पितरों के प्रति श्रद्धा का अनुष्ठान
ऐसा विश्वास है कि जिस मृतक के लिए पिंडदान नहीं होता अथवा जिसके लिए सोलह श्राद्ध नहीं होते, वह सदा के लिए पिशाच की स्थिति में रहता है - यस्यैतानि न दीन्यत प्रेतश्रद्धानि षोडशः पिशाचत्वं ध्रुवं तस्य दत्तै श्राद्धशतैरपि। (गरुड़ पुराण/प्रेत खंड 34/131) इस स्थिति से बाद में अगणित श्राद्ध करने के उपरान्त भी मुक्ति संभव नहीं है। ब्रह्म पुराण ने इस शरीर की स्थिति को यातनीय (यातना पाने वाला) कहा है, किन्तु अग्नि पुराण ने इसे यातनीय अथवा आतिवाहिक अभिहित किया है और कहा है कि यह शरीर आकाश, वायु एवं तेज से बनता है। पद्मपुराण (2/67/98) का कथन है कि जो व्यक्ति कुछ पाप करते हैं, वे मृत्यु के उपरान्त भौतिक शरीर के समान ही दुःख भोगने के लिए एक शरीर पाते हैं।