लोकतांत्रिक चेहरों पर एकशाही की मासूमियत
लोकतंत्र का शिखर तलहटी को थोड़ा-थोड़ी सरकाता रहता है। न बर्फ खिसके, न वोट बैंक। परिवार उठता चला जाए। साधारण सीं झोंपड़ी से निकलकर हजारों करोड़ की मिलकियत कैसे बन जाती है! पर चेहरे पर जनवाद लहलहाता है।
लोकतंत्र का शिखर तलहटी को थोड़ा-थोड़ी सरकाता रहता है। न बर्फ खिसके, न वोट बैंक। परिवार उठता चला जाए। साधारण सीं झोंपड़ी से निकलकर हजारों करोड़ की मिलकियत कैसे बन जाती है! पर चेहरे पर जनवाद लहलहाता है।