क्या हम अपने ‘स्व’ को पहचानना नहीं चाहते?

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भारत के सिवा दुनिया में शायद ही ऐसा कोई देश होगा जहां के समाज के मन में “हम कौन हैं? हमारे पुरख़े कौन थे? हमारा इतिहास क्या रहा है?” इस के बारे में कोई सम्भ्रम या भिन्न भिन्न मत होंगे। पर भारत में, जो दुनिया का सबसे प्राचीन राष्ट्र है और जहां सब से समृद्ध समाज रहने के बावजूद हमारी इस विषय पर सहमति नहीं है।इसका एकमात्र कारण यही दिखता है कि हम एक समाज और एक राष्ट्र के नाते अपने “स्व” को पहचानना और उसे आत्मसात् करना नहीं चाहते। कुछ उदाहरण देखें।

कैसा होगा संघ का शताब्दी वर्ष ? 

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना को वर्ष 2025 में 100 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। 1925 में नागपुर में संघ स्थापना हुई थी। इस घटना को इस वर्ष 2022 की विजयादशमी को 97 वर्ष पूर्ण होंगे। संघ का कार्य किसी की कृपा से नहीं, केवल संघ के कार्यकर्ताओं के परिश्रम,…

हमारा पुरुषार्थ जागेगा

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हमारे प्राचीन समाज की एकता का आधार पहचानकर, हमारा ‘स्व’ पहचानकर उसके प्रकाश में हमारी नीतियों का विचार किया, तो हम हमारे इस संभ्रम के, आत्मविस्मृति के घेरे से बाहर निकल सकेंगे। हमारा ‘स्व’ यदि जग गया और हम स्वाभिमान से भर गए तो हमारा पुरुषार्थ जागेगा और उसके बल पर हम फिर एक बार हमारा पुरुषार्थ और पराक्रम से युक्त, संपन्न, समाधानी और आनंदपूर्ण समाज जीवन निर्माण कर सकेंगे।

कार्यकर्ता निर्माण करने वाला व्यक्तित्व – दत्तोपन्त ठेंगड़ी

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जिस समय स्वर्गीय दंत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने भारतीय मजदूर संघ की स्थापना की वह साम्यवाद के वैश्विक आकर्षण, वर्चस्व और बोल बाले का समय था। उस परिस्थिति में राष्ट्रीय विचार से प्रेरित शुद्ध भारतीय विचार पर आधारित एक मजदूर आंदोलन की शुरुआत करना तथा अनेक विरोध और अवरोधों के बावजूद उसे लगातार बढ़ाते जाना यह एक पहाड़ सा काम था। श्रद्धा, विश्वास और सतत परिश्रम के बिना यह काम संभव नहीं था।

गांधी जी और संघ- एक अवलोकन

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ग्राम विकास, सेंद्रिय कृषि, गौसंवर्धन, सामाजिक समरसता, मातृभाषा में शिक्षा और स्वदेशी अर्थ व्यवस्था एवं जीवनशैली जैसे महात्मा गांधी जी के प्रिय एवं आग्रह के क्षेत्रों में संघ स्वयंसेवक पूर्ण मनोयोग से सक्रिय हैं। महात्मा गांधी जी की इस वर्ष 150वीं जयंती पर उन्हें आदरांजलि।

संघ कार्य का क्रमशः विकसित होता आविष्कार

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“संघ कार्य और विचार सर्वव्यापी और सर्वस्पर्शी बन रहा है, बढ़ रहा है। इसके पीछे मूल हिंदू चिंतन से प्रेरित युगानुकूल परिवर्तनशीलता और ‘लचीली कर्मठता’ ही शायद कारण है। हर चुनौती को अवसर समझ कर उसके अनुरूप प्रशिक्षण तथा संगठनात्मक रचना खड़ी करने की संघ की परम्परा भारत की उसी परम्परा का परिचायक है जो अपने मूल शाश्वत तत्व को बिना छोड़े बाह्य रचना एवं ढांचे में युगानुकूल परिवर्तन करता रहा है।

संघ वटवृक्ष के बीज- डॉक्टर हेडगेवार

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार का निधन होने के पश्चात् भी, अनेक उतार-चढ़ाव संघ के जीवन में आने के बाद भी, राष्ट्र जीवन में अनेक उथल-पुथल होने के बावजूद संघ कार्य अपनी नियत दिशा में, निश्चित गति से लगातार बढ़ता हुआ अपने प्रभाव से सम्पूर्ण समाज को स्पर्श और आलोकित करता हुआ आगे ही बढ़ रहा है। संघ की इस यशोगाथा में ही डॉक्टर जी के समर्पित, युगदृष्टा, सफल संगठक और सार्थक जीवन की यशोगाथा है।

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