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महामारी

महामारी

by महेश चंद्र जोशी
in अक्टूबर २०११, कहानी
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…रात्रि में भी तब, जब रश्मि का एक टी.वी. व आलोक का दूसरे टी.वी. पर कब्जा-सा होता है। यह सब हमारे घर में ही नहीं होता, इस तरह के किस्से तो घर- घर के सुनने को मिलते रहते हैं।

मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि इच्छा मुताबिक किये जा रहे महत्वपूर्ण कार्यों में अचानक आयी अड़चनों को कैसे दूर करूं?..अक्सर सुबह ताजा अखबार पढ़ना और रात्रि को टी.वी. देखना समय पर नहीं हो पाता। जबकि एक के बाद दूसरा अखबार लगाया और एक टी.वी. होते हुए दूसरा टी.वी.खरीदा। फिर भी सुबह अखबारों के बारे में पूछता हूं, तो अधिकतर यही सूचना मिलती है कि उन्हें आलोक देख रहा है। ऐसे ही रात्रि को टी.वी. देखने की सोचता हूं, तो ज्यादातर दोनों टी.वी. रिमोट आलोक व रश्मि के हाथों में होते हैं। वैसे आलोक के दो मुख्य शौक हैं: अखबारों में प्रकाशित बड़ीबड़ ी इनामी योजनाओं में हिस्सा लेना व कंप्यूटर गेम खेलना। जबकि रश्मि की विशेष रुचियां हैं: मोबाइल पर लगे रहना और टी.वी. पर गेम व फैशन-शो देखना। अपने स्वभाव के विपरीत इन दोनों बड़े बेटा-बेटी की ऐसी रुचियां, मेरी परेशानियां बढ़ाने लगती हैं। जिससे बचने के लिए मुझे दो अखबार लगाने व दो टी.वी. खरीदने ही बेहतर लगे। मोबाइल की तो जिसे-जिसे, जब-जब जरूरत महसूस हुई, दिलवाता रहा। इन सुविधाओं की व्यवस्था बैठाने के उपरांत मुझे इन चीजों में भी, समय पर, कभी कुछ नहीं मिल पाता है, तो कभी कुछ। जो जब मिलता भी है, तो उस स्थिति में नहीं, जिसमें मैं चाहता हूं। मसलन अखबारों को ही ले लें- घर में आने वाले ताजे अखबार, समय पर नहीं मिलते, यह तो स्पष्ट है ही। फिर उनमें से किसी का अंक जब हाथ लगता भी है तब या तो वह तुड़ा-मुड़ा होता है, जैसे उसमें कोई इनामी योजना न होने पर झुंझलाकर फेंका गया हो- या किसी अंक के साबुत नज़र आने पर देखता हूं, तो वह भीतर से पोस्ट-मार्टम किया हुआ-सा लगता है-जैसे प्रकाशित इनामी योजना संबंधी कोई विज्ञापन या कूपन काटा गया हो। नतीजतन उसके पीछे छपी न्यूज या कोई आर्टिकल आधा-अधूरा हाथ लगता है। अंत: दिन में अखबारों की विचित्र-सी स्थिति को लेकर विचलित हो जाता हूं। और रात्रि में भी तब, जब रश्मि का एक टी.वी. व आलोक का दूसरे टी.वी. पर कब्जा-सा होता है। यह सब हमारे घर में ही नहीं होता, इस तरह के किस्से तो घर-घर के सुनने को मिलते रहते हैं। याद आते मुझे बचपन के दिन, जब टी.वी. का तो नाम ही सुनने में नहीं आया। हां, रेडियो जरूर किसी हद तक सुधरी आर्थिक स्थिति वाले घरों की शोभा बढ़ाते थे। हमारे घर में भी एक छोटा रेडियो था, जो बैट्री से चलता। निश्चित है कि हमारे घर में बिजली कनेक्शन न था। काफी कोशिशों के उपरांत भी न मिल सका। मुझे याद नहीं आता कि हम भाई-बहनों ने कभी उस रेडियो से फिल्मी गानें सुने हों। बाऊजी के घर रहने पर ही अधिकतर रेडियो का स्विच ऑन होता था। जो या तो न्यूज सुनते या फिर शाधर्िींय संगीत। हमारे घर पर भी शाधर्िींय गायकों के ही ठाामोफोन रिकार्ड बजते थे। जो भाई-बहनों के ज्ञान और रुचि से कोसों दूर थे। फिर भी बाऊजी के हम भाई-बहनों से नपी-तुली बातें करने के कारण कोई साहस न जुटा पाता था कि उनकी किसी बात का विरोध कर सकें। जबकि हमारे बच्चे अपनी-अपनी पसंद के अधिकतर प्रोठााम्स रेडियो व टी.वी. पर देख लेते हैं। इस स्थिति में जब दोनों बड़े बच्चे समय का कुछ ज्यादा ही दुरुपयोग करते नजर आते हैं, तो मैं उनके समय की बर्बादी न करने व अपने-अपने भविष्य को संवारने की बात ज़रा गंभीरता से कह देता हूं। वे भी इस तरह अपने विरोध में सुनी गयी टिप्पणियों पर या तो एकदम चुप हो जाते हैं या फिर उत्तर देने पर बड़ी-बड़ी योजनाएं बनाने की बातें करने लगते हैं। इतना ही नहीं भारी इनाम अपने पक्ष में आ जाने पर घर की काया पलट कर देने का दावा करने लगते हैं।

