोसेसिंग को प्रोत्साहन
किसानों के नजरिए में भी बदलाव लाना होगा। वह भोजन के पैकिट वाली गोष्ठी में तो जुटते हैं लेकिन सार्थक चर्चाओं से दूर ही रहते हैं। नजरिया बदलने के लिए ठोस नीति होना आवश्यक है। इसके अलावा प्रोसेसिंग के क्षेत्र में किसानों को आगे लाना जरूरी है। किसानों से १५०० रुपए कुंतल में गहूं खरीद कर आईटीसी ३२०० रुपए प्रति कुंतल बेच सकती है तो सरकार कोई ऐसा मॉडल क्यों नहीं बना सकती। आणंद से शुरू हुआ डेयरी मॉडल विश्व के १५१ देशों तक दुग्ध उत्पादों के क्षेत्र में क्रांति ला सकता है तो क्या ऐसे कोऑपरेटिव मॉडल विकसित नहीं किए जा सकते। ऐसा इसलिए संभव नहीं हो पा रहा कि इटावा में संचालित पराग डेयरी अंतिम सांसें गिन रही है।

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दिलीप यादव

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