ठूंठ
ऑफिस से लौटकर आज भी वह पार्क के एक सुनसान कोने में अकेला आ बैठा। एक के बाद दूसरी सिगरेट फूँकता रहा। कभी खुद-ब-खुद धीरे से हंसकर अपने ‘जख्मों’ को सहलाता -सा लगता, तो कभी शून्य में निहार कर अपनी ही दुनिया में भटकता-सा।
ऑफिस से लौटकर आज भी वह पार्क के एक सुनसान कोने में अकेला आ बैठा। एक के बाद दूसरी सिगरेट फूँकता रहा। कभी खुद-ब-खुद धीरे से हंसकर अपने ‘जख्मों’ को सहलाता -सा लगता, तो कभी शून्य में निहार कर अपनी ही दुनिया में भटकता-सा।
...रात्रि में भी तब, जब रश्मि का एक टी.वी. व आलोक का दूसरे टी.वी. पर कब्जा-सा होता है। यह सब हमारे घर में ही नहीं होता, इस तरह के किस्से तो घर- घर के सुनने को मिलते रहते हैं।