बच्चों की ऐसी दलीलें सुनने के बाद हंसी आते-आते दु:ख़ होने लगता है कि इन्हें समझ कब आयेगी? इस प्रश्न का उत्तर तो मिलता नहीं, उल्टे सोचने लगता हूं कि इनकी ऐसी मानसिक स्थिति बनने के लिए केवल ये ही दोषी क्यों? वह पूरा माहौल क्यों नहीं, जिसके कारण घर-घर में यह बीमारी पैर पसार रही है? लगभग हर उम्र का व्यक्ति इन दााोतों के जरिए रातों-रात मालामाल बनने का प्रयत्न कर रहा है। जबकि ये चीजें तरह-तरह का ज्ञान बढ़ाने व समय का सदुपयोग करने के महत्वपूर्ण साधन हैं।

मुझे लगता है कि जैसे इनसान की प्रवृत्ति किसी चीज का दुरुपयोग करने की ओर ज्यादा बढ़ती जा रही है.. किसको दोष दिया जाए, किसको नहीं?.. कभी-कभी मैं चुप्पी साध लेता हूं। मेरी इस स्थिति का कारण जानकर पत्नी का सीधा उत्तर होता है- हवा ही ऐसी है। ये बच्चे ही अपना-अपना भविष्य खुद तय कर लेंगे।.. और दोनों बड़े बच्चे, जब मेरी खामोशी का कारण जान लेते हैं, तब ये मुझे हंसाने का प्रयत्न करने लगते हैं। किसी को एसएमएस देकर मूर्ख बनाने की बात कह कर, तो कभी किसी का भारी इनाम निकल जाने की झूठी चर्चा यारदोस्तों के बीच फैलने के किस्से सुनाकर। मैं खुलकर हंस तो नहीं पाता हूं, परंतु मेरा अफसोस जरूर प्रकट हो जाता है.. ऐसे वक्त याद आते हैं बचपन के वे दिन, जब हम भाइयों को स्वस्थ गेम-फुटबाल, हॉकी, क्रिकेट वगैरा के लिए शिक्षा संस्थाओं व घर से पूरा-पूरा दबाव होता था। शुरू-शुरू में तो हमारी खेल के मैंदानों में न जाने की इच्छा होती,
लेकिन फिर धीरे-धीरे वहां जाए बगैर मन मानता भी न था। और अब तो, जैसे हर चीज के लगभग सारे मायने ही बदल गये हों- चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक.. खैर ऐसे दौर से गुजरते हुए यकायक उस दौरान एक समय ऐसा भी आया, जब एक प्रमुख अखबार के प्रकाशित इनामी नंबरों में, एक नंबर से आलोक एक इनामी बांड नंबर का मिलान हो गया। सबके-सबके साथ-साथ मैं भी खुश हुआ। परंतु जब ऐसी सफलताओं का बच्चों पर गलत असर पड़ने की ओर ध्यान गया, तो मैं भीतर-ही भीतर घबरा भी गया। फिर उस दुविधा में पड़ गया, जब मेरी दृष्टि अखबार के इनामी नंबरों से भरे उस पूरे पन्ने पर गयी, जिसमें आलोक का भी इनामी नंबर अंकित था। फिर भी मन में उठी शंका कि इस स्थिति में आलोक को मामूली इनाम मिल सकता है, परिवार के सदस्यों के बीच उजागर न कर सका। इसके विपरीत उनकी इस संबंध की खुशी में शामिल होने का प्रयत्न करने लगा। जहां पत्नी कह रही थी आखिर आलोक की मेहनत व लगन रंग लायी है। और रश्मि का उत्साह भरा स्वर था- इनसान के इरादे मजबूत हों, तो वह क्या नहीं पा सकता।

’’बेशक’’, मैं बोल उठा। उसके बाद चुपचाप कमरे में ही चहलकदमी करने लगा। और पत्नी पड़ोसियों को अपनी खुशी प्रगट करने के लिए चल दी। कुछ समय ऐसे ही कटा था कि यकायक बाहर किसी के मेन गेट खोलने का स्वर कानों तक आया। मैं फुर्ती से बाहर निकला। देखा एक पड़ोसी वह गेट बंद कर रहा है। मैं बरामदे में खड़ा हो गया।

कुछ क्षणों पश्चात जैसे ही उसकी दृष्टि मुझ पर पड़ी तभी वह ऊंचे स्वर में बोला- ’’ बधाई हो… आप सबको इनाम निकलने की बधाई।’’ ’’ इसमें बधाई कैसी?’’ मैं हंसता हुआ बोला -’’ यह तो बच्चों का खेल है।’’
’’ नहीं साहब…’’ वह अभी अधूरी ही बात कह पाया था कि एक साथ तीन मित्र, मेन गेट खोल कर भीतर आए। और आते ही गले लग कर अपनी खुशी का इजहार करने लगे। मुझे अजीब-सा लगा, हंसता-सा बोल उठा- ’’आज सबको हो क्या गया है ? ’’ यह सुनते ही पड़ोसी तो हाथ जोड़ कर चुपचाप रवाना हो गया। परंतु बाद में एक साथ आने वाले लोग आश्चर्य भरी दृष्टि से मुझे निहारने लगे, जैसे में पगला गया हूं.. इस तरह हमारे बीच खामोशी कुछ ही पल रही होगी कि उन तीनों में एक का स्वर गूंजा-’’ऐसे चुप रहने से काम नहीं चलेगा जनाब.. आज तो मुंह मीठा…।’’ ’’ आज ही क्यों?’’ मेरा तनिक व्यंग्यात्मक स्वर था- ’’रोज
करो न मुंह मीठा।’’
’’जरूर करेंगे।’’ एक ने जैसे झेंपते हुए कहा। फिर दूसरे ही पल उसने अपना सुझाव- ’’लुटेरों की संख्या बढ़ती जा रही है’’ आ गया। अब तीसरा चुप न रह सका, बोल उठा-’’कम-से-कम दो बलिष्ठ आदमियों को साथ ले जाना।’’ मैं कुछ न बोला। चुपचाप उन तीनों के व्यंग्य बाणों की चुभन को सहता हुआ वहीं चहलकदमी करने लगा। मुझे पता ही न चला कि कब वे तीनों चुपचाप वहां से रवाना हो गये। और मुझे सोचने के लिए मजबूर कर गये कि उनके व्यंग्य बाणों से केवल मैं ही घायल हुआ या परिवार का कई अन्य सदस्य भी।.. मैंने गौर किया। परंतु मुझे ऐसा कुछ नजर नहीं आया। हां आलोक व रश्मि की प्रतिक्रियाएं- ’’अकेले इनाम लाने में हम कोई घबराते हैं क्या?..भैया, आप अकेले क्यों, मैं भी आपके साथ चलूंगी।’’ मेरे कानों में गूंजा।..घर में ऐसी चर्चाएं चलते- चलते इनाम मिलने की निश्चित तिथि आ गयी। आलोक व रश्मि स्कूटर पर, इनाम लेने रवाना हो गये। लौटे तो मध्यम आकार का एक पैकेट लेकर आये। पत्नी तो फूली नहीं समायी। गदगद स्वर में बोली- ’’वाह बेटा वाह।’’ फिर पलक झपकते ही वे घर के मंदिर की ओर लपकीं।’’ फुर्ती से दीपक जलाकर ताली बजाती हुई भजन गाने लगीं। यह देख कर सभी बच्चे भी तालियां बजा कर उनकी लय में लय मिलाने लगे। मुझे यह सब देख कर राग-सा लगा। अत: पत्नी के भजन गुनगुनाते हुए, बच्चों के बीच आने पर, मैं बोले बगैर न रह सका-’’पहले पैकेट तो खोलो। ये..ये भजन- किर्तन तो होते रहेंगे।’’

यह सुनते ही लगभग सबकी नाराजगी भरी नजरें मेरी तरफ उठ गयीं। फिर देखते- देखते आलोक व रश्मि ने पैकेट खोलना शुरू किया। जिसे देख कर सबकी उत्सुकता-भरी नजरें पैकेट पर टिक गयीं। छोटी बिटिया तो पैकेट खुलने तक तालियां-तालियां बजा-बजा कर अपनी खुशी प्रकट करती रही। लेकिन पैकेट खुलते ही लगभग सबकी उत्साह व उत्सुकता भरी नज़रें भारी उदासीनता के बोझ से झुक गयीं, जब इनाम के नाम पर कांच की मध्यम साइज की ही छह प्यालियां पैकेट में से निकलीं।

’’यह क्या हुआ?’’ आलोक जैसे आकाश से पाताल में जा गिरा हो। वह क्या गिरा, जैसे ऐसे ही गिरे हों, घर के महत्वाकांक्षी सदस्य भी। परंतु मैं अपने इतने लंबे जीवन के कटु अनुभवों के आधार पर इसे बड़े आश्चर्य की बात नहीं मान रहा था। ना मुझे विशेष अफसोस हो रहा था। उल्टे मुझे यह सोच कर संतोष हो रहा था कि चलो यह बड़ा कटु अनुभव विशेष तौर से इन दोनों बड़े बेटा-बेटी कि आंखें तो खोलेगा। कहने से तो इन्होंने कभी माना नहीं। परंतु दूसरी ओर मुझे यह बात जरूर अखर रही थी कि जब लोग इनाम के बारे में मुझसे पूछेंगे, तो मैं क्या उत्तर दूंगा?..पत्नी व बच्चे क्या सफाई पेश
करेंगे..?
लोगों को इनाम के विषय में पूछने पर किसने क्या कहा, यह तो किसी को, एक-दूसरे का पता न चल सका। क्योंकि अब घर के सभी बड़े सदस्य खुल कर एक दूसरे से नहीं बोल पा रहे थे। परंतु ऐसा लग रहा था कि मुख्यत: आलोक व रश्मि बड़ा इनाम न मिलने के कारण इतने दु:खी हो गये हैं कि वे अब क्या भविष्य में भी अखबार, मोबाइल और टीवी के नजदीक नहीं जायेंगे। जबकि अखबारों में इनामी योजनाएं समय-समय पर प्रकाशित होती रहीं। मोबाइल में इनामी संबंधी नये-नये मैसेजेज यूं ही आते रहे। और टीवी पर मनोरंजन व अन्य रुचियों के कार्यक्रम बढ़ते नजर आये। कुछ दिनों तक जब मैंने, इन दोनों बड़े बच्चों की ऐसी मानसिक स्थिति देखी, जैसे इन्हें इनामों के चक्कर में पड़ कर पछतावा हो रहा है, तो मुझे गहरा संतोष मिला। लगा वास्तव में अब ये ऐसी महत्वपूर्ण चीजों का लाभ ही उठायेंगे।..मैंने भगवान का शुक्रिया अदा किया। कुछ दिनों तक तो सब सामान्य-सा चलता रहा। परंतु फिर मैं यकायक चौंक गया, जब मुझे धीरे-धीरे फिर से सुबह समय पर अखबार हाथ नहीं आते। अपना मोबाइल तक यथास्थान पर नहीं मिलता। और दोनों टीवी के सामने पहले की तरह रात्रि को आलोक व रश्मि बैठे नजर आते।

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